रेल परिवहन पिछले १००-१५० वर्षों में हमारे राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन में जो क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं, उनमें रेल परिवहन के प्रसार का महत्वपूर्ण योग रहा है। भारत, अमरीका, या रूस जैसे विशाल देशों में रेलां के बनने से पहले एक कोने से दूसरे कोने तक जन, या सामान के यातायात में हफ़्ते, या महीने लग जाते थे। इस पर भी केवल हलकी और मूल्यवान चीजें ही ढोई जा सकती थीं। रेलों के बनने के बाद दूरी की समस्या हल हो गई और अपरिमित माल और असंख्य यात्री आसानी से आ जा सकने लगे। दूरवर्ती लोगों के विचारों तथा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं के बीच घनिष्ठ संबंध स्थापित हो सके। लोहा और कोयला जैसे भारी सामान के आसानी से और सस्ती दरों पर एक जगह से दूसरी जगह रेलों द्वारा ले जाने की सुविधा के फलस्वरूप, इस्पात, जहाज, या मशीन बनाने के भारी उद्योगों का विकास संभव हो सका। रेलों द्वारा कृषि और खानों के विकास में भी आमूल परिवर्तन हुए। अनाज और खनिजों के मूल्य राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय दरों के आधार पर निर्धारित होने लगे। वाणिज्य और व्यपार के क्षेत्र में ऐसी पद्धतियों का चलन हुआ जिन्होंने राज्यों की सीमाओं को लाँघकर सारे विश्व को एक कड़ी में बाँध दिया। आने जाने की सस्ती सुविधा के कारण ही लाखों की आबादीवाले बड़े बड़े शहरों का विकास संभव हो सका। इन शहरों की आवश्यकताओं की पूर्ति और वहाँ पर रहनेवाले लोगों के आने जाने के साधन के रूप में रेलों ने बहुत उपयोगी काम किया है। दुर्भिक्ष के समय अनाज और खनिज पदार्थों को रेलों द्वारा बहुतायतवाले क्षेत्र से कमी के इलाके में ले जाना संभव हो सका है। रेलों के निर्माण में बहुत भारी पूँजी और उच्च कोटि के इंजीनियरी और तकनीकी ज्ञान की जरूरत पड़ती है। घोर निर्जन वनों, अनंत मरुस्थलों, अलंध्य पर्वतों और अपार नदियों को पार करने के लिए रेलवे के इंजीनियरों ने निराली योग्यता और कार्यक्षमता का प्रदर्शन किया। रेलवे स्टेशनों और अन्य कार्यालयों की इमारतों के बनाने से गृह निर्माण कला के विकास को बल मिला। इस तरह रेलों के कारण ही तकनीकी क्षेत्र में भी बहुत श्लापनीय उन्नति हुई। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि रेलों का आविष्कार और विस्तार हमारी आधुनिकता का मूल स्रोत है।
रेल परिवहन की विशेषता यह है कि उसे रेल पटरियों के निश्चित और पृथक् रेलमार्गों की आवश्यकता होती है। उनपर भाप, डीजल, या बिजली से संचालित इंजनों द्वारा सवारी, या मालगाड़ियों के अनेक डिब्बे आसानी से खींचे जा सकते हैं। १९वीं शताब्दी के प्ररंभ में यूरोप के कई देशों में इस तरह के परिवहन के विकास की आवश्यकता महसूस होने लगी थी, किंतु इस क्षेत्र में प्रारंभिक सफलता प्राप्त करने का श्रेय ब्रिटेन को है। वहाँ पर सन् १८२५ में जॉर्ज स्टीफेंसन नामक व्यक्ति ने एक ऐसे भाप इंजन का आविष्कार किया जो १२ मील प्रति घंटे की गति से ३८ डिब्बों को खींच सकता था। सन् १८३० में