रेडियो संग्राही (Radio Receiver) रेडियो तरंगों के उत्पादन एवं उनके गुणों के अध्ययन का प्रयास सर्वप्रथम हाइनरिख हेर्ट्ज़ ने सन् १८८७ में किया था। अपने इतिहास प्रसिद्ध प्रयोग में रेडियो तरंगों के उत्पादन की व्यवस्था द्वारा उत्पन्न तरंगों को उन्होंने स्वयं ही स्फुलिंगों के रूप में दो घुंडियों (knobs) के बीच प्राप्त किया था जो तार के एक फंदे के दोनों सिरों पर स्थित थीं। हर्ट्स के इस प्रारंभिक प्रयोग ने रेडियो तरंगों की ग्रहण विधाओं की संभावना के संकेत दिए थे, जिनके आधार पर कार्य करते हुए ऑलिवर लॉज ने सन् १८९४ में इंग्लैंड में एक विशेष प्रकार के संसूचक (detector) का निर्माण किया, जो रेडियो तरंगों को श्रव्य आवृत्ति की तरंगों में परिवर्तित कर सकता था। यह संसूचक वस्तुत: काँच की एक नलिका थी, जिसमें धातु-रेतन भरा हुआ था। इस संसूचक को एक ऐंटेना तथा एक समस्वरित परिपथ (tuned circuit) से संयुत कर प्रथम रेडियो संग्राही का निर्माण किया गया था। इस प्रकार बेतार संचार प्रणाली के संग्राही घटक की परिकल्पना करने और उसका प्रथम उपयोगी रूप प्रस्तुत करने का श्रेय ऑलिवर लॉज को ही है। लॉज ने अपनी इस विशेष व्यवस्था द्वारा प्रथम रेडियो संग्राही का निर्माण सफलतापूर्वक कर उसे पेटेंट कराया। लॉज की सफलता से प्रोत्साहित होकर अनेक वैज्ञानिकों ने नए नए संसूचकों का निर्माण किया। इनमें गूल्येल्मो मार्कोनी ने चुंबकीय प्रकार के संसूचकों की, व्रीलैंड तथा फेस्नडेन ने विद्युत् विश्लेष्य प्रकार के तथा ली डी फारेस्ट (Lee De Forest) ने सक्रिय विद्युद्विश्लेष्य प्रकार के संसूचकों की रचना की। इसी चेष्टाक्रम में अनेक क्रिस्टल संसूचक (crystal detectors) भी बने, जिनमें कार्बोरंडम, गैलेना, लौह पाइराइटों (iron pyrites) इत्यादि के क्रिस्टल प्रयुक्त हुए।
सन् १९०४ में जे. ए. फ्लेमिंग ने द्वध्रुिवी वाल्बों का निर्माण कर, रेडियो संचार प्रणाली के विकास के इतिहास में नए अध्याय का सूत्रपात किया। संसूचक के रूप में इन वाल्वों के उपयोग ने अनेक कठिनाइयों एवं समस्याओं का निराकरण कर दिया। इसी के लगभग एक वर्ष के ही अनंतर ली डी फॉरेस्ट ने ट्रायोड वाल्व (triode valve) का प्रणयन कर, इलेक्ट्रॉनिक तथा रेडियो संचार प्रणाली के क्षेत्र में क्रांति का आविर्भाव कर दिया। ये वाल्व तथा इनके अनेक संशोधित रूपों यथा टेट्रोड (tetrode) एवं पेंटोड (pentode) आदि वाल्वों को ही रेडियो संचार प्रणाली को आधुनिक रूप तक पहुँचाने का श्रेय दिया जा सकता है। प्रवर्धकों, संसूचकों एवं समस्वरित परिपथों की संरचना करनेवाले कंपित्रों (oscillators) की रचना इन्हीं वाल्वों की सहायता से की जाती है।
रेडियो संग्राही (Radio Receiver) - रेडियो संचार प्रणाली का वह अंग जो एरियल (ऐंटेना) तक निरंतर पहुँचानेवाली रेडियो आवृत्ति ऊर्जा (radio frequency energy) से वांछित अंश (संकेत या सूचना) पृथक् कर ग्रहण करता है, रेडियो संग्राही कहलाता है। सभी प्रकार के रेडियो संग्राहियों को मूलत: निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं : (१) वरण (selection), (२) प्रवर्धन (amplification), (३) संसूचन (detection) अर्थात् रेडियो आवृत्ति (r. f.) का ध्वनि आवृत्ति, या श्रव्यावृत्ति (audio frequency, या a. f.) में परिवर्तित करना, (४) श्रव्यावृत्ति प्रवर्धन (audio amplification) और (५) ध्वनि पुनरुत्पादन (sound reproduction)।
