रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना, एक अप्रैल १९३५ को अंशधारियों के बैंक के रूप में उस समय के विदेशों के गण्य मान्य केंद्रीय बैंकों के आदर्श के आधार पर की गई। इसका उद्देश्य मुद्रा तथा साख, दोनों का नियंत्रण एक ही केंद्रीय संख्या के हाथ में सौंपना था, जिसकी आवश्यकता बहुत दिनों से महसूस की जा रही थी। सरकार और उसकी नीतियों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए १९४५ में इसका राष्ट्रीयकरण किया गया। रिज़र्व बैंक के १९४८ के विधान (ट्रांस्फर टु पब्लिक ओनरशिप) ने केंद्रीय सरकार को यह अधिकार दे दिया कि वह बैंक के गवर्नर से परामर्श करने के पश्चात् ऐसे निर्देश निर्गमित कर सके जो वह जनहित की दृष्टि से आवश्यक समझे। विधान के अंतर्गत केंद्रीय सरकार सेंट्रल बोर्ड के समस्त संचालकों को मनोनीत करती है जिनमें गवर्नर तथा उप-गवर्नर भी शामिल हैं। क्षेत्रीय मंडलों के भी सब सदस्य केंद्रीय सरकार द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। बैंक का आंतरिक संगठन बैंक के कार्यकलाप के आयतन तथा सीमा में विशेष प्रसार की माँग की पूर्ति को गतिशीलता प्रदान करने के लिए किया गया।

कर्तव्य और कार्य - बैंक का मुख्य कार्य, जैसा रिज़र्व बैंक ऑव इंडिया के विधान की पूर्वपीठिका में उल्लिखित है, यह है कि वह भारत में मौद्रिक स्थायित्व की प्राप्ति के दृष्टिकोण से बैंकनोट (कागजी मुद्रा) के निर्गमन का, तथा उसके लिए संरक्षित भंडार रखने की व्यवस्था को नियमित करने का और सामान्य रूप से यहाँ की मुद्रा तथा साखव्यवस्था का देश के हित में संचालन करने का कार्य करे। इसके लिए नोट जारी करने का पूर्ण अधिकार एकमात्र रिजर्व बैंक को प्राप्त है। यह व्यापारिक बैंकों के तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं के, जिनमें राज्य सहकारी बैंक भी शामिल है, बैंक का काम करता है। मौद्रिक ढाँचे का नियमन करने के लिए बैंक को केवल सधारण साख नियंत्रण के ही साधन प्राप्त नहीं हैं बल्कि 'बैंकिंग कंपनीज विधान, १९४९' के अंतर्गत उसे विशिष्ट तथा प्रत्यक्ष साख का नियमन करने का बृहत् अधिकार भी प्राप्त है। बैंक सरकार के बैंकर का भी कार्य करता है। रिजर्व बैंक ऑव इंडिया के संविधान की धारा २० तथा २१ के अनुसार बैंक को भारत सरकार का बैंक संबंधी काम काज संपन्न करने का अधिकार तथा दायित्व प्राप्त है कि तदनुसार उसे सरकार की ओर से खाते में रुपया जमा करना और इसकी ओर से भुगतान करने तथा विनिमय का भी संचालन करना, रुपया बाहर भेजना तथा अन्य बैंक संबंधी कार्य करना पड़ता है। बैंक को सार्वजनिक ऋण की देखरेख करने तथा नए ऋण के निर्गमन और खजाने की हुंडियों की व्यवस्था करने का अधिकार भी प्रदान किया गया है। बैंक उसी प्रकार के कार्य राज्य सरकारों के लिए भी करता है जो उनके साथ हुए समझौतों के अनुसार उसे सौंपे जाते हैं। रुपए के विनिमय मूल्य को स्थिर रखने के लिए बैंक को देश के अंतरराष्ट्रीय कोष की सुरक्षा तथा व्यवस्था का अधिकार भी दिया गया है। रिज़र्व बैंक ऑव इंडिया के विधान की धारा ४० के अंतर्गत बैंक किसी भी आधिकारिक व्यक्ति से विदेशी मुद्रा का क्रय-विक्रय समय-समय पर सरकार द्वारा विनिश्चित दरों तथा शर्तों पर कर सकता है। विदेशी विनिमय नियम १९४७ विधान का बैंक उन नीतियों के अनुसार कार्यान्वित करता है जो सरकार द्वारा बैंक के परामर्श से निर्धारित होती हैं। विदेशी मुद्रा के नियंत्रण का यह आशय नहीं है कि बैंक देश के आयात और निर्यात व्यापार का भी नियंत्रण करता है। यह तो केंद्रीय सरकार का उत्तरदायित्व है।

