रेलमार्ग (Railway Track, Permanent way) रेलगाड़ियों के चलने के लिए रेलों (लोहे की पटरियों) को फिश प्लेट तथा फिश काबलों द्वारा जोड़कर स्लीपरों पर समांतर बिछाए हुए मार्ग को रेलमार्ग कहते हैं। पृथ्वी की ऊँची नीची सतह को मिट्टी की कटाई, या भराई से एक सा करके ऊपर रोड़ी, या गिट्टी बिछाई जाती है और फिर स्लीपरों के ऊपर रेलों की जड़ाई की जाती है। इस प्रकार रेलगाड़ी के चलने के लिए एक मजबूत तथा एक सा मार्ग तैयार हो जाता है।

पूर्व इतिहास - आरंभ में रेल परिवहन इंग्लैड में कोयले की खानों में होता था। कोयले से लदी गाड़ियाँ, घोड़ों द्वारा खींची जाती थीं, पर गाड़ियों के भार के कारण पहिए मिट्टी में धँस जाते और उनका चलना कठिन हो जाता था। इस कठिनाई को दूर करने के लिए १७वीं शताब्दी में पहियों की दूरी का ध्यान रखते हुए मीलों तक दो लकड़ी के तख्तों की लाइन बिछा दी जाती थी, जिससे इन गाड़ियों के चलने में सुविधा हो। इन तख्तों को अपनी दूरी पर रखने के लिए लकड़ी के स्लीपरों से जोड़े जाने की आवश्यकता प्रतीत हुई और इस प्रकार स्लीपरों का उपयोग आरंभ हुआ। पर ये तख्ते कमजोर होने के कारण शीघ्र ही टूट जाते थे। इस कारण लकड़ी के तख्तों पर लोहे की पट्टियाँ जड़ी गई। इन पट्टियों पर से पहिए आसानी से उतर जाते थे और इसको रोकने के लिए लोहे-कोशों का उपयोग किया गया और लोहे के किनारेदार पहिए (flanged wheels) बनाए गए। पहियों को जमीन में धँसने से बचाने के लिए रेलों को ऊँचा बनाया गया। समय की प्रगति के साथ भाँति भाँति के नमूने की रेलें बनाई गई, जिनमें दुमुँही (double head, देखें चित्र १.), वृषभ सिरा (bull head, देखें चित्र २.) तथा चपटे तल वाली (flat foot, देखें चित्र ३.) मुख्य हैं। प्रारंभ में ये पटरियाँ चार फुट लंबी होती थीं और इनको सँभालनेवाली कुर्सी आधार तथा जोड़ दोनों का कार्य करती थी। बाद में जब रेलों की लंबाई अधिक होने लगी तथा उनपर गाड़ियों की गति तीव्र हुई, तब रेलों को जोड़ने के लिए फिश प्लेट (एक विशेष प्रकर की जोड़-पट्टी, देखें चित्र ७.) तथा फिश वोल्ट (जोड़नेवाले कावले, देखें चित्र ८.) काम में लाए गए।

चित्र १. दोमुँही रेल चित्र २. वृषभ सिरा रेल

चित्र ३. चपटे तल की रेल

निर्माण - रेलमार्ग के लिए आदर्श राह वह है जो दो व्यापारिक केंद्रों को एक सीध में, समतल भूमि में होती हुई, मिला पाए। इस प्रकार की लाइन बनाने से इस पथ की लंबाई कम होने के साथ साथ मिट्टी की कटाई तथा भराई में भी कमी होगी। पर व्यावहारिक रूप में अधिकतर ऐसी समतल राह संभव नहीं हो पाती। साथ ही बीच के छोटे-छोटे व्यापारिक केंद्रों को भी ध्यान में रखना पड़ता है। इस प्रकार इन सबका विचार करके रेलमार्ग के लिए ऐसी राह निर्धारित की जाती है, जो हर दृष्टिकोण से अधिकाधिक लाभप्रद हो और निर्माणव्यय भी कम हो। खड़ी चढ़ाई तथा तीव्र घुमाववाले रेलमार्ग में कटाई तथा भराई कम होने के कारण प्रारंभिक व्यय तो कम होता है पर उसके परिचालन में अधिक व्यय होता है। इस कारण जहाँ आरंभ में यातायात के विकास का पूरा भरोसा नहीं होता, सस्ता से सस्ता ऐसा मार्ग निर्धारित किया जाता है जिसको औद्योगिक विकास के साथ साथ उन्नत किया जा सके। अधिकतर निर्माण तथा परिचालन के व्यय दोनों में संधि करनी पड़ती है जिससे दोनों को मिलाकर न्यूनतम व्यय हो। पहाड़ी देशों में कटाई की मिट्टी भराई में डाली जाती है और ६० फुट से अधिक की भराई को पुल बनाकर पार किया जाता है।

