रुधिराधान (Blood transfusion) किसी व्यक्ति, या जानवर के रुधिर परिसंचरण में किसी व्यक्ति, या जानवर का रुधिर प्रविष्ट कराने की क्रिया है। रुधिरधान निम्नलिखित अवस्थाओं में किया जाता है :
रुधिराधान
क. रुधिर, ख. तथा ग. स्टॉप और उसके भाग, ध. दाबक रोशनी, ङ. छ और ज. बंधक स्ट्रैप, च. सूई तथा स, उपस्तंभ।
(क) अचानक रुधिरस्राव होने पर।
(ख) लाल रुधिर कणिकाओं का अभाव होने पर। निम्नलिखित कारणों से लाल रुधिर कणिकाओं का अभाव हो सकता है : (१) अचानक रक्तक्षीणता होने पर, (२) रुधिरस्राव के कारण रक्तक्षीणता होने पर, (३) एप्लास्टिक (aplastic) तथा बर्तित रक्तक्षीणता होने पर तथा (४) शल्यकर्म के पहले।
(ग) श्वेत रुधिराणु का अभाव एवं न्यूनता होने पर (प्राथमिक एवं अनुगामी एग्रेन्यूलोसाइटोसिस में)।
(घ) रुधिर के विंबाणुणों (platelets) का अभाव (अचानक एवं तीव्र ्थ्रांबोसाइटोपीनिक परप्यूरा में)।
(ङ) हीमोग्लोबिन की न्यूनता। कोयले की खानों में खनिकों के रुधिर में कोयला गैस प्रवेश कर हीमोग्लोबिन को कार्बाक्सी हीमोग्लोबिन में परिवत्रित कर देती है। ऐसे रोगियों के शरीर से दूषित रुधिर निकालकर रुधिराधान करना आवश्यक होता है।
(च) रुधिर को स्कंदित करनेवाले पदार्थों का रुधिर में अभाव (Haemmophilia)। इसमें रोगी के रुधिर में ्थ्रांबोप्लास्टिन का अभाव बार बार रुधिराधान से दूर हो जाता है।
रुधिरप्रदाता का चयन - रुधिरप्रदाता की आयु १५ से ६० वर्ष की होनी चाहिए। रुधिर दान करने के पूर्व रुधिरप्रदाता को गरिष्ठ भोजन नहीं चाहिए। रुधिरप्रदाता उपदंश, मलेरिया तथा संक्रमित हिपेटाइटिस से ग्रसित न हो, अन्यथा रुधिर प्राप्तकर्ता में इन रोगों का संक्रामण हो जा सकता है। रुधिरप्रदाता का रुधिर उसी समूह का होना चाहिए जिन समूह का रुधिर उस रोगी का है। यदि रोगी के समूह वाला रुधिर प्रदाता न मिले तो अंतरराष्ट्रीय श्रेणी ओ (O) वाला रुधिर ले चाहिए। एक जीवाणुरहित बोतल में, जिसमें ५० घन सेंमी. ३.८ प्रतिशत का सोडियम साइट्रेट का विलयन हो, एक पाइंट रुधिर लिया जाता है। धिरदान करने के पूर्व रुधिरप्रदाता यदि निराहार रहे तो अच्छा रहता है।
रुधिरप्रदाता से रुधिर निकालना - रुधिरप्रदाता की कुहनी के ऊपरी बाहु से बंधन का उपयोग करते हैं। इसके बाद त्वचा को स्वच्छ कर क्यूबिटल शिरा में सूई प्रवेश करते हैं। इस सुई में एक रबर की नली लगी रहती है, जो एक पाइंट की बोतल से जुड़ी रहती है। इस बोतल में सोडियम साइट्रेट का विलयन रहता है १० से १५ मिनट का समय रुधिरप्रदाता से रुधिर लेने में लगता है। एक स्वस्थ मनुष्य ४०० से ६०० घन सेंमी. रुधिर दान कर सकता है। रुधिर का प्रवाह ठीक बना रहे, इसलिए रुधिर निस्रवण के समय रुधिरप्रदाता को मुट्ठी खोलने और बंद करने के लिए कहा जात है। रुधिर के निस्रवण के समय रुधिर प्रदाता को किसी प्रकार की संवेदना नहीं होती। रुधिर एकत्र होने के तत्काल बाद ही रोगी के लिए रुधिर का उपयोग हो सकता है, अथवा रेफ्रजरेटर में रख दिया जाता है।