बैंक अदृश्य लेनदेनों से संबंधित नियमों का भी संचालन करता है। विधान के अंतर्गत रिज़र्व बैंक ने कतिपय व्यापारिक बैंकों को विदेशी विनिमय का कार्य करने का लाइसेंस दे दिया है। देश का केंद्रीय बैक होने के कारण तथा अन्य बैंकों और मुद्रा बाजार से घनिष्ठ संपर्क होने के कारण बैंक इस परिस्थिति में है कि वह सरकार को आर्थिक तथा वित्तीय समस्याओं के संबंध में यथोचित सलाह दे सके। इस कार्य की सिद्धि के लिए एकत्र करने पड़ते हैं, मौदिक और तत्संबंधी समस्याओं का अध्ययन करना पड़ता है और देश के भीतर तथा बाहर की गतिविधियों तथा घटनाओं पर नजर रखनी पड़ती है। बैंक अपनी जाँच और अनुसंधान के परिणामों को मासिक विवरणों के द्वारा जनता को उपलब्ध कराता है तथा बहुत से प्रतिवेदन या विवरण प्रकाशित करता है जैसे मौद्रिक तथा वित्तीय स्थिति संबंधी, भारत में बैंकिग की प्रगति तथा उन्नति संबंधी रिपोर्ट इत्यादि।

साख नियंत्रण - मुद्रा की पूर्ति या उपलब्धि को नियमित करने के लिए बैंक के अधिकार में विभिन्न साधन हैं जैसे - बैंक दर जिसका प्रयोग बैंकों की ऋण नीति के साथ किया जाता है, खुले बाजार की क्रियाएँ, संरक्षित कोष का घटता-बढ़ता अनुपात, विशिष्ट साख नियत्रण, बैंकिंग संबंधी अन्य मामलों या नैतिक प्रलोभन (Moral suasion) के संबंध में निदेश जारी करना। उदाहरणार्थ, वह अन्य बैंकों को उन समस्याओं के संबंध में अपने विचारों से अवगत कराता है जो अर्थव्यवस्था में समय समय पर उत्पन्न होती है। वह उन्हें स्वयं ही उचित कार्यवाही के लिए प्रोत्साहित करता हैं। जो हो, यहाँ यह बात स्पष्ट कर देनी चाहिए कि व्यवहार में मुद्रा की आपूर्ति का नियमन पूर्णत: या अधिकांशत: बैंक के ही हाथ में नहीं है। यह बहुलांश में सरकार की आय-व्यय संबंधी क्रियाओं द्वारा प्रभावित होता है जिसके ऊपर बैंक का कोई नियंत्रण नहीं है, यद्यपि बैंक को इस विषय में सरकार को परामर्श देने का अवसर मिलता रहता है। देश के अंतरराष्ट्रीय सौदे के दबाव पर भी यह अवलंबित रहता है जो मुद्रा आपूर्ति का एक दूसरा निर्णायक घटक है। स्थूल रूप से सरकार की आर्थिक नीति का व्यापक प्रतिरूप का साँचा केंद्रीय बैंक की अपनी कार्यविधियों की तुलना में इस दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण हैं, विशेषत: इसीलिए कि बैंक द्वारा सरकार को उधार देने के विस्तार की कोई वैधानिक सत्ता नहीं है। अत: बैंक के साथ सरकार का सहयोग आवश्यक है।