१. वरण (Selection) - ऐंटेना पर निरंतर अनेक प्रकार के रेडियो संकेत पहुँचते रहते हैं, जो संसार के विभिन्न भागों में स्थित प्रेषण केंद्रों से प्रेषित होते हैं। संग्राही में इस बात की उपयुक्त व्यवस्था होनी चाहिए कि वह किसी भी क्षण किसी वांछित संकेत विशेष का वरण कर, उसे अन्य संकेतों से पृथक् कर, ग्रहण कर सके। इस प्रयोजन की सिद्धि के हेतु संग्राही की वरण व्यवस्था (selectior system) में अनेक प्रेरकत्वों (inductances) और संधारित्रों (condensers) का समावेश होता है। इनमें से एकाधिक परिवर्तनीय, या चर (variable) भी होते हैं। इन्हीं प्रेरकत्वों एवं संधारित्रों के संयोग से समस्वरित परिपथ की रचना होती है। इस परिपथ में प्रेरकत्वों एवं संधारित्रों के मान इस प्रकार समंजित किए जाते हैं कि परिपथ की आवृत्ति ग्राह्य संकेत की आवृत्ति के तुल्य हो जाए। उस दशा में परिपथ को उक्त संकेत के लिए समस्वरित कहते हैं। एतदर्थ प्रेरकत्वों एवं संधारित्रों के मान निम्नलिखित सूत्र के अनुसार नियत किए जाते हैं :
आ
= १/२p
(f = 1/2p )
जहाँ प्र (L) प्रेरक का प्रेरकत्व (inductance), ध (C) संधारित्र की धारिता (capacity) तथा आ (f) ग्राह्य संकेत (तथा समस्वरित परिपथ की भी) आवृत्ति है। इस प्रकार समस्वरित परिपथ केवल उसी आवृत्ति के संकेतों का वरण कर ग्रहण करता है जो उसकी आवृत्ति के तुल्य हैं शेष को छाँटकर विलग कर देता है। अच्छे संग्राही संयंत्रों में ऐसे कई परिपथ श्रेणी क्रम में संयोजित किए हुए होते हैं जिनसे संग्राही की वरणशीलता, या वरणशक्ति पर्याप्त रूप से संवर्धित हो जाती है।
२. रेडियो आवृत्ति का प्रवर्धन (Amplification of Radio Frequency) - ऐंटेना से प्राप्त रेडियो संकेत अत्यंत क्षीण होते हैं। इस कारण वे लाउडस्पीकर को क्रियान्वित कर सकने में असमर्थ रहते हैं। अत: उनकी शक्ति को पर्याप्त प्रवर्धित कर सकने की क्षमता संग्राही में होनी चाहिए। एतदर्थ उसमें प्रवर्धन व्यवस्था संयुक्त होती है।
३. संसूचन (Detection) - प्रेषक केंद्रों से संग्राही के ऐंटेना तक आनेवाली संकेतवाहिनी तरंगें (carrier waves) अत्यंत उच्च आवृत्ति (रेडियो आवृत्ति) की होती हैं। इसलिए संग्राही में प्रविष्ट होने के पश्चात् इन्हें श्रव्यावृत्तियों में परिणत करना आवश्यक होता है। इन श्रव्यावृत्तियों को पृथक् कर ध्वनिविस्तारक में प्रविष्ट करने के पश्चात् ही संकेत को सुन सकना संभव होता है रेडियो तरंगों को ध्वनि तरंगों में परिणत करने के हेतु प्रयुक्त तंत्र-व्यवस्था को संसूचक युक्ति (detector device) कहते हैं
४. श्रवयावृत्ति प्रवर्धन (Audio-amplification) - संसूचक से निसृत श्रव्यावृत्ति संकेतों की शक्ति अत्यंत क्षीण होती है, जिससे वह लाउडस्पीकर को क्रियान्वित कर सकने में अक्षम रहती है। अत: लाउडस्पीकर में प्रविष्ट होने के पूर्व इसको पर्याप्त मात्रा में प्रवर्धित करना आवश्यक होता है। इस हेतु प्रयुक्त व्यवस्था को श्रव्यावृत्ति प्रवर्धक कहते हैं।
५. पुनरुत्पादक व्यवस्था (Reproducer System) - श्रव्यावृत्ति संकेतों को विद्युत् से ध्वनि में रूपांतरित करने के लिए लाउडस्पीकर या शिराफोन (headphone) भी संग्राही सेट का एक मुख्य भाग होता है।
संग्राही के प्रकार
