रेडियोऐक्टिवता (कृत्रिम) बहुत वर्षों तक केवल वे ही रेडियोऐक्टिव तत्व ज्ञात थे जो प्रकृति में पाए जाते हैं। पर सन् १९३४ में क्यूरी तथा जोलियो ने खोज निकाला कि कुछ हलके नाभिकवाली धातुओं के वर्कों में पॉज़िट्रॉन-सक्रियता उत्पन्न की जा सकती है, यदि इन बर्कों को पोलोनिय जनित ऐल्फ़ा विकिरण की बौछार में रखा जाए। कोई भी पॉज़िट्रॉन सक्रिय तत्व प्रकृति में नहीं पाया जाता। १९३४ ई. से लेकर अब तक जो समय बीता है, उसमें १,००० स भी अधिक रेडियोऐक्टिव तत्व कृत्रिम रूप से उच्च ऊर्जा त्वरित्रों (high energy accelerators) तथा न्यूक्लीय रिऐक्टरों की सहायता से उत्पन्न किए जा चुके हैं।

कृत्रिम रेडियोऐक्टिवता प्राय: सभी बातों में प्राकृतिक रेडियोऐक्टिवता के समान है तथा वह विघटन के समान नियमों और श्रेणी समीकरणों का पालन भी करती है, पर दो बातें ऐसी हैं जिनमें कृत्रिम रेडियोऐक्टिवता प्राकृतिक रेडियोऐक्टिवता से कुछ भिन्न है : (१) कृत्रिम रेडियोऐक्टिवता तत्वों में पॉज़िट्रॉन सक्रियता विद्यमान रहती है और (२) उन तत्वों के, जो इलेक्ट्रॉन-परिग्रहण की सक्रियता प्रर्शित करते हैं, विघटन की दर में कुछ कुछ रासायनिक अथवा भौतिक अवस्था की प्रभावधीनता भी विद्यमान होती है।

पॉज़िट्रॉन की खोज १९३२ ई. में हुई थी। क्यूरी तथा जोलियो कुछ हलके तत्वों, जैसे बोरॉन तथा ऐलुमिनियम, को पोलोनियम जनित ऐल्फ़ा कणों की बौछार में रखने से उत्पन्न पॉज़िट्रॉन का अध्ययन कर रहे थे। उस समय उन्होंने देखा कि ऐल्फ़ा कणों की बौछार हटा लेने पर भी उन तत्वों से पॉज़िट्रॉन निकलते रहते थे तथा वह निष्कासन समय के साथ घटता घटता अंत में शून्य हो जाता था। उन्होंने इसका यह अर्थ निकाला कि ऐल्फ़ा कणों की बौछार से किसी नए तत्व का सृजन हो गया था। इस नए तत्व में पॉज़िट्रॉन सक्रियता उत्पन्न हो गई थी तथा वह सक्रियता प्राकृतिक रेडियोऐक्टिवता के ही समान थी। अंतर था तो केवल इतना ही कि प्राकृतिक रेडियोऐक्टिव पदार्थ ऋणात्मक बीटा कण तथा ऐल्फ़ा कण मुक्त करते थे, जब कि ये नए पदार्थ पॉज़िट्रॉन निकालते थे। क्यूरी तथा जोलियो द्वारा ज्ञात किया गया कि बोरॉन तथा ऐलुमिनियम की अर्ध आयु क्रमश: १४ मिनट तथा ३.२५ मिनट थी, जबकि बोरॉन के लिए अब ज्ञात आयु १०.१ मिनट है। इन दोनों ने बोरॉन के लिए ऐल्फ़ा कणों के द्वारा निम्न क्रिया के घटत होने का सुझाव दिया :

5B10 + 2He4 N13 + on1

��������������������� 7N 13 6C13 + e+ ( T = 10.1 मिनट) ,

अर्थात् इनके अनुसार नाइट्रोजन पॉज़िट्रॉन निकालकर स्थायी तत्व कार्बन१३ में परिणत हो जाता है।