बैंक दर - १९३६ में हुए अस्थायी परिवर्तन के सिवा बैंक रेट १९५१ के मध्य नवंबर तक ३ प्रतिशत पर अपरिवर्तित रही है, जबकि मुद्रास्फीति संबंधी परिस्थितियों के संदर्भ में बैकं दर बढ़ाकर ३।। प्रतिशत कर दी गई। बैंक दर में परिवर्तन के साथ बैंक ने अपनी खुले बाजार की नीति में भी एक महत्वपूर्ण परिवर्तन पाया। यह विदित हुआ कि सरकारी ऋणपत्रों से होनेवाली आमदनी को स्थिर बनाए रखने की नीति के कारण बैंकों को सरकारी ऋणपत्र खरीदकर मुद्रा अर्जित करना सुलभ हो गया जिससे वे अपने ग्राहकों को बिना संकोच के अधिक धन उधार देने में सक्षम हो जाए। इसलिए रिजर्ब बैंक ने उनका इस तरह समर्थन करने से (कुछ अपवादों को छोड़कर) विरत रहने का निश्चय किया और इसे स्थान में एक, नई योजना हुंडी बाजार योजना, चालू की। इसके स्थान में एक नई योजना, हुंडी बाजार योजना, चालू की। इसके अंतर्गत वे अपने ग्राहकों को दिए गए अग्रिम धन को मुद्दती हुंडियों में परिवर्तित कर देते थे तथा रिज़र्व बैंक से उपर ऋण ले लेते थे। इस योजना के अंतर्गत सुविधाओं के प्रयोग के प्रोत्साहन के लिए बैंक ने योजना के अंतर्गत लिए गए ऋणों पर ३ प्रतिशत व्याज लेने का प्रस्ताव किया जबकि बैंक दर ३।। प्रतिशत थी।

द्वितीय पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत, निजी कारखानों में धनविनियोग की मात्रा बढ़ जाने तथा वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होने से बैंकों ने व्यापारियों को अधिक मात्रा में ऋण लेना पड़ा। ऐसी स्थिति में मौद्रिक अनुशासन में पुन: कड़ाई करने की आवश्यकता प्रतीत हुई। मार्च, १९५६ में हुंडी बाजार योजना के अंतर्गत अग्रिम राशि पर ब्याज की दर ३ से बढ़ाकर ३। प्रतिशत और फिर नवंबर में ३।। कर दी गई। मई १६, सन् १९५७ का बैंक दर ३।। प्रतिशत से बढ़ाकर ४ प्रतिशत तथा साथ ही साथ मुद्दती बिलों (यूज़न्स बिल) पर स्टांप ड्यूटी घटाकर १ प्रतिशत के १/५ भाग कर दिए जाने से योजना के अंतर्गत उधार की प्रभावकारी सूद दर ४.२० प्रतिशत हो गई।

क्रमिक व्याज की दर - अक्टूबर, १९६० में एक निर्धारित आधारभूत खंडदर (स्लैब) के ऊपर रिजर्ब वैंक ने एक दंड दर की प्रणाली को अपनाकर अपनी उधार नीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर दिया। इस क्रमिक उधार देर की प्रणाली के अंतर्गत सरकारी प्रभूतियों पर तथा हुंडी बाजार योजना के अंतर्गत रिजर्व बैंक से बैंकों द्वारा उधार लेने के लिए कोटा निश्चित कर दिया गय। इस कोटा के ऊपर रकम उधार लेने से दंड दर (पीनल रेट्स) लागू किए गए प्रारंभ से तीन खंड दर (स्लैब) थे। उदाहरण के लिए (१) बैंक दर पर; (२) बैंक दर के ऊपर १ प्रतिशत से अधिक पर तथा (३) बैंक दर के ऊपर २ प्रतिशत अधिक पर। प्रथम दो खंड दरों के लिए कोटा निर्धारित कर दिया गया, जबकि अंतिम खंड दर के अंतर्गत असीमित रकम उधार देना संभव रखा गया। जुलाई, १९६२ में यह प्रणाली चार खंडदरों में संशोधित कर दी गई।

१९६२-६३ के कराबोरी मौसम के प्रारंभ में पुन: तीन खंडदर की नीति लागू कर दी गई किंतु तीसरे खंड में उधार लेने की अधिकतम सीमा निश्चित कर दी गई। किसी भी प्रकार, बैंकों की विशेष परिस्थितियों में, यदि उन्हें सहायता अपेक्षित हैं, दंड दर पर सहायता देने का निश्चय कर दिया गया। २ जनवरी, १९६३ को प्रचलित ब्याजदरों के ढाँचे को सूत्रबद्ध करने के ख्याल से, जो खंडदर प्रणाली के क्रमिक संशोधन से चालू हो गई थी, बैंक दर ४ प्रतिशत से बढ़ाकर ४ प्रतिशत कर दी गई। साथ ही त्रिसूत्रीय खंडदर प्रणाली द्विसूत्रीय खंड प्रणाली में बदल दी गई।