रोगी को रुधिराधान करना - वह बोतल, जिसमें रुधिर रहता है, रोगी से तीन चार फुट ऊपर लटकी रहती है। इस बोतल से रबर की एक नली लगी रहती है, जिसमें सूई, य ट्यूब (कैन्यूला, cannula) लगा रहता है। यहा सूई, या ट्यूब रोगी की शिरा में घुसेड़ देते हैं। रुधिर का प्रवाह गुरुत्वाकर्षण के कारण होता है। रुधिर के प्रवाह को रोगी आवश्यकतानुसर तीव्र, या मंद किया जा सकता है। रुधिरप्रदाता की तरह रोगी की भी रुधिराधान के समय कोई संवदेना नहीं होती। प्राय: रुधिर की गति ४० बूँद प्रति मिनट रहनी चाहिए।
स्ट्रीवेक के द्वारा रुधिराधान - यह विधि अपेक्षया उत्कृष्ट, और साथ ही सरल है। इस विधि में संचित रुधिर पूर्ण रूप से बंद रहता है। स्ट्रीवेक दोनों ओर से बंद रहता है तथा इसमें साइट्रेट विलयन निर्वात में संचित होता है।
संचित रुधिर - कुछ वर्षों से रुधिर के कोश स्थापित किए जाने लगे हैं। अब अधिक से अधिक कोश में संचित रुधिर का ही उपयोग किया जाता है। संचित एवं रक्षित रुधिर के अवयव विभिन्न स्तरों में विलग हो जाते हैं। ऊर्ध्वस्तर पर आया प्लैज़्मा नारंगी के रंग का तथा स्वच्छ होना चाहिए।
प्लैज़्मा में धुँधलापन लाइपायड़ों (lipoids) की उपस्थिति के कारण होता है। अत: रुधिराधान के चार घंटा पूर्व रुधिरप्रदाताओं का वसा वाला भोजन न ग्रहण करना अच्छा है।
रुधिरकणिकाओं की क्षति कई कारणों से होती है : (१) संसर्ग रोग से, (२) यदि संचित रुधिर २१ दिन से अधिक का हो तो, (३) हिमीभवन से (संचित रुधिर को ३८� सें. पर रखा जाना चाहिए) तथा (४) तापन से। यदि रुधिर रेफ्रजरेटर से निकाला गया है, तो आठ घंटे से पूर्व ही उसको उपयोग में ले आना चाहिए। क्षतिग्रस्त रुधिर का उपयोग न करना चाहिए।
प्लैज़्मा और सीरम का आधान - इसका उपयोग इन लक्षणों में आवश्यक होता है : तीव्र आघात एवं संघातिक क्षोभ, आग से जलने पर तथा अन्य वे अवस्थाएँ जिसमें शरीर में द्रव की शीघ्र आवश्यकता हो, परंतु हीमोग्लोबिन अनावश्यक हो। इस प्रकार का आधान अति रुधिरस्राव में होता है, जबकि हीमोग्लोबिन की मात्रा ५० प्रतिशत से न्यून न हो। इस आधान से यह लाभ है कि इसमें समान समूह के रक्त की आवश्यकता नहीं पड़ती। प्लैज़्मा अथवा सीरम दो रूपों, (१) द्रव और (२) सूखा हुआ में प्राप्त होता है।
द्रव प्लैज़्मा ४� सें. पर महीनों भली प्रकार रखा जा सकता है तथा सूखा प्लाज़्मा कमरे के ताप पर अपरिमित समय तक भली प्रकार रखा जा सकता है। यह बाजार में बिकता है। इसका व्यापारिक नाम 'लायवी' है। ३० ग्राम लायवी को ४०० घन सेंटीमीटर शुद्ध जल में घुलते हैं। तत्पश्चात् प्लैज़्मा को रुधिराधान की विधि द्वारा ही रोगी के शरीर में पहुँचाते हैं।
यंत्र संबंधी त्रुटि - यह निम्नलखित दो प्रकार की होती है : (अ) वायु एंबोलिज़्म (embolism) - रबर नली यदि जीर्ण हो अथवा छिद्रित हो, तो वायु छिद्र द्वारा प्रवेश कर रुधिर के साथ प्रवाहित होकर बुलबुले बना देती है, जिससे रुधिरप्रवाह रुक जाता है और रोगी की मृत्यु हो जाती है, (ब) क्लॉट एंबोलिज़्म - यदि रुधिर जमा हुआ है या दूषित है तो या शिरा में प्रवेश कर रुधिरप्रवाह को रोक देता है।
रुधिराधानीय हीमोलाइसिस - यदि रोगी का रुधिरसमूह रुधिरप्रदाता के समान न हो, तो यह क्रिया हो जाती है और रोगी की मृत्यु हो सकती है। अत: रुधिर के समूह का परीक्षण ध्यान से करना चाहिए। (सत्यपाल गुप्त)