इन रेडियोऐक्टिव तत्वों को उन दोनों ने रासायनिक अभिक्रिया के द्वारा अन्य तत्वों से अलग किया था।

रेडियोऐक्टिव क्षय (विघटन) के प्रकार - इस खोज के तुरंत बाद विश्व भर के वैज्ञानिकों ने विभिन्न तत्वों को प्राकृतिक रेडियोऐक्टिव तत्वों तथा त्वरित्रों से प्राप्त विभिन्न प्रकार की गोलियों से आघात कराकर, नए नए रेडियोऐक्टिव आइसोटोपो का उत्पादन आरंभ कर दिया। अब तो प्राय: सभी तत्वों के रेडियोऐक्टिव आइसोटोप हैं। इनमें से अधिकतर बीटा उत्पादक हैं, पर ऐल्फ़ा उत्पादन केवल भारी तत्वों द्वारा ही होता है। बीटा तथा पॉज़िट्रॉन दोनों की गतिज ऊर्जा का ग्राफ एक ही प्रकार का है तथा अधिकतम, अथवा सीमांत, ऊर्जा नाभिकीय अभिक्रिया के 'क्यू'-के मान, अथवा विघटन ऊर्जा के बराबर होती है। दोनों का सिद्धांत भी समान है। दोनों के साथ ही न्यूट्रिनो निकलते हैं, पर नाभिक के अंदर क्रिया इस प्रकार बताई जाती है :

बीटा-निष्कासन हेतु : न्यूट्रॉन प्रोटॉन + बीटा + न्यूट्रिनो

पॉजिट्रॉन निष्कासन हेतु : प्रोटॉन (न्यूक्लियस में) न्यूट्रॉन

(न्यूक्लियस में) + पॉज़िट्रॉन + न्यूट्रिनो।

चूँकि प्रोटॉन न्यूट्रॉन की अपेक्षा हलका होता है, इस कारण प्रोटॉन से न्यूट्रॉन में परिणति की क्रिया केवल नाभिक के भीतर ही संभव है।

बीटा निष्कासन हेतु शर्त :

क्यू का नाम = (ज, अ)परमाणु भार - (+ १, अ)प. भार

पॉज़िट्रॉन निष्कासन हेतु शर्त :

क्यू का नाम = (ज, अ)परमाणु भार - (- १, अ)प. भार २म

के -इलेक्ट्रॉन परिग्रहण हेतु शर्त:

क्यू का मान = (ज, अ)परमाणु भार - (- १, अ)प. भार । यहाँ पर 'क्यू का मान' = न्यूक्लीय अभिक्रिया की विघटन ऊर्जा, (ज, अ)प. भार = पिता न्यूक्लियस का परमाणिवक द्रव्यमान, (+ १, अ)प. भार अथवा (- १, अ)प. भा. = पुत्री नाभिक का परमाणिवक द्रव्यमान, = परमाणुक्रमांक, = द्रव्यमानसंख्या तथा = इलेक्ट्रॉन का द्रव्यमान।

फ़ेर्मी एवं अन्य लोगों, जैसे डिरैक, गैमो, टेलर, मार्शाक एवं सुदर्शन, ली, यांग, गेल्मान एवं सकुराई आदि ने जो सिद्धांत दिए हैं, वे उपरिलिखत तीनों प्रकार की सक्रियताओं के कारणों का स्पष्टीकरण करते हैं तथा तत्संबंधी तथ्यों, जैसे 'पेयरिटी' अथवा 'समता' के 'अचल न रहने का सिद्धांत', दुर्बल पारस्परिक क्रियाएँ' (weak interactions), न्यूट्रिनो, इलेक्ट्रॉन्, ऐंटिन्यूट्रिनो तथा पॉज़िट्रॉन आदि का 'कुंडलीपन' (helicity), 'विचित्र-कणों' (strange particles) का विघटन आदि, का भी स्पष्टीकरण करते हैं।