दुनिया की पहली रेलवे लाइन ब्रिटेन में खोली गई, जो मैनचेस्टर से लिवरपूल तक ३१ मील लंबी थी। राष्ट्रीय विकास और उन्नति का आवश्यक अंग होने के अलावा, रेलों के निर्माण में लगाई गई पूँजी पर बहुत मुनाफा होने की आशा से बहुत सी रेल कंपनियों का सवेग विस्तार होने लगा। ब्रिटेन, यूरोप और संयुक्त राष्ट्र, अमरीका, जैसे विकसित देशों में रेलवे की लाइनें बिछाने के लिए स्पर्धा उठ खड़ी हुई, जो आगे चलकर पिछड़े देशों में रेल बिछाने की स्पर्धा के रूप में परिवर्तित हो गई। संसार भर में अब करीब ७,६५,००० मील लंबी रेल लाइनें हैं। इनमें से ९२,८८४ मील लंबी लाइनें एशिया में, २,५८,८९८ मील यूरोप में, २,७३,१३९ मेक्सिको का छोड़कर उत्तरी अमरीका में, ६५,०२६ मील दक्षिण अमरीका और मेक्सिको में, ४२,९९२ मील अफ्रीका में और २८,७६० मील ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में हैं।
एशिया में पहली रेलवे लाइन भारत में बनी। यहाँ पर १८५३ ई. में बंबई से थाना के बीच २१ मील लंबी रेलवे लाइन बिछाई गई। भारत के विभिन्न भागों में रेल बिछाने के लिए इंग्लैंड में कई रेल कंपनियाँ स्थापित की गई। उनकी पूँजी लंदन के शेयर बाजार में जमा की गई, जिसपर भारत सरकार की ओर से एक निश्चित दर से मुनाफा देने की गारंटी भी दी गई थी। इसका परिणाम यह हुआ कि रेल बनाने के काम में फिजूलखर्ची बढ़ती गई और भारत को एक बहुत बड़ी राशि निश्चित ब्याज के रूप में प्रति वर्ष ब्रिटेन भेज देनी पड़ती थी। आगे चलकर इस नीति में समय समय पर परिवर्तन किए गए। सन् १८६० के बाद पहले तो सरकार ने सहूलियतें और आर्थिक मदद देकर कंपनियों को अपने जोखिम पर लाइनें बिछाने के लिए तैयार करना चाहा, पर इसमें सफलता न मिली। फिर सन् १८६९ से १८८० तक सरकार ने स्वयं रेल बिछाने का काम शुरू किया। पर पूँजी की कमी के कारण लाइनों का अधिक विस्तार न हो सका। अत: ब्रिटिश रेल कंपनियों की प्रारंभिक शर्तों पर ही लाइन बनाने की फिर से अनुमति दे दी गई।
भारतीय जन आंदोलन की माँगों के कारण १९२१ ई में रेलों के राष्ट्रीयकरण की नीति अपनाई गई। सन् १९२५ में इस्ट इंडियन रेलवे और जी.आई.पी. रेलवे कंपनियों को सरकार ने अपने हाथ में ले लिया। धीरे धीरे इस नीति पर चलने से भारतीय स्वतंत्रता मिलने तक करीब सभी रेलवे कंपनियों का राष्ट्रीयकरण हो चुका था। स्वतंत्रता के बाद भारत की देशी रियासतों के विलय के फलस्वरूप उन रियासतों की रेलवे लाइनें भी भारतीय रेलों का भाग बन गई। इनके सुचारु संचालन के लिए १९५२ ई. में रेलों का फिर से वर्गीकरण किया गया, जिसे अनुसार देश की सब रेलवे लाइनों की छह प्रबंध क्षेत्रों में बाँटा गया। इन क्षेत्रों की संख्या अब आठ हो गई है। शीघ्र ही रेल क्षेत्रों का पुनर्गठन होनेवाला है।
रेल प्रशासन
