रीमानी ज्यामिति न (n) वास्तविक स्वतंत्र चरों के समुच्चय , य,..... (x1, x2, ...xn) को हम किसी -विम (n-dimesional) के दिक् (Vn) के चलित बिंदु के निर्देशांक (coordinates of current point) रूप में इस अर्थ में ले सकते हैं, कि चरों के मानों का प्रत्येक समुच्चय (set) (Vn) के किसी बिंदु को निश्चित स्पष्ट (define) करता है। किसी तिर्यक वक्ररेखी (oblique curvlinear) निर्देशांकों की पद्धति में आसन्न बिंदुओं प, फ, ब (u, v, w) ओर + ताप, फ + ताफ, ब + ताब (u + du, v + dv, w + dw) के बीच की दूरी तास (ds) निम्नलिखित समीकरण से व्यक्त की जाती है :

तास = क ताप + ख ताफ + ग ताब २ए ताफ ताब+

२ज ताब ताफ + २ह ताप ताब

[ds2 = a du2 + b dv2 + c dw2 + 2f dv dw +

2g dw dv + 2h du dv ]

समीकरण में क, ख, ग, ए, ज, ह (a, b, c, f, g, h) निर्देशांकों के फलन हैं। इस प्रकार रैखिक अण्वंशों (linear elements) का वर्ग निर्देशांकों के अवकलों के द्विघात रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसी कल्पना को व्यापक रूप देकर रीमान ने न-विम दिक् में अनुप्रयुक्त किया। रीमान ने, आसन्न बिंदुओं, जिनके निर्देशांक किसी पद्धति में (x1) और + ताय (xi+dxi) हों [इ (i) = १, २,...,न], के बीच की अनंत सूक्ष्म दूरी तास (ds) को इस समीकरण से व्यक्त किया है :

तास =इउ ताय ताय [ds2 = gij dxi dxj] ...(1) यहाँ इ उ (ij) = १, २ ...है। इउ (gij) के गुणांक (xi) निर्देशांकों के फलन हैं तथा समीकरण (१) के दूसरे सदस्य (second member) में द्विघात अवकल रूप (quadratic differential �form) को रीमानी मीट्रिक (metric) कहते हैं और ऐसा दिक् जिसका लक्षण इस प्रकार का मीट्रिक हो रीमानी दिक् कहलाता है। रीमानी मीट्रिक पर आधारित ज्यामिति को रीमानी जयामिति कहते हैं।

चूँकि अवकल ताय (dxi) प्रतिचर सदिश (contravariant vector) का अवयव है और परिमाण तास(ds2) एक अदिश द्विचर (scalar bivariant) है, अत: फलन इउ (gij) को अवश्य ही द्वितीय कोटि के सहपरिवर्त का टेंसर (covariant tensor) का अवयव होना चाहिए। यह टेंसर सममित होता है। यह रीमानी दिक् का मौलिक सहपरिवर्त टेंसर कहलाता है। इसका व्युत्क्रम टेंसर इउ (gij) मौलिक प्रतिचर सदिश कहलाता है।

परिमाण तास(ds2) का मान धन हो और (n) शून्य हो, इसके लिए कल्पना करते हैं कि द्विघात अवकल रूप इउ ताय ताय[gij dxi dxj] घनातमक निश्चित (positive definite) है। चूँकि कोई द्विघात अवकल रूप विचित्र (singular) नहीं हो सकता, अत: ज (g) का मान शून्य नहीं हो सकता। चूँकि अवकल रूप धन और साथ ही निश्चित है, इस कारण (g) अनिवार्यत: धनात्मक है।