निर्माण की दृष्टि से रेलमार्ग को तीन भागों में बाँटा जा सकता है : (१) आधार तल, (२) गिट्टी, या रोड़ी तथा (३) रेलपथ।

आधार तल - रेलगाड़ी के लिए समतल आधार की आवश्यकता होती है, जबकि अधिकतर पृथ्वी की सतह ऊँची नीची है। अत: जिस स्थान से रेलपथ ले जाना होता है, उसको समतल करने के लिए मिट्टी की भराई, या कटाई की जाती है। रास्ते में नदी, नालों, नहरों, या अन्य नीचे स्थानों के लिए पुल बनाए जाते हैं, तथा पर्वतश्रेणियों के एक ओर से दूसरी ओर जाने के लिए सुरंगें काटी जाती हैं। विभिन्न स्थानों की ऊँचाई भिन्न होने के कारण रेलपथ में भी उतराव चढ़ाव देना होता है, पर इंजन की खींचने की शक्ति को ध्यान में रखते हुए इस चढ़ाव उतराव की ढाल काफी धीमी रखी जाती है। इस चढ़ाव उतराव की ढाल को अंग्रेजी में ग्रैडिएंट (gradient) कहते हैं और यह गति अनुपात, या प्रतिशत में नापी जाती है। १%, या १०० में १ चढ़ाई का अर्थ होता है कि एक सौ फुट की दूरी में रेल सतह एक फुट ऊँची उठ गई है। इसी प्रकार २%, या ५० से १ का अर्थ होता है कि पचास फुट की दूरी में १ फुट की चढ़ाई। भारत में सबसे खड़ी चढ़ाई की रेल दक्षिण की नीलगिरि की पहाड़ियों में है, जहाँ ८% (१२.५ में एक) तक की चढ़ाई है और गाड़ियों को नीचे फिसलने से रोकने के लिए रेल पटरियों के मध्य एक तीसरी दाँतेदार पत्थर की शलाका लगाई जाती है, जिसमें इंजन के गरारीदार पहिए फँसकर गाड़ी को नीचे फिसलने से रोकते हैं। जहाँ चढ़ाई हलकी है, मध्य शलाका की आवश्यकता नहीं होती तथा इंजन साधारण तौर पर चलता है। मेट्युपल्याम से ऊटकमंड तक की यह २८.५ मील लंबी लाइन मीटर गेज (आमान) की है।

अन्य बिना दाँतेदार खड़ी चढ़ाई की रेलों के नमूने हैं : पंजाब में कांगड़ा तथा कुलू की घाटी में बनी हुई लाइनें तथा कालका से शिमला तक २ फुट ६ इंच गेज की और दार्जिलिंग-हिमालयन २ फुट गेज की छोटी लाइनें। पहाड़ों में अधितर घुमाव अधिक होने के कारण गेज (आमान) छोटा ही रखा जाता है। हाँ बंबई से पूना तक तथा बंबई से इगतपुरी तक पहाड़ी रास्ता होते हुए भी बड़ी लाइन बनाई गई है। इन दोनों रास्तों की भी चढ़ाई काफी खड़ी है। काफी दूरी तक ३७ में एक के अनुपात की चढ़ाई है। श्रीलंका में भी पहाड़ी लाइन बड़े आमान (५'-६'') की है तथा वहाँ के घुमाव भी काफी तीव्र (३०० फुट अर्धव्यास के) हैं।

राह में जहाँ नदी नाले, या गहरी खाइयाँ पड़ती हैं, वहाँ रेलमार्ग पर पुल बनाए जाते हैं। पुल कई प्रकार के होते हैं, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं :

(अ) खुली पुलिया - छोटी छोटी नालियों को पार करने के लिए दोनों ओर पाए बनाकर पुल बना दिए जाते हैं। इनका उपयोग ऐसे स्थानों में होता है, जहाँ रेलतल तथा पृथ्वीतल में अधिक अंतर नहीं होता।