भारत की सरकारी रेलों के प्रशासन का उत्तरदायित्व रेलवे बोर्ड पर है, जा केंद्रीय मंत्रिमंडल के रेल मंत्री के अधीन काम करता है। अध्यक्ष के अलावा रेलवे बोर्ड में चार और सदस्य हैं। इनके नीचे विभिन्न विभागों से संबंधित निदेशालय हैं, जो सरकारी निर्धारित नीति को अमल में लाते हैं। प्रत्येक रेलक्षेत्र का प्रमुख अधिकारी जनरल मैनेजर होता है। उसकी सहायता के लिए विभागीय प्रमुख होते हैं। एक रेल क्षेत्र कई मंडलों, या जिलों में बँटा होता है। मंडलों के अधिकारी मंडल अधीक्षक होते हैं। इंजन, या गाड़ी बनाने के कारखानों की प्रशासनिक व्यवस्था क्षेत्रीय प्रशासन की रूपरेखा से भिन्न है। रेलवे बोर्ड देश के सबसे बड़े राष्ट्रीयकृत उद्यम का संचालन रता है और संसर के रेल प्रशासनों में रूस के बाद वह सबसे बड़े संस्थान का स्वामी है।
६६२ किलोमीटर लंबी छोटी लाइनों को छोड़कर, जिनका स्वामित्व और संचालन गैरसरकारी संस्थाओं के हाथ में है, बाकी रेलमार्गो पर केंद्रीय सरकार का स्वामित्व है और उसी पर उनके संचालन का दायित्व भी है। भारतीय रेलों में तीन प्रकार की लाइनें हैं। बड़ी लाइन, जिसमें पटरियों की चौड़ाई १.६७६ मीटर होती है, २७,४५९ किलोमीटर मार्ग पर बिछी है। यह देश के प्रमुख नगरों को एक शृंखला में बाँधती है और उसपर रेलों में लादे जानेवाले ८० प्रतिशत से अधिक माल की ढुलाई होती है। मीटर लाइन, जिसी पटरियों की चौड़ाई १ मीटर होती है, २५,१४३ किलोमीटर मार्ग पर बिछी है। यह लाइन अधिकतर सौराष्ट्र, राजस्थान, पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तरी बिहार और बंगाल, असम, मैसूर और भारत के दक्षिणी भाग में फैली है। शेष ४,३२१ किलोमीटर लंबी छोटी लाइनें हैं, जिनकी चौड़ाई ०.७६२, या ०.६१० मीटर है। ये पहाड़ी इलाकों, या देश के कम समुन्नत क्षेत्रों में बिछी हैं। १९६४ ई. में रेलों के पास लगभग १२,००० इंजन ३१,००० सवारी गाड़ियाँ और ३,४४,००० माल के डिब्बे थे। सरकारी रेलों पर ३,००० करोड़ रुपए की पूँजी लगी थी और इनसे प्रति वर्ष ६३० करोड़ रुपए की आमदनी होती थी। इस समय १२.७ लाख से अधिक लाग रेलों में काम करते हैं। देश में ८०० से अधिक रेलवे स्टेशन हैं, प्रति दिन १०,००० गाड़ियाँ चलती हैं, जिनमें प्रति दिन ५० लाख यात्री और ५ लाख टन माल ले जाया जाता है। इस तरह आज भारतीय रेलों का विस्तार में संसार में चौथा (अमरीका, कैनाडा और रूस के बाद) और एशिया में पहला स्थान है।
देश के आर्थिक और औद्योगिक विकास में भारतीय रेलों ने पूर्ण योगदान दिया है। स्वतंत्रता के बाद उनकी लंबाई, क्षमता और परिचालन कुशलता में महत्वपूर्ण उन्नति हुई है। अपनी जरूरतों के लिए विदेशों से मँगाए जानेवाले करोड़ों रुपए के सज सामान का निर्माण देश में ही प्रारंभ कर दिया गया है। भाप के इंजन के निर्माण के लिए चित्तरंजन में सन् १९५० में एक कारखाना बनाया गया, जिसमें अब तक १,८०० भाप इंजन बन चुके हैं। वहाँ पर अब बिजली के इंजन भी बनने लगे हैं और शीघ्र ही प्रति मास ६ इंजन बनने लगेंगे। सवारी गाड़ियों के डिब्बों के बनाने के लिए मद्रास के पास, पैरंबूर में, एक फैक्टरी की स्थापना १९५६ ई. में की गई थी। इसमें अभी तक ३,५०० से अधिक डिब्बे बनाए जा चुके हैं। वाराणसी में डीज़ल इंजन बनाने के कारखाने की स्थापना हुई है। इसकी १५० इंजन प्रति वर्ष बनाने की क्षमता है। मालगाड़ी के डिब्बों के बनाने के लिए भी देश के विभिन्न भागों में अनेक फैक्टरियों का विकास किया गया है। इसके अलावा जमशेदपुर में टाटा कंपनी द्वारा मीटर लाइनों के लिए इंजन बनाए जाते हैं। सन् १९६३-६४ में भारती रेलों ने २६८.६९ करोड़ रुपए के सामान की खरीद की, जिसमें ८८ प्रतिशत स्वदेशी सामान था। सन् १९५८ में स्वदेशी माल केवल ६३ करोड़ का था। इस तरह रेलां ने देशी उद्योगों के विकास में पूरा हाथ बँटाया है।