यदि (xi) किसी वक्र (C) के किसी बिंदु के निर्देशांक हों, तो श्किसी एकल (unit) प्रतिचर सदिश के अवयव होते हें। इस सदिश का मान वक्र के किसी बिंदु पा (P) पर उस बिंदु पर वक्र का एकल स्पर्शी (Unit tangent) कहलाता है। यदि किसी विंदु पा (P) के दो विभिन्न अवकल समुच्चयों ताय(dxi) और दय(dxi) पर विचार करें, तो ज्ञात होगा कि रीमानी दिक् में, जहाँ मौलिक रूप धनात्मक निश्चित है, उस बिंदु पर दिशाओं के बीच का कोण अवकलों के दो समुच्चयों से निम्नलिखित संबंध द्वारा निर्धारित होता है :

कोज्य q =

= इ उ

= gij

रीमानी (Vn) के निर्देशांक बहुविम पृष्ठों (hypersurfaces) से परिबद्ध मूलतत्व का आयतन ताद (d v), जो प्राचलिक मानों (parameter values) , य + ताय; य, य + ताय,....... , य + ताय[x1, x1 + dx1; x2, x2+ dx2;.......xn, xn + dxn]) का तदनुरूपी होता है, निम्नलिखित सूत्र से व्यक्त किय जाता है :

ताद = ताय ताय......ताय

[d v = dx1 dx2 .......dxn]

यह व्यंजक चर है। के परिमित क्षेत्र क्ष (R) का आयतन इस सूत्र से व्यक्त किया जाता है :

= ताय ताय........ताय

[v = dx1 dx2......dxn]

अब हम (n) एक मानवाले क्ष (f) फलनों के समुच्चय क्ष (, य.....,य) [f (x1, x2.....xn)], जहाँ (i) = १, २... (n) है, क्ष (f) का परीक्षण करेंगे जिनके फलनिक सारणिक (functional determinants) शून्य नहीं है। ऐसी स्थिति में समीकरणों का समुदाय।

= क्ष (, य,.....,य [xi = fi (x1, x2,....xn)]- (2) का हल इस रूप में किया जा सकता है :

= f (-, य-,.....,य [xi = f (x-1, x-2,....x-n)] समीकरण (२) निर्देशांकों के रूपांतरण को निश्चित स्पष्ट करता है।

यदि मौलिक द्विघात रूप इउ ताय ताय (gij dxi dxj) किसी खास निर्देशांक पद्धति र (yi) में घटकर अवकलों के वर्गों के योग का रूप ले और

तास=

हो, तो मीट्रिक और दिक् यूक्लिडी (Euclidean) कहलाता है, और तदनुरूपी ज्यामिति -विमा की यूक्लिडी ज्यामिति कहलाती है। र निर्देशांक, जो लंबकोणीय कार्तीय (orthogonal cartesian) निर्देशांकों की विशेष अवस्था होती है, यूक्लिडी निर्देशांक कहलाते हैं। यह सिद्ध किया जा सकता है कि रीमानी (Vn) को सदा म- (m-) विम यूक्लिडी दिक् (Sm) में निमज्जित (immersed) माना जा सकता है, जब कि > (+१) [m > n (n+1)

रीमानी दिक् (Vn) में जिओडेसिक (Geodesic) को उस वक्र के रूप में निश्चित स्पष्ट किया जा सकता है जिसकी के सापेक्ष सभी बिंदुओं पर पहली वक्रता (first curvature) शून्य है। जिओडेसिकों द्वारा संतुष्ट होनेवाले अवकल समीकरण निम्नलिखित समाकल पर आयलर अनुबंधों (Euler's conditions) के अनुप्रयोग से प्राप्त होते हैं :

और यह

होता है, जिसमें श्और उसके पहले व्युत्पन्नों (derivatives) के फलन हैं।

किसी बिंदु पा (P) पर दो दिशाओं पर विचार किया जाए, जिसके संगत सकल सदिश पी (P) और फी (q) हैं। ये पा (P) पर दिशाओं की कूर्चिका (pencil) निर्धारित करते हैं, जिनके एकल सदिश के अवयव इस रूप के होते हैं :

टं = a पी + b फी[ ti = api + b qj ]