(ख) पाइप, या नल पुलिया - इसके लिए लोहे के लोह प्रबलित कंक्रीट के नलों को प्रयोग में लाया जाता है। कहीं कहीं ईटों की चिनाई करके डाटदार नल भी बनाए जाते हैं।

(स) डाट पुल - जहाँ रेल की ऊँचाई पर्याप्त होती है, वहाँ, ईटों, पत्थरों, या कंक्रीट की डाट के पुलों का उपयोग होता है। अधिकांश २० फुट, या २५ फुट तक के दर के पुल डाट के बनते हैं, क्योंकि इनसे अधिक दर के लिए ढूला तैयार करना कठिन होता है, पर ६० फुट, ७५ फुट तथा १०० फुट तक चौड़ी डाट के पुल भी बनाए गए हैं।

(द) गर्डंर पुल - लोहे के गर्डरों के पुलों का रेलपथ में पर्याप्त उपयोग होता है और ये भारत में ६ फुट से ४०० फुट की लंबाई तक उपयोग में लाए गए हैं। मोकामा के पास गंगा नदी पर राजेंद्र पुल में ४०० फुट के १४ गर्डर लगाए गए हैं। पश्चिमी पाकिस्तान में सक्कर के पास सिंध नदी पर एक विशेष पुल है, जिसमें नदी के दोनों किनारों पर पाए लगे हैं। इनसे ३१० फुट के गर्डर दोनों ओर से छज्जे की तरह निकाले गए हैं और इनके बीच की दूरी को २०० फुट के गर्डर से पूरा किया गया है। इस प्रकार ८०० फुट के विस्तार को बिना किसी पाए के पार किया गया है। इस पुल का तला पानी की सतह से ५२ फुट ऊँचा है, पर बाढ़ के दिनों में ३५ फुट रह जाता है।

गिट्टी, या रोड़ी - गिट्टी के द्वारा जलनिस्सरण होता है तथा यह रेल लाइन की सिधाई स्थिर रखने में भी सहायक होती है। स्लीपरों के लिए यह मजबूत तथा समतल आधार प्रदान करती है। इससे रेल के ऊपर आया हुआ गाड़ी का भार अधिक विस्तृत क्षेत्र पर फैल जाता है। स्लीपरों के नीचे गिट्टी की मात्रा ६ इंच से फुट भर तक होती है। गिट्टी का एक कार्य रेलपथ को लचक प्रदान करना तथा उसकी सतह को सुरक्षित रखना भी है। जहाँ गाड़ियाँ तीव्र गति से चलती हैं, वहाँ अधिकतर गिट्टी सख्त, साफ टूटे हुए पत्थर के टुकड़ों की होती है। कहीं कहीं झाँवाँ की गिट्टी का भी प्रयोग करते हैं। जोधपुर की ओर संगमरमर का पत्थर अधिकता से मिलने के कारण उसी का उपयोग किया जाता है। जहाँ गाड़ी की गति तीव्र नहीं होती वहाँ रेत, मिट्टी इत्यादि को भी गिट्टी के स्थान पर उपयोग मे लाया जाता है।

चित्र ४. कुत्ता कील

रेल पथ - रेल पथ के मुख्य अंग रेल पटरी, स्लीपर तथा उनको आपस में जोड़नेवाले सामान हैं।

रेल पटरियाँ लोहे की उन विशेष आकार की शहतीरों को कहते हैं जिन्हें जोड़कर रेलमार्ग बनाया जाता है। इनका कार्य इंजन तथा बोगी, या वैगनों के भार को सहन करना है। इनका आकल्पन गर्डरों की ही भाँति किया जाता है। आकार में ये मुख्यत: तीन प्रकार की होती हैं : (१) दोमुँही (चित्र १.), (२) वृषभसिरा या अर्धभारित (चित्र २.) तथा (३) चपटे तलवाली (चित्र ३.)।

प्रारंभ में रेल की पटरी का ऊपरी तथा निचला भाग एक ही तरह का रखा गया था, जिससे ऊपरी भाग के घिस जाने पर पटरी को उलटकर व्यवहार में लाया जा सके। पर यह देखा गया कि कुरसियों की जकड़ से निचला भाग कट जाता है, जिसके कारण उसको उलटकर व्यवहार में लाना संभव नहीं होता था। भाँति भाँति के आकारों की रेलों का उपयोग किया गया, पर अब केवल दो आकारों की रेल ही प्रचलित है। ब्रिटेन में अधिकतर वृषभसिरा रेल उपयोग में लाई जाती है, यद्यपि अब वहाँ भी समतल रेलों का उपयोग होने लगा है। भारत, अमरीका तथा यूरोप के अन्य देशों में अधिकतर समतल रेलों का उपयोग होता है।

