रेडियो शब्द का उपयोग सामान्यत: संयोजक शब्द के रूप में किया जाता है, जो किसी किरण, अर्धव्यास अथवा विकरण से संबंध व्यक्त करता है। शरीर विज्ञान में यह वाहु की दो अस्थियों के, जिन्हें संयुक्त रूप से 'रेडियोकार्पल' कहा जाता है, बाहरी अवयव, अर्थात् 'रेडियो' नामक अस्थि, को व्यक्त करता है। मेढक तथा तत्सदृश अन्य जीवों में 'रेडियस' और 'अलना' नामक दोनों अस्थियाँ संयुक्त होने के कारण 'रेडियो अलना' कही जाती है। इस प्रकार प्राणिविज्ञान में रेडियो शब्द का उपयोग एक अस्थिविशेष के लिए संयोजक शब्द के रूप में किया जाता है।
प्राकृतिक विज्ञानों में रेडियो शब्द का उपयोग अत्यंत व्यापक रूप से लघु तरंगों के लिए किया जाता है। वेतारी तार संचार में रेडियो शब्द का उपयोग दो अथवा अधिक स्थानों के बीच विद्युच्चुंबकीय तरंगों की सहायता से प्रणीत संचारव्यवस्था के लिए किया जाता है। ये तरंगें अत्यंत तीव्र वेग (लगभग १,८६,००० मील प्रति सेकंड) से चलती हैं, सुगमतापूर्वक उत्पन्न की जा सकती है, अन्य साधनों की अपेक्षा इनके उत्पादन तथा संचार में कम व्यय होता है इनके गमन के लिए किसी द्रव्य माध्यम की आवश्यकता नहीं पड़ती और इन्हें एक छोटे से, अल्प मूल्यवान तथा सुग्राही संग्राही (receiver) की सहायता से पहचाना जा सकता है तथा उसमें इनके संकेतों को प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार की संचारव्यवस्था, जिसे रेडियो -संचार - प्रणाली कहा जा सकता है, विविध रूपों में प्राप्त की जाती है। संतारित बेतार (Wired wireless) संचार प्रणाली, बेतार संचार और टेलीफोन, आकाशवाणी प्रसारण, रेडियोवीक्षण (television) आदि, इन तरंगों के व्यावहारिक उपयोग एवं महत्व के प्रमाण हैं। इतना ही नहीं, अब तो तापप्रेषियों की सहायता से ऊष्मा का प्रेषण भी रेडियोतरंगों द्वारा किया जाता है। इसके अतिरिक्त, ब्रह्मांड के सुदूरस्थ अंवलों में स्थित खगोलीय पिंडों से, जिनका प्रकाश अभी तक पृथ्वी तक नहीं पहुँच सका है, अत्यंत लघु विद्युत्-चुंबकीय तरंगें पृथ्वी तक आती हैं, जिन्हें विशेष प्रकार के रेडियो संग्राही यंत्रों द्वारा ग्रहण किया जाता है। इन संयंत्रों को 'रेडियो दूरदर्शी' कहते हैं।
विद्युच्चुंबकीय तरंगों के अतिरिक्त रेडियम जातीय कतिपय पदार्थों के केंद्रक निरंतर अत्यंत लघु कणों का उत्सर्जन करते रहते हैं, जिन्हें 'रेडियाऐक्टिव किरणें' कहते हैं। सर्वप्रथम रेडियम में यह गुण परिलक्षित होने के कारण इसे रेडियोऐक्टिवता, कहते हैं (देखें रेडियोऐक्टिवता)।
वार्तावहन हेतु रेडियो-संचार-प्रणाली का उपयोग आधुनिक सभ्यता के इतिहास की संभवत: सर्वाधिक महत्वपूर्ण ही नहीं, अपितु युगांतरकारी घटना है। इसका जन्म १८४० ई. में जोज़ेफ हेनरी द्वारा उच्च आवृत्ति के दोलन उत्पन्न करने की विधि के अन्वेषण के साथ हुआ और इसका स्वरूप सन् १८७३ में मैक्सबेल द्वारा विद्युच्चुंबकीय तरंगों के सिद्धांत के विकास से स्पष्ट हुआ। सन् १८८७ में हाइनरिख हेर्ट्स ने सिद्ध कर दिया था कि विद्युच्चुंबकीय तरंगें पूर्णत: प्रकाशतरंगों की ही प्रकृति की होती हैं और इस कारण इनका उपयोग संकेतप्रेषण एवं ग्रहण के निमित्त किया जा सकता है। इसके आधार पर कार्य करते हुए गुल्येलमोमार्कोनी ने सन् १८९७ ई. में बेतारी-तार-संचार द्वारा सागरतट से १८ मील दूर स्थित जहाज का संकेत भेजने में सफलता प्राप्त की थी। १८८७ ई. तक बेतारी-तार-संचार सार्वजनिक स्तर पर संवादप्रेषण के लिए सर्वथा उपयुक्त सिद्ध हो चुका था, क्योंकि ६ दिसंबर, १८८६ ई. को प्रथम सशुल्क रेडियो टेलीग्राम इंग्लैंड के नीडिल्स नामक स्टेशन से भेजा गया था। सन् १९०३ तक पारमहासागरीय रेडियो-संचार-व्यवस्था स्थापित हो चुकी थी और उसी वर्ष ३ मार्च को प्रथम बार ऐटलैंटिक महासागर के पार अमरीका से रेडियो टेलिग्राम (रेडियोग्राम) द्वारा प्राप्त समाचार लंदन के 'टाइम्स' नामक समाचारपत्र में प्रकाशित हुआ। सन् १९०५ में डी फॉरेस्ट द्वारा ट्राथोड वाल्व (triode valve) के अन्वेषण ने रेडियो-संचार-व्यवस्था के विकास के इतिहास में नया पृष्ठ जोड़ा। इन वाल्वों के उपयोग से प्रवर्धक (amplifire), संसूचक (detector) तथा दिष्टकारी (rectifier) आदि युक्तियों का जन्म हुआ। इन्हीं की सहायता से सन् १९१४ में आर्मस्ट्राँग ने पुनर्योजी परिपथों (regenerative circuits) की संरचना की, जिन्हें रेडियो संयंत्रों में प्रविष्ट कर रेडियोतरंगों की ध्वनितरंग में, अथवा ध्वनितरंगों को रेडियोतरंगों में, परिणत कर बेतारी टेलीफोन प्रणाली एवं आधुनिक रेडियो संचार प्रणाली का निर्माण किया गया। सर्वप्रथ २८ जुलाई, १९१५ ई. को अमरीकन टेलीफोन एव टेलीग्राफी कंपनी ने बेस्टर्न इलेक्ट्रिक कं. के सहयोग से आर्लिगटन से हवाई द्वीप, (लगभग ५,००० मील) तक और उसके तीन ही महीने बाद २८ अक्टूबर, १९१५ ई. का आर्लिगटन से पैरिस तक, अर्थात् ऐंटलैंटिक महासागर पार, बेतार द्वारा वार्तावहन का सफल प्रयोग किया। इसके अनंतर इस दिशा में बड़ी तीव्र गति से विकास हुआ और आज विज्ञान के इस अंग को इस सीमा तक पहुँचा दिया गया है कि अब विभिन्न अंतर्ग्रहीय एवं अंतरिक्ष रॉकेटों में स्वचालित रेडियो संग्राही एवं प्रेषण व्यवस्था की सहायता से वहाँ की सूचनाएँ पृथ्वी तक बड़ी सरलता से पहुँच जाती हैं। (सुरेशचंद्र गौड़.)