कुछ कृत्रिम रेडियोएक्टिव तत्व ऐल्फ़ा-अस्थिर अथवा ऐल्फासक्रिय हैं। पर ऐसे तत्वों की कहीं बड़ी संख्या के-इलेट्रॉन-प्रग्रहण द्वारा विघटित होती है। यदि कोई न्यूक्लियस साधारणतया पॉज़िट्रॉन मुक्त करता है, तो कुछ संभावना इस बात की भी रहती है कि वह नाभिक अपने के-छद के इलेक्ट्रॉन का शोषण कर ले तथा पॉज़िट्रॉन न निकाले। उस के-छद (के-परिकक्ष) के रिक्त स्थान को प्राय: बाह्यछद के इलेक्ट्रॉन आकर भरते हैं और इस प्रकार कुछ के-एक्स किरणों उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार उस नाभिक का परमाणु-क्रंमाक एक इकाई उसी प्रकार घट जाता है जिस प्रकार पॉज़िट्रॉन-निष्कासन द्वारा। ये के-ऐक्स-किरणें उस नए बने तत्व (पुत्री-नाभिक) की विशिष्ट अथवा चरित्रगत, एक्स-किरणें होती हैं तथा इन एक्स-किरणें के द्वारा उस नए तत्व की पहचान की जा सकती है। यह एक्स-किरण सदा बाह्य प्रभाव के रूप में के-प्रग्रहण के साथ प्रस्तुत रहती है। यह बाह्य प्रभाव सर्वप्रथम सन् १९३७ में ३१गैलिय६७ के इस रीति में विघटित होने के प्रमाणस्वरूप देखा के-प्रग्रहण से उत्पन्न ३०जिंक की के-ऐल्फ़ा तथा के-बीटा एक्स किरणें पहचानी गई थीं। यहाँ के-प्रग्रहण द्वारा उत्पन्न पुत्री-न्यूक्लियस का नाम ३०जिंक है।

बीटा-विघटन में जो एक्स-किरणें उत्पन्न होती हैं वे एक इकाई अधिक परमाणु-क्रमांकवाले तथा पॉज़िट्रॉन-निष्कासन एवं के-प्रग्रहण दोनों में ए इकाई कम परमाणु-क्रमांकवाले तत्वों की विशिष्ट एक्स-किरणें होती हैं। उदाहरण के रूप में ५३आयोडीन१३१ एक बीटा निष्कासित कर ५४जीनॉन की विशिष्ट एक्स-करणें मुक्त करता है, जबकि २९कापर६४ पॉज़िट्रान निष्कासित कर २८निकल की विशिष्ट एक्सकिरणें ही मुक्त करता है।

वैसे २९कॉपर६४ की रेडियोऐक्टिवता विचित्र तथा असाधारण है। इसकी अर्ध-आयु १२.८ घंटे है। चूँकि तत्वों की सारणी में इसके एक परमाणु क्रमांक आगे एव एक क्रमांक पीछे एक एक स्थायी आइसोटोप (२८निकिल६४ तथा ३०ज़िंक६४) हैं इस कारण यह तीनों प्रकार की 'बीटा-सक्रियता' (अर्थात् बीटा-सक्रियता, पॉज़िट्रॉनसक्रियता तथा के-प्रग्रहण सक्रियता) दिखाता है। इसके ४० प्रतिशत विघटनों का परिणाम ३०ज़िंक६४ के रूप में (बीटा निष्कासन करके) एवं शेष ६० प्रतिशत का परिणाम स्थायी २८निकल६४ के रूप में होता है तथा इन निकल६४ को ले जानेवाले विघटनों में से दो तिहाई के-प्रग्रहण तथा शेष पॉज़िट्रॉन-निष्कासन होते हैं।