चित्र ५. आधार पर (वियरिंग प्लेट)

वृषभसिरा रेलों को स्लीपर पर सहारा देने के लिए एक विशेष प्रकार की लोहे की कुरसी लगाई जाती है।

चपटे तलवाली रेल सख्त लकड़ी (साल, जाड़ा ई.) के स्लीपरों पर रखकर कुत्ता कीलों (dog spikes, देखें चित्र ४.) द्वारा जड़ दी जाती है। नरम लकड़ी (देवदारु, चीड़, कैल, फर इ.) के स्लीपरों पर रेल की जड़ाई करने के लिए बियरिंग प्लेट (आधार पट, देखें चित्र ५) काम में लाते हैं। देखा गया है कि पटरी गाड़ी की गति से अक्सर अपने स्थान से आगे को सरकती रहती है। इसको सरक (creep) कहते हैं। इस सरक को रोकने के लिए ऐंकर (anchor, चित्र ६.) लगाए जाते हैं। यह भिन्न भिन्न लोगों ने भिन्न भिन्न आकार तथा भिन्न भिन्न अभिकल्पों के बनाए हैं, पर मूलत: यह इस्पात का, एक विशेष आकार का टुकड़ा होता है, जो स्लीपर के किनारे पर रेल में फँसा दिया जाता है। इस प्रकार यह रेल को पकड़े रहता है और रेल को आगे सरकने से रोकता है। रेल की सरक रोकने के लिए एक विशेष प्रकार के लंगर पट भी काम में लाए जाते हैं।

चित्र ६. ऐंकर (अंकुश)

रेल की पटरियों की नाप पाउंड प्रति गज के अनुसार की जाती है। पर मीटरी पद्धति के चालू हो जाने से यह नाप किलोग्राम प्रति मीटर से होने लगी है। पटरियों का आकार तथा भार इसपर निर्भर करता है कि उनपर किस प्रकार के यातायात का आयोजन है। अधिकतर धुरी भार तथा गाड़ी की गति, या यातायात के घनत्व से, उनका आकार तथा भार प्रति गज निर्धारित करते हैं। बड़ी लाइन (broad guage) पर पटरियाँ ७५ पाउंड प्रति गज से लेकर ११० पाउंड प्रति गज तक व्यवहार में आती हैं। मुख्य (main) लाइन में जहाँ गाड़ी की गति ६० मील प्रति घंटा तक है, ९० पाउंड प्रतिगज तथा शाखा (branch) लाइन में ७५ पाउंड प्रति गज की रेलें लगाई जाती हैं। खानों के आसपास जहाँ यातायात बहुत अधिक है, १०० या ११० प्रति गज की रेलें उपयोग में लाई गई हैं। रेलवे बोर्ड ने अभी हाल ही में मुख्य लाइनों के लिए, जहाँ गति बढ़ाने का विचार है, १०५ प्रतिगज की रेल का अभिकल्प निर्धारित किया है। मीटर लाइन में सामान्यत: ५० से ७५ प्रति गज की रेल उपयोग में आती है। कुछ पुरानी बड़ी लाइनों पर ६० तथा मीटर लाइनों में ४१.५ पाउंड की रेलें लगी हुई हैं। इनपर बहुत ही हलके इंजिन चल सकते हैं और इस कारण शीघ्रता से इनके स्थान पर भारी पटरियाँ लगाई जा रही हैं। छोटी लाइन में ३० से लेकर ६० पाउंड प्रतिगज तक की रेलें उपयोग में आती हैं।

रेल-पटरियों की लंबाई अधिकतर ३० फुट से लेकर ४२ फुट तक होती हैं। कई देशों में ६० फुट लंबाई तक की रेलें भी प्रयुक्त की जाती हैं। रेलों को आपस में जोड़ने के लिए फिश प्लेट (देखें चित्र ७.) तथा फिश बोल्ट (देखें चित्र ८.) का व्यवहार होता है।