वैज्ञानिक प्रगति के कारण संसार के सभी प्रगतिशील देशों में रेल परिवहन के लिए भाप इंजन की जगह डीज़ल और बिजली से चलनेवाले इंजनों का उत्तरोत्तर उपयोग किया जाने लगा है। इन नए इंजनों के उपयोग से रेल की क्षमता और उपयोगिता को बहुत बढ़ाया जा सकता है। इससे खर्च में भी बचत होती है। तीसरी योजना के अंत तक २,८६४ किलोमीटर मार्ग पर बिजली गाड़ियाँ चलाने का कार्यक्रम बनाया गया था। डीज़ल इंजनों का भी उपयोग उत्तरोत्तर बढ़ने लगा है और सन् १९६४ के अंत तक एक तिहाई से अधिक मालगाड़ियों का चलन बिजली या डीज़ल के इंजनों द्वारा होने लगा है। सिगनल पद्धति में भी नए नए प्रयोग काम में लाए जा रहे हैं, जिनसे रेलों की संरक्षा और कुशलता में वृद्धि हे सके। वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र में नए नए अनुसंधान और प्रयोग करके उनको रेलों के उपयोग में लाने के लिए भारतीय रेलों ने कई अनुसंधानशालाएँ खोली हैं। अपने विस्तार, कार्यक्षमता और लाभ कमाने की दृष्टि से भारतीय रेलों ने संसार में बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त किया है। ये हमारी राष्ट्रीय प्रगति की प्रतीक हैं और इनसे देश के गौरव की वृद्धि होती है।
परिवहन के क्षेत्र में दूसरे साधनों का विकास सभी जगह बड़ी तेजी से हो रहा है। मोटर यातायात, नावों और वायुयानों ने संसार भर में अद्भुत उन्नति की है। बहुत से देशों में उन्होंने रेलों को काफी नुकसान पहुँचाया है और उनके विकास को रोक दिया है। भारत में भी सड़कों के प्रसार, मोटर गाड़ियों की बढ़ती और वायुसेवा के विस्तार के कारण यातायात के क्षेत्र में रेलों को प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। ऊँचे दर्जों में सफर करनेवाले यात्री और मूल्यवान् सामान रेलों से हटकर दूसरे साधनों द्वारा जाने लगे हैं। फिर भी ऐसा अनुमान है कि भारत में बहुत समय तक रेलों की बढ़ती होती रहेगी। देश में अभी ऐसे अनेक क्षेत्र हैं जहाँ से रेलें सैकड़ों मील दूर हैं। उन क्षेत्रों में रेलों का विस्तार होगा। कच्चे और भारी माल, जैसे कोयला, लोहा, इस्पात, चूना आदि के लिए रेल ही सबसे सस्ता और समुचित परिवहन है। बड़े बड़े शहरों में लाखों स्त्री पुरुषों के रोज आने जाने की समस्या को भी रेलों के द्वारा हल किया जा सकता है। रेलों की क्षमता, कुशलता और रफ्तार बढ़ाने के लिए प्रगतिशील देशों में किए गए सफल प्रयोगों को हमारी रेलों पर भी लागू करने का श्रीगणेश हो चुका है। इससे भविष्य में भी देश की परिवहन व्यवस्था में भारतीय रेलों के प्रमुख स्थान के बने रहने की आशा है। (प्रमोद चंद शुक्ल)