बीटा-विघटन का एक दिलचस्प एवं लाभ्प्रद उदाहरण कार्बन१४ है। इसका परमाण्वीय द्रव्यमान = १४.००७५२६ परमाण्वीय द्रव्यमान इकाइयाँ (प. द्र. इ.) तथा नाइट्रोजन१४ का प. द्रव्यमान = १४.००७५२६ प. द्र. इ. है। इस प्रकार कार्बन१४ के बीटा-विघटन के द्वारा उत्पन्न क्यू-ऊर्जा = (१४.००१६९२-१४.००७५२६) ९३१ = ०.१५४ मेव (Mev)। इस बीटाविघटन का विशेष महत्व यह है कि इसका उपयोग पुरातन अथवा ऐतिहासिक वस्तुओं की आयु ज्ञात करने में होता है। इस विधि को 'कार्बन-आयु-निर्धारण-विधि' (Carbon Dating Method) कहते हैं। कार्बन का अर्ध-जीवन-काल = ५,५९० वर्ष है। जिस समय तत्वों की सृष्टि हुई थी, तब से अबतक प्रकृति में कोई भी कार्बन१४ नहीं बचा है सब विघटित हो गया है। परंतु पृथ्वी के वायुमंडल में अंतरिक्ष-किरणों (cosmic rays) के न्यूट्रॉन नाइट्रोजन१४ से अभिक्रिया करके बराबर कार्बन१४ का सृजन करते रहते हैं। वह अभिक्रिया यह है : न्यूट्रॉन + नाइट्रोजन१४ प्रोटॉन + कार्बन१४। इस प्रकार वायु के कार्बन डाइऑक्साइड के अणुओं के कुछ अंश कार्बन१४ का भी रहता है। पौधे वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड सोख लेते हैं एवं अपने बढ़ने की क्रिया में उसका अपने अंदर समावेश भी कर लेते हैं। जब एक वृक्ष काट लिया जाता है, अथवा रूई की फसल काट ली जाती है, तो पौधे की वृद्धि रुक जाती है तथा वह रेडियोऐक्टिव कार्बन१४ का अपने अंदर लेना भी बंद कर देता है। जो कुछ रेडियोऐक्टिव कार्बन पौधे ने अपने जीवनकाल में ले लिया था, उसका अब बराबर विघटन होता रहता है। ऐसी वस्तुओं की आयु जो वनस्पतीय पदार्थ से निर्मित हों, जैसे लकड़ी, कागज, कपड़ा आदि, अब इस बात की माप लेने से ज्ञात कर ली जाती है कि अब उसें कितना कार्बन शेष रह गया है। इस प्रकार वस्तुओं की ५,००० वर्ष तक की आयु ज्ञात की जा चुकी है। इस प्रकार ज्ञात आयु में अशुद्धि ५० वर्ष होती है।

बहुत से परमाणु आंतरिक रूपांतरण (internal conversion) की क्रिया द्वारा विशिष्ट एक्स-किरणें मुक्त करते हैं, अर्थात् ऊर्जायुक्त, अथवा उत्तेजित, न्यूक्लियस एक गामा किरण निष्कासित करने की अपेक्षा सीधा परमाणु के नक्षत्रीय इलेक्ट्रॉनों से परस्पर क्रिया करता है और इस इलेक्ट्रॉन को मुक्त कर देता है, और उस इलेक्ट्रॉन के रिक्त स्थान को अन्य छद के इलेक्ट्रॉन भरकर विशिष्ट एक्स-किरणें मुक्त कर देते हैं। इस कारण सदा इस बात का विचार आवश्यक है कि जो एक्स-किरणें हम देख रहे हैं वे आंतरिक रूपांतरण द्वारा मुक्त हुई हैं अथवा के-प्रग्रहण के द्वारा।

यह बात ध्यान देने योग्य है कि गामा-निष्कासन तथा आंतरिक रूपांतरण दोनों स्वतंत्र क्रियाएँ हैं तथा एक 'ऊर्जा युक्त' (उत्तेजित) नाभिक अपनी ऊर्जा का क्षय इन दोनों क्रियाओं द्वारा कर सकता है और इन दोनों क्रियाओं में पर्याप्त प्रतिस्पर्धा भी होती है। यदि किसी -छद का रूपांतरण इलेक्ट्रॉन निकलता है तथा उस क्रिया में प्राय: निकलनेवाली गामा किरण की ऊर्जा = गा है, तो उस रूपांतरित इलेक्ट्रॉन की गतिज-ऊर्जा इस सूत्र से दी जाएगी :

