रुधिर (Blood) एक तरल पदार्थ है, जिसके दो भाग है : (१) द्रव भाग, जिसे प्लाज़्मा कहते हैं और (२) ठोस भाग, जो कोशिकाओं का बना होता है। रुधिर कोशिकाएँ तीन प्रकार की होती हैं : (१) लाल रुधिर कोशिकाएँ (२) श्वेत रुधिर कोशिकाएँ और (३) विंबाणु, या प्लेटलेट्। प्लैज़्मा में ९१ से ९२ प्रति शत जल और शेष में (क) सोडियम, पोटैशियम और कैल्सियम, (ख) वसा, (ग) शर्करा, (घ) प्रोटीन आदि होते हैं।
रुधिर के कार्यं -१. फुफ्फुसों से शरीर के विभिन्न अंगों, को ऑक्सीजन ले जाना और वहाँ से कार्बन डाइऑक्साइड गैस को फुफ्फुसों तक वापस ले आना।
२. शरीर के चयापचयजन्य अंत्य पदार्थों को वृक्क में पहुँचाना, जिनको वृक्क बाहर विसर्जित कर देते हैं।
३. पोषक पदार्थों, ओषधि, विटामिन आदि को शरीर के सब भागों में पहुँचा।
४. शरीर में लवण और क्षार का संतुलन बनाए रखना।
५. रोगोत्पादक जीवाणुओं का नाश कर इनसे शरीर की रक्षा करना। श्वेत रुधिर कोशिकाएँ ऐसे जीवाणुओं का भक्षण कर लेती हैं।
६. रुधिर के शीघ्रता से जमकर थक्का बनने की प्रवृत्ति से चोट लगने पर शरीर से रुधिर स्राव को बंद करना।
मानव शरीर में प्रति किलोग्राम के भार पर ७८ से ९७ घन सेंटीमीटर रुधिर रहता है।
लाल रुधिर कोशिका - लाल रुधिर कोशिकाएँ लाल रंग की होती हैं। हीमोग्लोबिन के कारण इनका रंग लाल होता है। ये ७.२ म्यू व्यास की गोल परिधि की और दोनों ओर से पैसे या रुपए के समान चिपटी होती हैं। इनमें केंद्रक नहीं होता। वयस्क पुरुषों के रुधिर के प्रति धन मिलीमीटर में लगभग ५० लाख और स्त्रियों के रुधिर के प्रति घन मिलिमीटर में ४५ लाख लाल रुधिर कोशिकाएँ होती हैं। इनकी कमी से रक्तक्षीणता (देखें रक्तक्षीणता) तथा रक्त श्वेताणुमयता (Leukaemia) रोग होते हैं।
लाल रुधिर कोशिका का विकास - आधुनिक मत के अनुसार लाल रुधिर कोशिकाओं का निर्माण रक्त परिसंचरण तंत्र के बाहर होता है।सबसे पहले बनी कोशिका हीमोसाइटोब्लास्ट (Haemoctoblast) कहलाती है। पीछे यह कोशिका लाल रुधिर कोशिका में बदल जाती है। भ्रूण में लाल रुधिर कोशिका रुधिर परिसंचरण क्षेत्र में बनती है। पहले इसके मध्य में केंद्रक होता है, जो पीछे विलीन हो जाता है। शिशुओं के मध्यभ्रूण जीवन से लेकर जन्म के एक मास पूर्व तक लाल रुधिर कोशिकाओं का निर्माण यकृत एवं प्लीहा में होता है। शिशु जन्म के बाद लाल रुधिर कोशिकाएँ अस्थिमज्जा में बनती हैं।
लाल रुधिर कोशिकाओं (ईथ्राोिसाइट्स, erythrocytes) का जीवन १२० दिन का होता है, तत्पश्चात् प्लीहा में इनका अंत हो जात है।
श्वेत रुधिर कोशिकाएँ - ये लाल रुधिर कोशिकाओं से पूर्णतया भिन्न होती हैं। इनमें हीमोग्लोबि नहीं होता, पर इनमें केंद्रक होते हैं। ये आकार में लाल रुधिर कोशिकाओं से बड़ी होती है। कुछ श्वेत रुधिर कोशिकाओं में कणिकाएँ होती हैं।