अंत में साल भर तक मुद्रा की आपूर्ति में तेजी से विस्तार होने तथा मूल्यों पर बढ़ते हुए दबाव के सिलसिले में सितंबर २५, सन् १९६४ को घोषित साख नियंत्रण के उपायों का भी जिक्र किया जा सकता है। बैंक दर ५ प्रतिशत तक बढ़ा दी गई। उसी समय से बैंक ने उधार देने की वह योजना वापस ले ली जिससे कोटा प्रणाली द्वारा अनुसूचित बैंकों को ऋण देने का नियमन किया जाता था। उसके बदले बैंक ने ऐसी प्रणाली को प्रारंभ किया जिसका उद्देश्य था क्रमिक उच्च व्याजदर के आधार पर केंद्रीय बैंक से उधार ली गई राशि के प्रयोग में मितव्ययिता लाना।

इसके अनुसार कोई भी बैंक रिजर्व बैंक से बैंक दर पर तब तक उधार ले सकता है जब तक इसकी देय राशि को चुका सकने की विशुद्ध क्षमता २८ प्रतिशत या उसके ऊपर हो। देय भुगतान की विशुद्ध क्षमता का आशय उस अनुपात से है जो (१) रिजर्व बैंक ऑव इंडिया तथा अन्य बैंकों के पास जमा उक्त बैंक की रकम, (२) सरकारी प्रतिभूतियों में विनियुक्त धनराशि में से रिजर्ब बैंक ऑव इंडिया तथा स्टेट बैंक ऑव इंडिया से ली गई उधार रकम के घटाने पर बची अवशिष्ट धनराशि (३) तथा उसकी तात्वकालिक माँग एवं मुद्दती दायित्वों के बीच विद्यमान हो। इस भेदकारी व्याज दर की (Differential rate) प्रणाली को अधिकतम प्रभावकारी बनाने में निश्चितता प्रदान करने के लिए रिजर्व बैंक ऑव इंडिया ने पहली बार यह प्रतिबंध लगा दिया है कि बड़े भारतीय बैंक या विदेशी बैंक पेशगी दिए गए पर या जमा से अधिक की हुंडियों पर तथा बट्टे की रकमों पर ९ प्रतिशत से अधिक सूद नहीं ले सकते। चूँकि अल्पकालिक जमा राशियों तथा दीर्घकालिक जमा राशियों के व्याज की दर में पर्याप्त अंतर नहीं था, जिससे रुपया जमा करनेवालों को अधिक प्रोत्साहन नहीं मिलता था, इसलिए रिजर्ब वैंक ने यह निर्देश दिया है कि १४ दिनों तक जमा रहनेवाली धन राशियों पर व्याज की दरें चालू खातों पर की दरों से अधिक ऊँची नहीं होनी चाहिए, जबकि १५ दिन से ४५ दिन तक और ४६ से ९० दिन तक के लिए जमा राशि पर सूद की दरें क्रमश: १/२ तथा १/२ प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। बैंक ने यह भी संकेत किया है कि दीर्घावधिक जमा राशि के संबंध में वह, ९१ दिन तक जमा राशि के लिए ४ प्रतिशत की न्यूनतम दर पर आधारित, व्याज दर का अनुक्रम ठीक समझता है।

बैकों की आरक्षित जमा का परिवर्तनशील अनुपाल - १९५६ तक रिजर्व बैंक को अनुसूचित बैकों की आरक्षित जमा की आवश्यकताओं में परिवर्तन करने का अधिकार नहीं था। यह जमा माँग देयधन पर ५ प्रतिशत तथा मुद्दती देयधन पर २ प्रतिशत तक सीमित थी। अक्टूबर १९५६ में बैंक को माँग देयधन का २० प्रतिशत तक तथा मुद्दती देयधन का ८ प्रतिशत तक जमा कराने का अधिकार प्राप्त हुआ। ग्राहकों की जमा राशि में वृद्धि होने पर विधिविहित सीमा के ऊपर १०० प्रतिशत तक अतिरिक्त रिजर्व की माँग करने का अधिकार भी रिजर्व बैंकों को दिया गया।