समस्वरित रेडियो आवृत्ति संग्राही (Tuned Radio-Frequency, या T. R. F., Receiver) या सरल संग्राही (Straight Receiver) - यह संग्राही किसी विशेष रेडियो आवृत्तियों के लिए समस्वरित रहता है। इसके अंदर संविष्ट सभी परिपथ वांछित रेडियो आवृति के लिए या तो मूलत: समस्वरित रहते हैं, या उनके साथ ऐसी व्यवस्था संबद्ध रहती है कि आवृत्ति विशेष के लिए सबको एक साथ समस्वरित कर दिया जाए। पुराने
चित्र १. टी. आर. एफ (TRF) रेडियो संग्राही का संयोजन चित्र
ढंग के ऐसे संग्राही में ऐसे प्रत्येक परिपथ के साथ एक पृथक् समस्वरक (tuning) संधारित्र होता था, किंतु आधुनिक सेटों में एक ही परिवर्तनीय, या चर (variable) संधारित्र से सभी परिपथों का इस प्रकार संयुक्त कर दिया जाता है कि संधारित्र को घुमाने पर उसके भिन्न भिन्न धारितांश मानो से भिन्न भिन्न परिपथ जुड़ जाते हैं।
ऐसे एक संग्राही का संयोजन चित्र १. और चित्र २. में प्रदर्शित है। इसमें ऐंटेना से प्राप्त होनेवाले संकेत प्रथम रेडियो आवृत्ति परिणामित्र (radio frequency transformer, या r. f. transformer) से होकर वाल्व-१ (चित्र २.) द्वारा प्रवर्धित होते हैं। यह प्रवर्धित संकेत एक अन्य रे. आ. परिणमित्र (r. f. transformer) से अन्योन्य प्रेरण की विधि से गुजरता है। इस परिपथ की धारिता, ध२, (C2) तथा परिणामित्र का प्रेरकत्व, प्र४ (L4), उसी आवृत्ति के दोलन उत्पन्न करते हैं जैसे प्र२ ध१ (L2 C1) द्वारा उत्पन्न होकर इधर भेजे जाते हैं। संधारित्र ध२ (C2) के सिरों पर उत्पन्न विभव संसूचक वाल्व (detector valve), व-२ के नियंत्रक ग्रिड (controlling grid) पर आरोपित होता है, जो रेडियोआवृत्ति को श्रव्यावृत्ति (अ. आ., a. f.) में परिणत करता है। इस प्रकार निसृत श्रव्यावृत्तियों का प्रवर्धन आगे व-३ तथा व-४ वाल्वों द्वारा होता है। ये प्रवर्धित संकेत अंतत: ध्वनिविस्तारक को
चित्र. २ टी. आर. एफ. (T. R. F.) रेडियो संग्राही का परिपथ
प्र१-प्र२ प्रथम रेडियो आवृत्ति परिणामित्र; प्र३-प्र४ द्वितीय रेडियो आवृत्ति परिणामित्र; व-१ रेडियो आवृत्ति प्रवर्धक; व-२ संसूचक; व-३ तथा व-४ श्रव्यावृत्ति प्रवर्धक; बै. बैटरी तथा ध१ और ध२ धारिताएँ।
क्रियान्वित करते हैं, जहाँ विद्युत् संकेतों का ध्वनि संकेतों में रूपातरंण होता है।
सुपरहेटरोडाइन संग्राही (Superheterodyne Receiver) - प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान मेजर एडविन आर्मस्ट्रांग नामक वैज्ञानिक ने सरल संग्राही में अपेक्षित सुधार कर ऐसी संग्राही व्यवस्था को जन्म दिया जिसमें किसी भी आवृत्ति के संकेत को किसी समय सुगमता से ग्रहण किया जा सकता है। यह व्यवस्था वस्तुत: आधुनिक लोकप्रिय रेडियो संग्राही सेटों की जनक है। इनका नियो-
�
चित्र ३. सुपरहेटरोडाइन संग्राही (स्थूल आरेख)
जन चित्र ३. में समझाया गया है। ऐंटेना से आनेवाले रेडियो आवृत्ति के संकेतों को सर्वप्रथम एक मिश्रण-पद (mixer stage) से होकर गुजारा जाता है, जहाँ उसी क्षण उपयुक्त आवृत्ति का एक अन्य रेडियो संकेत भी प्रविष्ट कराया जाता है। यह दूसरा संकेत एक अन्य स्थानीय कंपित्र (local oscillator) में उत्पन्न किया जाता है। मिश्रण पद में दोनों संकेतों के संयोजन से विस्पंद-सिद्धांत (beat theory) द्वारा एक निम्न आवृत्ति का संकेत उत्पन्न होता है, जो दोनों