श्वेत रुधिर कोशिकाओं में जीवाणुओं के भक्षण करने की शक्ति होती है। इनकी संख्य ६,००० से ८,००० प्रति घन मिलीमीटर होती है। संक्रामक रोगों के हो जाने पर इनकी संख्या बढ़ जाती है, पर मियादी बुखार, या तपेदिक हो जाने पर इनकी संख्या घट जाती है। श्वेत रुधिर कोशिकाएँ दो प्रकार की होती हैं, एक में कणिकाएँ नहीं होतीं और दूसरी में कणिकाएँ होती हैं। पहले प्रकार को एग्रैन्यूलोसाइट्स (agranulocytes) और दूसरे प्रकार को ग्रैन्यूलोसाइट्स (granulocytes) कहते हैं।
एग्रैन्यूलोसाइट्स कोशिकाएँ दो प्रकार की होती हैं : (१) लसीकाणु (lymphocyte) कोशिका और (२) मोनोसाइट (monocyte) कोशिका। लसीका कोशिकाएँ लघु और विशाल दो प्रकार की होती है। मोनोसाइट कुल श्वेत रुधिर कोशिकाओं की ५ से १० प्रतिशत तक होती हैं।
ग्रैन्यूलोसाइट कोशिकाएँ तीन प्रकार की होती हैं : (१) न्यूट्रोफिल्स (Neutrophiles, ६० से ७० प्रतिशत), (२) ईओसिनोफिल्स (Eosinophilesm, १ से ४ प्रतिशत) और (३) बेसोफ़िल्स (Basophiles ०.५ से १ प्रतिशत)।
श्वेत रुधिर कोशिकाएँ निम्नलिखित कार्य करती हैं : (१) आगंतुक जीवाणुओं का भक्षण करती हैं, (२) ये प्रतिपिंडों की रचना करती हैं, (३) हिपेरिन उत्पन्न कर रुधिरवाहिकाओं में ये रुधिर को जमने से रोकती हैं, (४) ये प्लैज़्मा प्रोटीन और कुछ कोशिका प्रोटीन की भी रचना करती हैं तथा (५) हिस्टामिनरोधी कार्य कर शरीर को एलर्जी से बचाने में सहायक होती हैं।
विंबाणु या प्लेटलेट् - ये प्रति घन मिलीमीटर रुधिर में २.५ लाख से ५ लाख तक होते हें। इनका आकर २.५ म्यू होता है। इनका जीवन चार दिन क होता है। इनके कार्य निम्नलिखित हैं :
(१) ये रुधिर के जमने (स्क्रंदन) में सहायक होते हैं तथा (२) रुधिरवाहिका के किसी कारणवश टूट जाने पर ये टूटे स्थान पर एकत्र होकर कोशिकाओं को स्थिर करते हैं।
प्लैज़्मा - रुधिर में प्लैज़्मा ५२-५५ प्रतिशत होता है। इसमें निम्नलिखित पदार्थ रहते हैं : जल लगभग ९० प्रतिशत, प्रोटी (फाइब्रिनोजेन, ग्लोब्युलिन तथा ऐलब्यूमिन) ९ प्रतिशत, लवण ०.९ प्रतिशत और शेष में शर्करा, यूरिया अम्ल, क्रियेटिनिन, कॉलिस्ट्राल, क्रियेटिन इत्यादि। लवणों में सोडियम के अतिरिक्त पोटैशियम और मैगनीशियम के लवण भी लेश मात्र रहते हैं।
रुधिर का थक्का बनना, या जमना - रुधिर द्रव होता है, पर शरीर से बाहर निकलने पर वह कुछ मिनटों में जम जाता है, जिसे थक्का कहते हैं। थक्का बनने के समय का निर्धारण कई विधियों से किया जा सकता है।
रुधिर के जमने में (१) प्र्थ्रोाॉम्बिन, (२) कैल्सियम परमाणु, (३) फाइब्रिनोजिन और (४) ्थ्रांबोप्लास्टिन की आवश्यकता होती है। पहले तीन पदार्थ रक्त में रहते हैं और चौथा प्लेटलेट के टूटने से निकलता है। इनके अतिरिक्त ऐंट्थ्राॉिम्बिन और हिपेरिन भी रहते हैं। ताप के नीचा होने और कैल्सियम को निकाल लेने से तथा जल मिलाकर रुधिर के पतला कर देने से रुधिर का जमना रुक जाता है। मैग्नीशियम तथा सोडियम सल्फेट को मिलाने से तथा हिपेरिन, जोंकसत और डिकूमेरिन आदि रुधिर के जमने में बाधक होते हैं। रुधिर के शीघ्र जमने में ऊष्मा, ्थ्राोंबीन, ऐड्रीनलीन, कैल्सियम क्लोराड तथा विटामिन के (k) से सहायता मिलती है।