ये अधिकार मार्च १९६० में उपयोग में लाए गए जबकि बैकों की देयता में तेजी से वृद्धि हुई। तब अनुसूचित बैंकों को ११ मार्च १९६० से न्यूनतम वैधानिक संचिति से ऊपर २५ प्रतिशत की वृद्धि को कायम रखने को कहा गया। ६ मई १९६० को इसे बढ़ाकर ५० प्रतिशत तक कर दिया गया। १९६२ में बैंकों की जमा राशि में मुद्दती जमा राशि की बढ़ती हुई आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर रिजर्व की आवश्यकताओं के लिहाज़ से माँग देयधन तथा मुद्दती देयधन में अतंर दूर कर दिया गया और अब न्यूनतम आवश्यकता सम्मिलित रूप से माँग देयधन तथा मुद्दती देयधन की ३ प्रतिशत पर स्थिर कर दी गई किंतु रिजर्व बैंक उसे बढ़ाकर १५ प्रतिशत कर सकता था।

विवेकपूर्ण नियंत्रण की नीति - हाल के वर्षों में विवेकपूर्ण नियंत्रण की नीति अल्पमात्रा में उपलब्ध वस्तुओं के अपसंचय पर रोक लगाने के उद्देश्य से प्रयोग में लाई गई थी। जिन वस्तुओं पर ये नियंत्रण लगाए गए वे या तो उपयोग की आवश्यक वस्तुएँ थीं या निर्यात के लिए महत्वपूर्ण मदें थीं (खाद्यान्न, तेलहन, चीनी तथा वनस्पति आदि)।

विकास और उन्नति के कार्य

बैंकिंग - मौद्रिक नीति को प्रभाव पूर्ण ढंग से कार्यान्वित करने के लिए, एक अच्छी उन्नतिशील व्यापारिक बैंकिं पद्धति का होना आवश्यक है। इसलिए रिजर्व बैंक ने अनेकानेक तरीकों से बैंकिंग के ढाँचे को संघटित करने तथा मजबूत बनाने की ओर विशेष ध्यान दिया है। बैंकिंग कंपनीज ऐक्ट के अंतर्गत रिजर्व बैंक को व्यापारिक बैंकों के ऊपर निरीक्षण और निगरानी करने का विस्तृत अधिकार प्राप्त है। रिजर्व बैंक क्रमश: आर्थिक रूप से स्वस्थ और विकासक्षम क्षेत्रीय बैंकिंग इकाइयों की स्थापना के लिए प्रयत्न करता आ रहा है, जो बैंकिग इकाइयों की स्थापना के लिए प्रयत्न करता आ रहा है, जो बैंकिंग की क्षेत्रीय आवश्यकताओं की अधिक कुशलता के साथ पूर्ति कर सकें। अधिकतर तो बैंक ने स्वयं ही ऐसी बैंकिंग इकाइयों में विकसित होने की आशा नहीं है, समझा बुझाकर राजी किया है कि वे बड़ी इकाइयों को या तो अपने दायित्वों और संपत्तियों को हस्तांतरित कर दें या अपने का उनमें मिला दें। इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता है कि छोटी इकाइयों का मिलन या एकीकरण आर्थिक रूप से स्वस्थ और सुप्रबंधित इकाइयों के साथ बिना किसी असुविधा के हो। रिज़र्व बैंक समय समय पर निरक्षण करके बैंकों के कार्य पर कड़ी नजर रखता है। बैंकिंग कंपनीज ऐक्ट के अंतर्गत उसे यह अधिकार प्राप्त है कि वह किसी बैंक का किसी भी समय निरीक्षण कर सके।