जहाँ a, b प्राचाल हैं। द (Vn) के जिओडेसिक, जो इस दिशाओं की कूर्चिक में से गुजरते हैं, (Vn) में जिओडेसिक पृष्ठ का निर्माण करते हैं। बिंदु पा (P) पर इस पृष्ठ की गॉसियन वक्रता (Gaussian curvature) संबद्ध कूर्चिका के लिए द(Vn) की रीमाननी वक्रता कहलाती है। इस दिशाओं और चौथी कोटि के टेंसर के अवयवों (जिसमें फलन ) श्और उनके प्रथम व्युत्पन्न (derivatives) सम्मिलित है) में व्यक्त की जाती है। इसे रोमानी वक्रता टेंसर कहते हैं। यदि रीमानी वक्रता टेंसर के सभी अवयव शून्य हों, तो दिक् को चपटा (Flat) कहते हैं। शूर (Schur) ने सिद्ध किया कि यदि हर एक बिंदु पर किसी दिक् की रीमानी वक्रता, वरण किए हुए दिक् विन्यास (orientation) पर निर्भर न हो, तो वह उस दिक् में सर्वत्र स्थिर होती है। ऐसे दिक् को स्थिर वक्रता का रीमानी दिक् कहते हैं।

रीमानी ज्यामिति में महत्वपूर्ण योगदान ब्यांकी (Bianchi), बेल्ट्रेनी (Beltreni), क्रिस्टोफेल (Christoffel), रिकी (Ricci) आदि ने किए। इन योगदानों में रीमानी दिक् की उपसमष्टि (susbspace) का अध्ययन भी शामिल है। उपसमष्टि के वक्रों में जिओडेसिक, वक्रता की रेखाएँ, उपगामी रेखाएँ (asymptotic lines), वक्रों की संयुग्मी पद्धति हैं, जो कि सामान्य दिक् के इन वक्रों के सामन्यीकरण हैं। आइंस्टाइन ने अपने गुरुत्व नियम के गणितीय व्यंजक में रिकी टेंसर का उपयोग किया, जिससे रीमानी ज्यामिति में शोध करनेवालों को बड़ी प्रेरणा मिली।

यादृच्छिक (arbitrary) दिक् में सदिशों की समांतरता (parallelism) के संबंध में रीमानी दिक् को महत्वपूर्णा योगदन करने का श्रेय लेवीसिविटा (Levicivita) को है। ऐसे दिक् में संमातरता परम (absolte) नहीं है, बल्कि उस वक्र के सापेक्ष है, जो सादिशों के अनुप्रयोग बिंदुओं (points of application) को मिलाती है। सजातीय योजित (Affinely connected) पिंडों की ज्यामिति में हेसेनबर्ग (Hessenberg) ने बहुत स्थूल रूप से रीमानी ज्यामिति के सामान्यीकरण का संकेत किया था। इन ज्यामिति में रीमानी मीट्रिक की आवश्यकता नहीं होती और उसमें ऐसा कोई टेंसर नहीं होता जिसके पदों में किसी सदिश का परिमाण निश्चित स्पष्ट किया जाए। इसके स्थान पर निर्देशांकों के कुछ फलन हैं जो दूसरे प्रकार के क्रिस्टोफेल संकेतों के तदनुरूपी हैं। इन्हें अफाइन (affine) संबंधी गुणांक कहते हैं। संगत दिक् अफाइन रूप से संबद्ध, या अफाइन दिक् कहलता है। रीमानी ज्यामिति का दूसरा सामान्यीकरण फिंस्लर (Finsler) ज्यामिति है, जिसमें रीमानी ज्यामिति को एक निर्देशांकों और अवकलों के अधिक व्यापक फलन फा (य, ताय) [F (xdx)] द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है। वील (Weyl), वेल्वेन (Velben), आइसेनहार्ट (Eisenhart), कार्बन (Carbon) आदि ने अफाइन और प्रक्षेपी (Projective) ज्यामिति को महत्वपूर्ण योगदान दिया है। (प्रभुदास शाह)