चित्र ७. फिश प्लेट का नमूना

ऐसे जोड़ों (देखें चित्र १६.) की देखभाल में काफी खर्च होता है। इसलिए इन जोड़ों को कम करने के लिए आजकल झलाई करके लंबी लाइनें बना ली जाती हैं। ऐसी झलाई की हुई रेलों से देखभाल का खर्च तो कम हो ही जाता है, साथ ही झटके कम लगने से यात्रा भी बड़ी आरामप्रद हो जाती है। गर्मी में लाइनों की लंबाई बढ़ने से उनके टेढ़े-मेढ़े होने का डर होता है, जिसके लिए विशेष सतर्कता रखी जाती है तथा लाइन को मजबूती से स्लीपरों तथा गिट्टी में जकड़कर रखा जाता है। लंबी झली हुई पटरियों में जोड़ न होने के कारण अवैधानिक रूप से लाइन उखाड़ने का डर भी कम हो जाता है।

चित्र ८. फिश बोल्ट

रेलपटरियाँ तथा उनके जोड़ने के लिए फिश-प्लेट, फिश-बोल्ट, कुत्ता कीलें, केंकर इत्यादि इस्पात के बनते हैं। इस्पात में कार्बन की कमी और अधिकता करने से तथा मैंगनीज़, कोबाल्ट तथा अन्य तत्वों को विभिन्न अनुपातों में मिलाने से उसकी मजबूती तथा अन्य गुणों में अदल बदल की जा सकती है।

चित्र ९. पारपथ

आमान, या गेज़ (gauge) - रेल की पटरियों की आपस की दूरी को गेज, या आमान कहते हैं। भारत में मुख्यत: दो आमान हैं : बड़ी लाइन का आमान, ५ फुट ६ इंच, तथा मीटर लाइन का आमान, एक मीटर (३ फुट श्इंच)। कुछ पहाड़ी तथा अन्य भागों में छोटी लाइनें भी हैं, जिनके आमान २ फुट ६ इंच तथा २ फुट हैं।

स्पेन, पुर्तगाल, ब्राज़िल और चिली में भी मुख्य लाइनें ५ फुट ६ इंच आमान की हैं। इंग्लैंड का सामान्य आमान ४ फुट श्इंच चौड़ा है, किंतु वेल्स के पहाड़ी क्षेत्र में कुछ कम चौड़ी लाइनें भी बनी हुई हैं। आरंभ में ब्रिटेन की ग्रेट वेस्टर्न रेलवे की लाइन ७ फुट चौड़े आमान की थी, किंतु अंत में प्रचलित दूरी (४ फुट श्इंच) ही अपना ली गई। अमरीका में ४ फुट श्इंच सर्वप्रचलित है। आस्ट्रेलिया, जापान, टेसमैनिया और नॉर्वे में अलग अलग कई गज हैं, पर श्फुट गेज मुख्य है।

चित्र १०. १ : श्के क्रॉसिंग का नमूना

चित्र ११. काँटा रेल का नमूना

समपार या लेविल क्राँसिंग (Level crossing) - सड़क को रेलपथ के एक ओर से दूसरी ओर ले जाने के लिए या तो पुल बनाए जाते हैं, या समपार। पुल द्वारा सड़क, या तो रेल की लाइन के नीचे से निकाल ली जाती है,