बैंक ने समय समय पर स्वस्थ बैंकिंग व्यवस्था की अभिवृद्धि करने के लिए ऐसे कानून बनवाने में पहल की है जिनसे जमाकर्ताओं के हितों की सुरक्षा हो सके। किसी बैंक के फेल हो जाने पर रुपया जमा करनेवालों की कुछ सीमा तक सुरक्षा हो सके, इस उद्देश्य से १ जनवरी, सन् १९६२ को रिज़र्व बैंक द्वारा पूर्ण चुकता १ करोड़ रुपए की पूँजी से ''जमा बीमा निगम'' की स्थापना की गई। निगम द्वारा दिए गए बीमे के आवरण से प्रति बैंक में प्रत्येक जमाकर्तां को जमा रकम में से १,५०० रु. तक की सुरक्षा प्राप्त हो जाती है और पाँच जमाकर्ताओं में प्राय: चार को पूर्ण राहत मिल जाती है। रिजर्व बैंक बैंकिंग की शिक्षा देने तथा बैंकों में काम करनेवाले कर्मचारियों की योग्यता और स्तर में सुधार करने के प्रयत्न में सक्रिय भाग लेता है। बैंक ने १९५४ में व्यापारिक बैंकों के निरीक्षणकारी स्टाफ को प्रशिक्षण देने के लिए बैंकरों का ट्रेनिंग कालेज स्थापित किया और वह बैंकों के विभिन्न श्रेणियों के कर्मचारियों के प्रशिक्षण के लिए समुचित पाठ्यक्रम तैयार कराने का भी प्रबंध करता रहा है।

भारत में पिछले १०-१५ वर्षों से रिज़र्व बैंक, राज्य की दूसरी एजेंसियों से मिल जुलकर कार्य करते हुए, कृषि और उद्योगों के लिए ऋण देने की व्यवस्था का विस्तार कन में योगदान करता रहा है।

कृषि के लिए ऋण देने की सुविधा - अत: भारत की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर आधारित है, अत: इस क्षेत्र में साख सुविधाओं के विस्तार तथा समन्वय की अतीव आवश्यकता को ध्यान में रखकर रिजर्व बैंक ऑव इंडिया ऐक्ट सन् १९३५ में एक विशेष कृषि ऋण विभाग स्थापित करने की व्यवस्था की गई। इसका उद्देश्य था विभाग में ऐसे लोगों को नियुक्त करना जो कृषि ऋण के तमाम प्रश्नों का अध्ययन करें और जो केंद्रीय सरकार, राज्य सरकारों, राज्य सहकारी बैंकों तथा अन्य बैंकिंग संगठनों द्वारा सलाह के लिए उपलब्ध हो सकें। विभाग का एक काम यह भी रखा गया था वह कृषि ऋण की व्यवस्था के रिजर्व बैंक के कार्यों और राज्य सहकारी बैंकों तथा इस काम में लगे अन्य बैंकों के संबंधों में सामंजस्य स्थापित करे।

यद्यपि प्रारंभ में परिस्थितियों के कारण रिज़र्व बैंक इस दिशा में कोई सक्रिय भाग नहीं ले सका, लेकिन देश के स्वतंत्र होने, बैंक का राष्ट्रीयकरण हो जाने तथा पंचवर्षीय योजनाओं के बाद उसकी कार्यविधि में नया परिवर्तन हुआ है। केंद्रीय बैंक के रूप में रिज़र्व बैंक ने यह सुनिश्चितता प्रदान करने का प्रयत्न किया है कि कषि को, अर्थव्यवस्था के अन्य और भागों की तरह, उत्पादन के लिए पर्याप्त साख या ऋण की व्यवस्था की जाए। इस कार्य के लिए बैंक ने प्रत्येक राज्य में संघात्मक ढंग की सहकारी साख व्यवस्था को विकसित करने का प्रयत्न किया है जिसमें सबसे ऊपर प्रधान राज्य सहकारी बैंक तथा जिला स्तर पर जिलों का मुख्य सहकारी बैंक, ग्रामीण आधार पर प्रारंभिक सहकारी समितियाँ हों।