=गा - अथवा गा = + ........(१)

यहाँ = -छद के इलेक्ट्रॉनों की 'बंधनकारी ऊर्जा' (binding (energy)। आंतरिक रूपांतरण गुणक (निष्पत्ति) = a (जो -छद के लिए है, जैसे aa इतयादि की परिभाषा है:

a = ,श्श् .......(२)

यहाँ = ब-छद से निकलनेवाले इलेक्ट्रॉनों की संख्या तथा गा = उन इलेक्ट्रॉनों के साथ निकलनेवाली गामा किरणों की संख्या है। पूर्ण रूपांतरण गुणक (Total Conversion Coefficient) की परिभाषा है :

a = a ,

अर्थात् सब छदों से संबंधित गुणकों का जोड़। उदाहरण स्वरूप बेरियम१३७ के लिए ak = ०.०९५ (सन्निकटत:) तथा a = ०.१२ (सन्निकटत:)।

यदि a = १ हो तो उसका अर्थ यह होगा कि यदि एक गामा किरण निकलती है तो उसके साथ ही उस विशिष्ट न्यूक्लीय संक्रमण (transition) में एक ही आंतरिक रूपांतरण इलेक्ट्रॉन भी निकलता है। गामा तथा इलेक्ट्रॉन एक ही न्यूक्लीय संक्रमण के होने चाहिए।

यह भी देखा गया है कि कुछ ऐसे भी तत्व होते हैं जिनमें प्रोटॉनों तथा न्यूट्रॉनों की संख्या तो समान है (अर्थात् परमाणु-क्रमांक तथा द्रव्यमानसंख्या तो समान है), पर उनमें से एक किसी उत्तेजित ऊर्जास्तर (excited energy level) में मापे जा सकनेवाले काल तक रह सकता है, तो ऐसे तत्व समावयवी (isomers) कहलाते हैं। सॉडी ने १९१७ ई. में प्रयोगों के आधार पर इनके प्राकृतिक रेडियोऐक्टिव तत्वों में उपस्थित होने का सुझाव दिया था, पर अब ता प्राय: १२० समावयवी ज्ञात हैं, जिसका औसत जीवनकाल १०-१० सेंकड से लेकर ४ वर्ष तक है। सबसे प्रथम उदाहरण ३५ब्रोमीन८० का था। इसकी रेडियोऐक्टिवता के विश्लेषण से दो अर्ध-जीवन-काल १८ मिनट तथा ४.४ घंटे के ज्ञात हुए हैं। विश्लेषण से ज्ञात हुआ है ४.५ घंटेवाला जीवनकाल एक समावयवी ऊर्जास्तर से दूसरी समावयवी स्तर में संक्रमण से संबंधित है, जिसमें एक गामा निष्कासित होता है, तथा १८ मिनट का जीवनकाल नीचेवाले समावयवी स्तर के बीटानिष्कासन से संबंधित है। इसी प्रकार अन्य बहुत से समावयवों का अध्ययन किया गया है।

प्राय: समावयवों से गामा किरणें निकलने के स्थान पर आंतरिक रूपांतरण इलेक्ट्रॉन निष्कासित होते हैं और इस प्रकार गामा किरण के स्थान पर बहुत नीची ऊर्जावाले इलेक्ट्रॉनों का समूह देखा जाता है।

