रेण (संत) उदासी साधु बाबा साहबदास के शिष्य थे, जन्म सन् १७४१ में। ये जाति के गौड़ ब्राह्मण तथा अपने माता-पिता की एकमात्र संतान थे। इनके पिता का नाम श्री हरिवल्लभ तथा माता का श्रीमति सावित्री देवी था। बचपन में ही इन्होंने अच्छी शिक्षा प्राप्त कर ली थी। ये पंजाबी, संस्कृत और हिंदी के अच्छे विद्वान् थे। इन्होंने दीर्घ काल तक भूदन ग्राम (पंजाबी की भूतपूर्व रियासत मालेरकोटला स्थित) में निवास किया। आज भी भूदन में उत्तर की ओर ढाब के किनारे इनका आश्रम है। यहीं पर इन्होंने पाँच ग्रंथों का प्रणयन किया, जिनमें से 'नानकबोध' अप्राप्य है। शेष चार ये हैं - १. 'मनप्रबौध' शांतरसप्रधान, १६६ छंदों की रचना है। इसमें सिद्धांत-संप्रदाय-निरपेक्ष आत्मोपदेश का प्राधान्य है; सायास अलंकरण का आग्रह नहीं है, चिर परिचित उपमाओं का व्यवहार हुआ है। भाषा की कसावट के अभाव में छंदयोजना शिथिल है। २. 'नानकविजय'में शांत और अद्भुत रस की विशेष अभिव्यक्ति हुई है। यत्र तत्र करुण, बीभत्स और रौद्र के भी दर्शन होते हैं। विषयवस्तु की विविधता के साथ ही छंदवैभिन्न्य भी मिलता है। इसमें गुरु नानकदेव को पुराण पुरुष के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ३. 'वचन संग्रह अथवा अनभै अमृतसागर में चौदह अध्यायों के अंतर्गत वेदांत मत का प्रतिपादन हुआ है। तथा ४. 'उदासी बोध' में उदासी संप्रदायों के सिद्धांतों और भेष का इतिहास उल्लिखित है। अंतिम दोनों रचनाएँ पद्यबद्ध हैं किंतु काव्यगुणों से वंचित हैं। सभी ग्रंथों में खड़ी बोली मिश्रित ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है। पंजाबी शब्द भी प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त हुए हैं। मूलत: अद्वैतवादी होने पर भी रेण जी की रचनाओं में वेदांत और भक्ति का संयोग हुआ है। वे सांप्रदायिक संकीर्णताओं से ऊपर दिखाई पड़ते हैं।
सं. ग्रं. - श्री संत रेण ग्रंथावली; संत रेणाश्रम, भूदन, मलेरकोटला १९५३ ई.। (नवरत्न कपूर)