कुछ समय बाद बैंक ने निर्देश कमेटी के अंतर्गत एक अखिल भारतीय ग्रामीण कृषि ऋण के सर्वेक्षण का संगठन किया। इस कमेटी का प्रतिवेदन दिसंबर, १९५४ में प्रकाशित हुआ था। उसी की सिफारिशों पर द्वितीय और तृतीय पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत ग्रामीण ऋण व्यवस्था संबंधी हाल के प्रोग्राम आधारित हैं। सम्पूर्ण योजना के ये चार पहलू थे - (१) विभिन्न स्तरों पर राज्य की साझेदारी से सहकारी कृषि ऋण व्यवस्था का विकास, (२) सहकारी विपणन (मार्केटिंग) तथा निर्माण प्रणाली और अन्य ग्रामीण आर्थिक प्रक्रियाओं में सुधार, जैसे संग्रह और गोदाम की व्यवस्था, (३) सहकारी समितियों के लिए योग्य कर्मचारियों के प्रशिक्षण की सुविधा तथा (४) इंपीरियल बैंक का राष्ट्रीयकरण जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधा का तेजी से विस्तार किया जा से। इस योजना में रिजर्व बैंक को एक महत्वपूर्ण भूमिका निवाहने का भार सौंपा गया जिससे इसे कार्यों का, जैसे आर्थिक सहायता प्रदान करने, सलाह देने तथा सहयोग के कार्यों का विस्तार तथा अनेक रूपों में विभाजन बढ़ गया।

रिजर्व बैंक के वित्तीय सहायता प्रदान करने से संबंधित कार्यों में सर्वप्रथम राज्य सहकारी बैंकों को मौसमी कृषि कार्यों के लिए तथा फसलों के विपणन के लिए सहकारी कागजों की जमानत पर, या राज्य सरकार की गारंटी पर, या सरकारी प्रतिभूतियों पर अल्पावधिक के वित्तीय सहायता की व्यवस्था, रियायती दर से, जैसे कि बैंक दर से २ प्रतिशत कम पर, करना है। बैंक राज्य सहकारी बैंकों को माध्यमावधि के भी कृषि कार्यों के लिए, जेसे बैलों की खरीद, भूमि का सुधार तथा कुएँ खुदवाने के लिए बैंक दर से डेढ़ प्रतिशत कम पर प्रदान करता है। बैंक राज्य सहकारी बैंकों को मान्यताप्राप्त कुटीर उद्योग धंधों को दुबारा धन लगाने के लिए अल्पावधि वित्तीय सहायता प्रदान कर सता है तथा इस व्यवस्था के अंतर्गत दस्तकारी बुनकर सहकारी समितियों को वित्तीय सहायता प्रदान करता आ रहा है। फिर बैंक राज्य सरकारों को कम सूद की दर पर दीर्घावधिक ऋण प्रदान करता है ताकि वे ऋण देनेवाली सहकारी संस्थाओं के हिस्से खरीद सकें। अंत में रिजर्व बैंक सहकार समितियों को नि:शुल्क या सुविधाजनक दरों पर रुपया भेजने की सुविधा प्रदान करता है।

ग्रामीण कृषि ऋण सर्वेक्षण कमेटी की एक सिफारिश के अनुसार १९५६ में रिजर्व बैंक ने जो राष्ट्रीय कृषि ऋण निधि (नैशनल एग्री कल्चरल क्रेडिट फंड) (दीर्घावधि कार्यों के लिए) स्थापित की थी उसी से बैंक राज्य सरकारों को दीर्घावधिक कृषि ऋण और खेती के तथा संबंधित अन्य कार्यो के लिए तथा कुछ विशेष प्रकार के भूमिबंधक बैंकों के ऋणपत्रों की खरीद के लिए मध्यमावधि ऋण प्रदान करता है। इसी तरह बैंक ने एक और राष्ट्रीय कृषिऋण (स्थिरीकरण) निधि की स्थापना की है, जिससे राज्य सहकारी बैंकों को ऐसी परिस्थितियों में मध्यमावधि ऋण प्रदान किया जा सकता है जब अकाल के कारण या अन्य प्राकृतिक विपत्तियों के कारण वे निश्चित तिथियों पर बैंक से लिए गए अल्पावधि कृषिऋणों को भुगतान करने में असमर्थ हो जाए।