कृत्रिम रेडियोऐक्टिव तत्वों का महत्व तथा उपयोग

एक उपयोग पुरानी वस्तुओं की कार्बन-आयु-निर्धारण-विधि के रूप में वर्णित हो चुका है। कुछ लोग इसे 'परवाण्वीय घड़ी' कहते हैं। शरीर के रोगी अवयवों की चिकित्सा के लिए इन रेडियोऐक्टिव तत्वों को प्राकृतिक रेडियोऐक्टिव तत्वों के स्थान पर प्रयोग में लाया जा सकता है। इसके कारण मूल्य में बचत के अतिरिक्त कुछ अन्य लाभ भी संभव हैं। कुछ लघु जीवनकाल वाले पदार्थों को, जिनकी अर्धआयु कुछ घंटे मात्र ही हो, खुराक के रूप में किसी रागी को देने पर, इस डर से उन्हें वापस प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रहेगी कि कहीं खूराक अधिक न हो गई हो, क्योंकि वे स्वयं ही कुछ घंटों में विघटित हो जाएँगे। वैसे खुराक के लिए उचित मात्रा ही दी जाती है। इसके अतिरिक्त चूँकि उस पदार्थ को वापस प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती, इस कारण शरीर में इसका उपयोग बाह्य सेवन तथा अंत:सेवन, दोनों प्रकार से, हो सकता है।

यह विदित है कि शरीर की कुछ क्रियाओं द्वारा कुछ तत्व विशेष शरीर के विशेष भागों, इंद्रियों, अथवा ग्रंथियों में ही एकत्र हो जाते हैं। इस प्रकार किसी रोगविशेष, जैसे अर्बुद, फोड़ा, कैंसर आदि, में, केवल उसी स्थान तक इलाज को सीमित रखने के लिए, कुछ विशेष रेडियोऐक्टिव पदार्थों का उपयोग किया जा सकता है। उदाहरण के रूप में, यदि आयोडीन का सेवन किया जाए, तो वह गलग्रंथि (thyroid) में ही जाकर एकत्र हो जाता है। इस कारण कोई भी समझ सकता है कि गलग्रंथि के कुछ रोगों के लिए रेडियोऐक्टिव आयोडीन का अंत:प्रयोग लाभकारी होगा तथा वह उस ग्रंथि तक ही सीमित रहेगा। इसी प्रकार रेडियोऐक्टिव लोहा, कैल्सियम तथा फॉस्फोरस आदि का उपयोग कुछ विशेष रोगी (जैसे हड्डी की दुर्बलता अथवा सड़न, दाँतों की तकलीफ आदि) के लिए किया जा सकता है।

कृत्रिम रेडियोऐक्टिव तत्वों का उपयोग कृषि में खाद के रूप में भी हुआ है। इस संदर्भ में रेडियोऐक्टिव फॉस्फोरस, रेडियोऐक्टिव गंधक तथा सोडियम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

यह भी देखा गया है कि गामा तथा एक्स किरणों के समान ही न्यूट्रॉन भी कुद दैहिक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। परंतु जहाँ एक्स तथा गामा किरणें अस्थि वाले भागों पर अधिक प्रभाव डालती हैं वहाँ न्यूट्रॉन मांसल भागों पर अधिक प्रभाव डालती हैं वहाँ न्यूट्रॉन मांसल भागों पर अधिक प्रभाव डालता है, क्योंकि मांस में हाइड्रोजन का जमाव अधिक होता है और न्यूट्रॉन द्वारा हाइड्रोजन से मुक्त किए हुए प्रोटॉन ही संभवत: दैहिक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। इन विकिरणों के उपयोग संबंधी अनुसंधान विश्व भर में हो रहे हैं।

शायद कृत्रिम रूप से उत्पादित रेडियोऐक्टिव तत्वों का सबसे अधिक उपयोग रासायनिक जीव-रासायनिक तथा जैविक अध्ययनों में अनुज्ञापक के रूप में है। सच पूछा जाए तो रेडियोऐक्टिव तत्व ही नहीं अपितु स्थायी तत्व भी, जो कृत्रिम रूप से उत्पन्न किए जाते हैं, इन अध्ययनों के लिए लाभकारी हैं। उदाहरणस्वरूप, हाइड्रोजन, कार्बन, नाइट्रोजन तथा ऑक्सीजन आदि सब ज्ञात रासायनिक यौगिकों में से नब्बे प्रतिशत से भी अधिक में पाए जाते हैं और इनसे कुछ कम पाए जानेवाले स्थायी आइसोटोप हाइड्रोजन, कार्बन१३, नाइट्रोजन१५ तथा ऑक्सीजन१७ है, जो 'अनुज्ञापक तत्व' के रूप में बहुत सी जैविक समस्याओं में उपयुक्त सिद्ध हुए हैं।

