अंगिरस या अंगिरा वज्रकुलैेंत्पन्न एक प्रसिद्ध वैदिक ऋषि हैं जिनका उल्लेख मन, ययाति, दध्यच्, प्रियमेघ, कण्व, अत्रि, भृगु आदि के साथ मिलता है। इनकी गणना सप्तर्षियों तथा दस प्रजापतियों में भी की जाती है। कालांतर में अंगिरा नाम के एक प्रख्यात ज्योतिर्विद् तथा स्मृतिकार भी हो गए हैं। नक्षत्रों में बृहस्पति यही है और देवताओं के पुरोहित भी यही है। लगता है, इस नाम के पीछे कई व्यक्तित्व छिपे हुए हैं। अंगिरस शब्द का निर्माण उसी धातु से हुआ है जिससे अग्नि का और एक मत से इनकी उत्पत्ति भी आग्नेयी (अग्नि की कन्या) के गर्भ से मानी जाती है। मतांतर से इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से मानी जाती है। श्रद्धा, शिवा, सुरूपा मारीची एवं दक्ष की स्मृति, स्वधा तथा सती नामक कन्याएँ इसकी पत्नियाँ मानी जाती हैं परंतु ब्रह्मांड एवं वायु पुराणों में सुरूपा मारीची, स्वराट् कार्दमी और पथ्या मानवी को अथर्वन की पत्नियाँ कहा गया है। अथर्ववेद के प्रारंभकर्ता होने के कारण इनकी अथर्वा भी कहते हैं। अथर्ववेद का प्राचीन नाम अथर्वानिरस है। इनके पुत्रों के नाम हविष्यत्, उतथ्य, बृहस्पति, बृहत्कीर्ति, बृहज्ज्योति, बृहद्ब्रह्मन् बृहत्मंत्र; बृहद्भास, मार्कंडेय और संवर्त बताए गए हैं और भानुमती, रागा (राका), सिनी वाली, अर्चिष्मती (हविष्मती), महिष्मती, महामती तथा एकानेका (कुहू) इनकी सात कन्याओं के भी उल्लेख मिलते हैं। नीलकंठ के मत से उपर्युक्त बृहत्कीत्यादि सब बृहस्पति के विशेषण हैं। आत्मा, आयु, ऋतु, गविष्ठ, दक्ष, दमन, प्राण, सद, सत्य तथा हविष्मान् इत्यादि को अंगिरस के देवपुत्रों की संज्ञा से अभिहित किया गया है। भागवत के अनुसार रथीतर नामक किसी निस्संतान क्षत्रिय को पत्नी से इन्होंने ब्राह्मणोपम पुत्र उत्पन्न किए थे। याज्ञवल्क्य स्मृति में अंगिरसकृत धर्मशास्त्र का भी उल्लेख है। अंगिरा की बनाई आंगिरसी श्रुति का महाभारत में उल्लेख हुआ है (महा. ८, ६९-८५)। ऋग्वेद के अनेक सूक्तों के ऋषि अंगिरा हैं।

अंगिरस नाम के एक ऋषि और भी थे जिन्हें घोर आंगिरस कहा जाता है और जो कृष्ण के गुरु भी कहे जाते हैं। (कै. चं. श.)