चित्र १२. डायमंड क्रॉसिंग

चित्र १३. सिंगल स्लिप पारपथ

चित्र १४. डबल स्लिप पारपथ

या उसे रेल की लाइन के ऊपर से ले जाते हैं। ऊपर से, या नीचे से ले जाने का निर्णय रेलवे लाइन से सड़क की ऊँचाई, या निचाई, पर निर्भर करता है। सड़क पार करने के लिए पुल बनाने में काफी व्यय होता है तथा अधिकतर सड़क तथा रेल के तल में अधिक अंतर न होने के कारण समपार ही का उपयोग होता है। रेल तथा सड़क के यातायात की मात्रा के अनुसार, समपार कई अलग अलग श्रेणियों में विभाजित किए जाते हैं। जहाँ यातायात अधिक होता है, वहाँ फाटकदार समपार लगाए जाते हैं, जिनपर फाटकवाले नियुक्त होते हैं। इन फाटकवालों का काम गाड़ी आने के समय फाटक बंद करना होता है। फाटकवालों की संख्या भी यातायात की मात्रा के अनुसार निर्धारित होती है। मुख्य समपारों पर संकेतक (सिगनल) भी लगाए जाते हैं और जब तक सड़क का फाटक बंद न हो, सिगनल अनुकूल नहीं किया जा सकता। इस प्रकार दुर्घटनाओं की संभावना कम हो जाती है। पर समपारों की संख्या बहुत अधिक होने के कारण हर समपार पर फाटकवाले की नियुक्ति तथा सिगनल लगाना आर्थिकदृष्टि से अनुचित होगा। इस कारण अधिकतर समपार, जहाँ यातायात बहुत कम होता है, बिना फाटकवाले ही लगाए जाते हैं। ऐसे समपारों को पार करते समय बहुत ही सतर्कता रखनी चाहिए। अधिकतर देखा गया है कि लोग जल्दबाजी में समपार पार करते समय असावधानी से काम लेते हैं, जिसके कारण दुर्घटना की संभावना बहुत बढ़ जाती है और जीवन व्यर्थ ही संकट में पड़ जाता है।

विदेशों में कई समपारों पर फाटकवालो का व्यय कम करने के लिए ऐसी स्वचालित रोकें लगाई गई हैं जो गाड़ी आने से कुछ समय पहले अपने आप सड़क बंद कर देती हैं। भारत में भी लखनऊ रेलवे अन्वेषण केंद्र में इस प्रकार की रोक का अभिकल्प किया गया है और उसपर प्रयोग किए जा रहे हैं।

कहीं कहीं विदेशों में ऐसा प्रबंध भी किया जा रहा है कि गाड़ी आने के कुछ समय पहले से बिना फाटकवाले समपारों पर सड़क यातायात को सावधान किया जा सके। इसमें लगभग १ मील दूरी पर गाड़ी के पहिए के दबाव से बिजली द्वारा संबंधन हो जाता है और समपार पर घंटी बजने लगती है और साथ ही लाल बत्ती भी जलने बुझने लगती है। इस तरह सड़क यातायात को पता चल जाता है कि गाड़ी आनेवाली है और वे सावधान हो जाते हैं। अभी तक ऐसे साधन काफी महँगे पड़ते हैं, परंतु आशा है, समय की प्रगति के साथ ये सस्ते हो जाएँगे। इनका प्रयोग सामान्य हो जाएगा और समपारों पर दुर्घटनाओं से बचाव हो सकेगा।

चित्र १५. कैंची पारपथ

काँटा क्रॉसिंग - गाड़ी के रेलपथ बदलने के लिए काँटे क्राँसिग का उपयोग होता है। एक साधारण काँटा क्रासिंग का, जिसमें एक रेलपथ से दूसरा रेलपथ निकाला गया है, पारपथ कहते हैं (देखें चित्र ९.)। क्रॉसिंग का कोण अनुपात में नापा जाता है। १ : श्क्रॉसिंग का मतलब है, श्फुट लंबाई में एक फुट की दूरी हो जाना (देखें चित्र १०.)। इसी प्रकार १:१२, १/१६ तथा १/२० के भी क्रासिंग होते हैं। अधिक तीव्र गति के लिए घुमावदार काँटा रेल (देखें चित्र ११.) तथा चपटे क्रॉसिंगों का प्रयोग होता है। भिन्न भिन्न अवस्थाओं के लिए भिन्न भिन्न अभिकल्प किए गए हैं। यदि एक रेलपथ दूसरे पथ को केवल पार करता है, तो डायमंड क्रॉसिंग (diamond crossing, देखें चित्र १२.) काम में लाते हैं। यदि दो ओर से दो पथ बीच के एक पथ के एक ही जगह पार करते हैं, तो कैंची क्रॉसिंग, या सिज़र्स क्रॉस-ओवर (scissors cross-over, देखें चित्र १५.) प्रयोग में लाया जाता है। यदि ऐसा प्रबंध करना हो कि गाड़ी पार करनेवाले रेलपथ पर भी जा सके, तो ऐसे प्रबंध को सिंगल स्लिप (single slip, देखें चित्र १३.) या

चित्र १६. रेल के जोड़ की काट (सेक्शन)

डबलस्लिप (double slip, देखें चित्र १४.) कहते हैं। भिन्न प्रकार के क्रॉसिकंग चित्र में दिखाए गए हैं। (प्रमोद चंद शुक्ल)