पर रेडियोऐक्टिव परमाणु अनुज्ञापक तत्व के रूप में अधिक उपयुक्त हैं, क्योंकि अपनी सक्रियता के कारण वे किसी भी स्थान पर अपनी उपस्थिति प्रदर्शित कर देते हैं। यदि इन पदार्थों को किसी व्यक्ति , पशु, अथवा जीव को खिला दिया जाए, तो इस बात का अध्ययन किया जा सकता है कि वह पदार्थ शरीर के भीतर कहाँ जाता है तथा कहाँ खपता है। उदाहरण के रूप में, रेडियोऐक्टिव फ़ॉस्फ़ोरस के उपयोग में देखा गया है कि पाचित फ़ॉस्फ़ोरस का ६२ प्रतिशत अंश शरीर के हड्डी वाले भाग में पाँच दिन के भीतर पहुँच जाता है। ऐसा कैल्सियम फ़ॉस्फेट जिसमें फ़ॉस्फ़ोरस रेडियोऐक्टिव बना दिया गया है, चूहों को खिलाकर स्वांगीकरण का अध्ययन करने से ज्ञात हुआ है कि अधिकतम कैल्सियम आगे के दाँतों में जाता है कि अधिकतम कैल्सियम आगे के दाँतों में जाता है। पौधों के द्वारा खनिजें के स्वांगीकरण के अध्ययन के लिए रेडियोऐक्टिव सोडियम तथा फ़ॉस्फ़ोरस का उपयोग होता है।

कृत्रिम रेडियोऐक्टिव पदार्थों का उपयोग व्यवसाय में भी होता है। कृत्रिम रेडियोऐक्टिव पदार्थों की गामा-किरणें एक्सकिरणों तथा प्राकृतिक गामा-किरणों के स्थान पर, मशीनों के पुर्जों के निरीक्षण के लिए उपयुक्त हो सकती हैं। उदाहरण के रूप में; ईट्रियम, कोबल्ट तथा अमेरीशियम गामा किरणों के स्रोत के रूप में प्रयुक्त होते हैं। ईट्रियम की गामा किरणों से दो इंच मोटी लोहे की चद्दर पार कर चित्र लिए जा चुके हैं तथा इसकी गामा-किरणें उतनी ही अंत-प्रवेशी है जितनी रेडियम की। अमेरीशियम की विशिष्ट सक्रियता रेडियम की तुलना में तीन गुनी अधिक है तथा इसका अर्ध-जीवनकाल लगभग ४५१ वर्ष है। यह ऐल्फ़ा कण भी मुक्त करता है। इस कारण बेरिलियम को इन ऐल्फ़ा किरणों के समक्ष रखने से न्यूट्रॉन का एक सुगम तथा स्थायी स्रोत उपलब्ध हो जाता है। अब तक कृत्रिम रूप से १०४ तत्व उत्पादित किए जा चुके हैं। इसका श्रेय नाभिकीय रिऐक्टरों तथा त्वरित्रों को है।

सं. ग्रं. - आई., क्यूरी तथा एफ., ज़्होल्यो : काँपते रेंदस १९८, २५४ (१९३४); नेचर १३३, २०१ (१९३४); फेनमान तथा जेल-मान : फीज़िक्स रिवाइज़्ड, १०९, १९३ (१९५८); सुदर्शन और मार्शक : फीज़िक्स रिवाइज़्ड, १०९, १८६० (१९५८); होलैंडर, पर्लमान और सीबोर्ग : रिवाइज़्ड मॉडर्न फीज़िक्स २५, ४६९ (1953)। (लवलेश राय खरे)