रीज डेविड्स, टी.डब्ल्यू. (१८४३-१९१७) इक्कीस वर्ष की उम्र में सिंहल सिविल सर्विस में प्रविष्ट हुए। राज्याधिकारी रहने की स्थिति में ही बौद्ध धर्म तथा पालि साहित्य के अध्ययन अध्यापन में गहरी दिलचस्पी ली। इसके बाद आप इंग्लैंड वापस लौटकर बैरिस्टरी करने लगे। तदनंतर रॉयल एशियाटिक सोसायटी में कार्य किया।
१८८२ से १९१२ तक श्री रीज डेविड्स लंदन के विश्वविद्यालय में पालि तथा बौद्ध साहित्य के प्रोफेसर रहे। १९०४ में उन्हें मानचेस्टर में धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन का प्राध्यापक नियुक्त किया गया। इस पद पर वह १९१५ तक बने रहे।
अपने जीवन के अंतिम पाँच छह वर्षों में आपको काफी शारीरिक कष्ट रहा। लेकिन आप उसकी उपेक्षा कर जीवन के अंतिम क्षण तक अपने नियत कार्य में लगे रहे।
उनका एक ही पुत्र था, जिसने १९१७ में फ्रांस की युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त की। श्री रीज डेविड्स के जीवन में उनके हृदय पर लगा यही सबसे बड़ा आघात था।
इसमें कोई संदेह नहीं कि श्री रीज डेविड्स अपने समय के श्रेष्ठ विद्वानों में से एक थे। आप बड़े ही विद्याव्यसनी थे। १८७७ ई. में आपने अपना प्रथम पांडित्यपूर्ण अध्ययन 'सिंहल द्वीप के सिक्के और माप तौल' के रूप में उपस्थित किया। इसके तुरंत बाद ही आपकी युगांतरकारीं कृति बौद्ध धर्म प्रकाशित हुईं। १९०३ में आपका प्रसिद्ध ग्रंथ 'वुद्धिस्ट इंडिया' (बौद्ध भारत) प्रकाशित हुआ, जो ऐतिहासिक तथ्यों की दृष्टि से अत्यंत प्रामाणिक तथा लेखन शैली की दृष्टि से अत्यंत आकर्षक है।
१८९६ में ही आपके बौद्ध धर्म संबंधी अमरीकी व्याख्यान प्रकाशित हुए और १९०८ में उनकी अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक 'बौद्ध धर्म' प्रकाश में आई। इसमें बौद्ध धर्म के आरंभिक युग का विशद विवेचन है।
इन ग्रंथों को लिख सकने के लिए श्री डैविड्स को समस्त पालि त्रिपिटक का पारायण करना पड़ा। उन्होंने उसके अधिकांश ग्रंथों को स्वसंस्थापित पालि टेक्स्ट सोसायटी द्वारा रोमन अक्षरों में मुद्रित भी कराया।
श्री रीज डेविड्स स्वतंत्र रचयिता ही न थे, वरन् अच्छे अनुवादक भी थे। सुत्तपिटक के संपूर्ण दीघनिकाय का तीन खंडों में प्रकाशित अंग्रेजी अनुवाद इसका प्रमण है। वे अपने जीवन काल में ही इस कार्य को पूरा हुआ देखना चाहते थे। उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई, जब १९२१ में इसका अंतिम खंड प्रकाशित हो गया। इस कार्य में उन्हें अपनी विदुषी पत्नी श्रीमति रीज़ डेविड्स का भी बहुत सहयोग मिला।
१८८१ में उन्होंने 'बुद्धिस्ट बर्थ स्टोरीज' (= बौद्ध जातक कथाओं) के नाम से जातकसंग्रह का प्रथम खंड छपवाया जिसकी भूमिका में उन्होंने इस जनकथा साहित्य के एक देश से दूसरे देशों तक पहुँचने की कथा बड़े विस्तार से कही।
१८८१ से १८८५ तक के पूरे चार वर्ष श्री रीज डेविड्स ने मिलिंवप्रश्न तथ विनयपिटक के दोनों ग्रंथों महावग्ग तथा चूलवग्ग का अनुवाद करने में लगाए। यह कार्य बड़े ही परिश्रमपूर्वक और अत्यंत उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से किया गया। इसमें से दूसरे कार्य ने आपके मित्र श्री एच. ओल्डनबर्ग आपके सहयोगी रहे।
स्वतंत्र लेखक और अनुवादक के कार्य जैसा ही महत्वपूर्ण कार्य उनका पालि-अंग्रेजी के निर्माण का कार्य भी था। इससे पहले श्री आर. सी. चिल्डर्स का पालि-अंग्रेजी-कोश ही प्राप्य था। पालि अंग्रेजी के प्रथम कोश की हैसियत से उसका बड़ा मूल्य रहने पर भी वह बहुत संतोषजनक न था। श्री रीज डेविड्स उसकी अपेक्षा एक अधिक वैज्ञानिक, अधिक उपयोगी, बड़े कोश का निर्माण हुआ देखना चाहते थे। पूरे ४० वर्ष तक वह इसके लिए सामग्री जुटाते रहे। मार्ग में अनेक ऐसी बाधाएँ आईं जिनके कारण १९१५ से पहले यह कार्य इस नए रूप से आरंभ न किया जा सका।
इस कोश को वे अपने जीवनकाल में संपूर्ण हुआ न देख सके। इसे उनके अन्यतम घनिष्ठ सहयोगी डा. डब्ल्यू. स्टेड ने पूरा किया। (भदंत आनंद कौसल्यान)