रुधिर वर्ग - संसार भर के मनुष्यों के रुधिर के चार वर्गों में वर्गीकृत किया गया है, जिनको ए (A), ए बी (AB) और ओ (O) वर्ग कहते हैं। एक रुधिर वर्ग के व्यक्ति को उसी वर्ग का रक्त दिया जा सकता है। दूसरे वर्ग का रक्त देने से उस व्यक्ति की लाल रुधिर कोशिकाएँ अवक्षिप्त हो सकती हैं। पर समान वर्ग का रक्त देने से अवक्षेपण नहीं होता। दूसरे वर्ग का रक्त देने से व्यक्ति की मृत्यु तक हो सकती है। दुर्घटना में कही कट जाने से, या शल्य कर्म में कभी कभी इतना रक्तस्राव होता है कि शरीर में रक्त की मात्रा बहुत कम हो जाती है और व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है। ऐसी दशा में रोगी के शरीर में रुधिर पहुँचाने से उसकी प्राणरक्षा संभव होती है। उस समय रुधिरपरीक्षा द्वारा रोगी का रुधिर वर्ग मालूम कर, उसी वर्ग के रुधिरवाले मनुष्य का रुधिर लेकर, रोगी को दिया किंतु ओ (O) वर्ग का रुधिर ऐसा होता है कि उसको अन्य वर्गों के व्यक्ति ग्रहण कर सकते हैं। इस कारण ओ (O) वर्ग के रुधिर वाले व्यक्ति सर्वदाता (universal donors) कहे जाते हैं। एबी (AB) वर्ग के रुधिरवाले व्यक्ति अन्य सब वर्गों का रुधिर ग्रहण कर सकते हैं। इसलिए ये व्यक्ति सर्वग्रहणकर्ता (universal receipients) कहे जाते हैं। रक्त में आर, एच (Rh) तत्व भी होता है, जिसकी परीक्षा भी आवश्यक है।
हीमोग्लोबिन -लाल रुधिर कोशिकाओं में हीमोग्लोबिन रहता है, जिसके कारण रुधिर लाल दिखाई देता है। हीमोग्लोबिन ग्लोबूलिन और हीम, या हीमेटिन का बना होता है। ग्लोबूलिन एक प्रकार का प्रोटीन है। हीमेटिन के अंदर लोहा रहता है। हीमोग्लोबिन ही ऑक्सीजन का अवशोषण करता है और इसको रक्त द्वारा सारे शरीर में पहुँचता है। रुधिर में हीमोग्लोबिन की मात्रा १४.५ ग्राम प्रतिशत है। अनेक रोगों में इसकी मात्रा कम हो जाती है। हीम (Haem) का सूत्र का३४ हा३० ना४ औ४ लो औ हा (C34 H30 N4 O4 FcOH) है। इसमें लोहा रहता है। इसमें चार पिरोल समूह रहते हैं, जो क्लोरोफिल से समानता रखते हैं। इसका अपचयन और उपचयन सरलता से हो जाता है। अल्प मात्रा में यह सब प्राणियों और पादपों में पाया जाता है। हीमोग्लोबिन क्रिस्टलीय रूप से सरलता से प्राप्त हो सकता है।
रुधिर परीक्षा के लिए वयस्क व्यक्ति की अंगुली से या शिरा से रुधिर निकाला जाता है।
रुधिर को जमने से बचाने के लिए स्कंदन प्रतिरोधी पदार्थ डालते हैं। इसके लिए प्राय: अमोनियम और पोटैशियम ऑक्सेलेट प्रयुक्त किए जाते हैं।
डबल ऑक्सेलेटेड रुधिर को लेकर, अपकेंद्रित में रखकर, आधे घंटे तक घुमाते हैं। रुधिर का कोशिकायुक्त अंश तल में बैठ जाता है और तरल अंश ऊपर रहता है। यही तरल अंश प्लैज़्मा है।
इरिओसाइट सेडिमेंटेशन रेट -लाल रुधिर कोशिकाओं का अंग्रेजी पर्यायवची इरिओसाइट है। कुछ रोगों, जैसे यक्ष्मा (तपेदिक), में अवक्षेपण द्वारा इनकी तल में बैठने की गति बढ़ जाती है। इस परीक्षा से रोग पहचानने में सहायता मिलती है। यह ई एस आर (E S R) परीक्षा कही जाती है। (सत्यपाल गुप्त)