आवृत्तियों का अंतर होता है। मिश्रण-पद के आगे का संपूर्ण परिपथ इसी आवृत्ति के लिए समस्वरित होता है। यह आवृत्ति माध्य आवृत्ति (intermediate frequency, या i. f.) कहलाती है। इस क्षीण आवृत्ति को एक रेडियो-आवृत्ति प्रवर्धक (r. f. amplifier) द्वारा प्रदर्शित कर, तथा विमाडुलक (demodulator) द्वारा संशोधित कर, संसूचक वाल्व द्वारा श्रव्यावृत्ति में परिणत किया जाता है। आगे इस श्रव्य आवृत्ति का प्रवर्धित कर ध्वनि विस्तारक में प्रेषित कर दिया जाता है।
सुपरहेटरोडाइन संग्राही की विशेषताएँ - सुपरहेटरोडाइन संग्राही निम्नलिखि विशेषताओं के कारण उपयोगी होता है :
१.����� इसमें रेडियो आवृत्ति प्रवर्धन, वह भी विशेषकर निम्न आवृत्तियों के लिए, अधिक उत्तम एवं विघ्नरहित उत्पन्न होता है।
२.����� वांछित आवृत्ति का चयन कर सकने की क्षमता इसमें पर्याप्त होती है, क्योंकि समस्वरित परिपथ को उस आवृत्तिविशेष के लिए समस्वरित किया जा सकता है।
३.����� इसमें अनेक सचर संधारित्रों के बदले एक अस्थिर रेडियो आवृत्ति प्रवर्धक में कई प्रवर्धक पदों को सम्मिलित कर अभीष्ट उच्च आवर्धन प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए ये संग्राही अपेक्षाकृत सस्ते भी होते हैं। साथ ही इनके भार में भी अनावश्यक वृद्धि नहीं होने पाती।
स्वचालित वाहनों में प्रयुक्त होनेवाले रेडियो संग्राही - स्वचालित वाहन, जैसे मोटर कार, या वायुयान इत्यादि, में प्रयुक्त रेडियो संग्राही के सेटों की रचना साधारण गृहोपयोगी सेटों से थोड़ा सा भिन्न होती है। इनमें शक्ति एवं ऊष्मा के लिए अपेक्षित वोल्टता वाहन के चालक बैटरी (starter battery) द्वारा ली जाती है और उसे अभीष्ट आवृत्ति तक संवर्धित करने के लिए एक कंपित्र (vibrator), या घूर्णी परिवर्तक (rotary converter) में प्रविष्ट किया जाता है। इस प्रकार के सेट का एरियल एक पतली धातु नलिका होती है, जो कार के एक पार्श्व पर, वायुयान के डैने पर सीधी खड़ी लगाई जाती है। इस प्रकार के सेट के नवीनतम मॉडल के समस्वरक तथा वॉल्यूम नियंत्रक (volume control) स्टीयर दंड (steering column) के साथ ही जड़े होते हैं, जिससे संग्राही का संचालन सुविधाजनक ढंग से किया जा सके।
ट्रांजिस्टर संग्राही (Transistor Receiver) - रेडियो संग्राही को अधिक उपयोगी, सस्ता तथा सुवाह्य बनाने के हेतु वाल्वों के स्थान पर ट्रांजिस्टर क्रिस्टल (transistor crystal) का उपयोग किया जाने लगा है। यह सेट केवल साढ़े चार से छह वोल्ट की बैटरी द्वारा चालित होता है तथा इसकी दक्षता, अर्थात् इसे दिए गए तथा इससे
ए. फेराइट एरियल; दोप दोलनी परिपथ; म. पु. मध्यावृत्ति पुन: निविष्ट; प. संसूचक; प्र१, प्र२, प्र३ और प्र४. प्रवर्धक; श्र. पु., श्रव्यावृत्ति पुन: निविष्ट तथा ल. लाउडस्पीकर।
उपलब्ध शक्ति का अनुपात, सामान्य वाल्व संग्राही की अपेक्षा छह से दस गुना तक अधिक होता है। इससे इसका रख रखव व्यय वाल्व ट्रांजिस्टर से ४ या ५ गुना कम होता है। इसके अतिरिक्त ये अत्यंत लघुकाय, सुवाह्य एवं सस्ते होते हैं। सुग्राही तो ये इतने अधिक होते हैं कि एक सामान्य फेराइट छड़ एरियल की सहायता से ही इन्हें क्रियान्वित किया जा सकता है। ऐसे एक सप्त संधि (seven junctions) ट्रांज़िस्टर का प्रारूप चित्र ४. की सहायता से सुगमता से समझा जा सकता है। (सुरेशचंद्र गौड़)