रिजवै बैंक उन्नति के भी महत्वपूर्ण कार्य करता है। अपने विधान के अनुसार बैंक कृषिऋण संबंधी प्रश्नों का अध्ययन करता है, जहाँ कहीं भी आवश्यकता पड़े केंद्रीय और राज्य सरकारों तथा सहकारी बैंकों को सलाह देता है तथा इस क्षेत्र में कार्य करनेवाली तमाम एंजसियों में सामंजस्य स्थापित करता है। इस प्रकार पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत सहकारी विकास से संबंधित प्रोग्रामों तथा नीतियों के सामयिक पर्यवेक्षण तथा सूत्रीकरण कार्यों से बैंक का निकट संबंध रहा है। इसके अलावा स्वस्थ आधार पर राज्य व केंद्रीय सहकारी बैंकों के विकास में सहायता देने के लिए तथा उसके द्वारा दिए गए कोष का दुरुपयोग रोकने के लिए बैंक, अपने क्षेत्रीय दफ्तरों द्वारा ऐसे बैंकों का सामयिक निरीक्षण भी करता आ रहा है। चूँकि बैंक को इस कार्य के लिए काई वैधानिक अधिकार नहीं है इसलिए ये निरीक्षण ऐच्छिक आधार पर संचालित किए जाते हैं। फिर भी रिजर्व बैंक की वित्तीय सहायता से स्थापित सहकारी बैंकों के लिए यह शर्त अनिवार्य रखी गई है कि वे इस प्रकार के निरीक्षणों के लिए सहमत हों।

उद्योगों के विकास के लिए वित्तीय सहायता - रिजर्व बैंक ने विशेष एजेंसियों की स्थापना में सहायता प्रदान कर औद्योगिकीकरण में महत्वपूर्ण योगदान किया है। ये एजेंसियाँ, जैसे इंड्रस्ट्रियल फिनेंस कारपोरेशन ऑव इंडिया तथा स्टेट फिनेंशिएल कारपोरेशन ऐसे उद्योगों को मध्यमावधि तथा दीर्घावधि त्रण देंगी तथा पूँजी का भी कुछ अंश एवं उधार की सुविधाएँ प्रदान करेंगी। बैंक उनके, विशेषकर स्टेट फिनेंन्शियल कारपारेशनों के, संगठन तथा कार्यसंचालन में भी सहायता प्रदान करता है। १९५७ में बैंक में विशेषकर इन समस्याओं का समाधान करने के लिए औद्योगिक आर्थिक सहायता देनेवाला विभाग स्थापित किया गया। वित्तीय तथा सगंठनात्मक सहायता पेदान करने के अलावा बैंक स्टेट फिनेंन्शल कारपोरेशनों के कार्यो को श्रेणीबद्ध करने में भी सहायता करता है। बैंक अपने निरीक्षणों द्वारा विशेषकर उनके उधारों तथा अग्रिम धनों के संबंध में, स्वस्थ व्यवहारों तथा परंपराओं को स्थापित करने में मदद देता है। बैंक ने १९५८ में उद्योगों को पुन: वित्तीय सहायता प्रदान करनेवाले निगम की स्थापना में महत्वपूर्ण कार्य किया है। इसका उद्देश्य मौलिक रूप से द्वितीय पंचवर्षीय योजना तथा वादवाली योजनाओं में उद्योगों के उत्पादन में वृद्धि लाने के लिए योग्य बैंकों तथा दूसरी आर्थिक सहायता प्रदान करनेवाली संस्थाओं द्वारा मध्य कोटि की औद्योगिक संस्थाओं को मध्यमावधि ऋण पर पुन: आर्थिक सहायता प्रदान करने की सुविधा प्रदान करना था। इस निगम की संपत्तियाँ तथा दायित्व औद्योगिक विकास नियम (बाद में वर्णित) द्वारा १ सितंबर, सन् १९६४ को तथा (२) यूनिट ट्रस्ट ऑव इंडिया द्वारा लिया गया। इसकी स्थापना का उद्देश्य समाज की वचतों को एकत्रित कर उन्हें उत्पादक कार्यों में लगा देना है, विशेषकर ऐसा प्रयत्न करना कि उद्योगों का स्वामित्व अधिक व्यापक और विभिन्न वर्गों में फैल जाए।

उधार देनेवाली वर्तमान संस्थाओं के सम्मिलित प्रयत्न से भी द्रुत औद्योगिकीकरण की आवश्यताओं की पूर्त्ति का होना संभव न देखकर एक नई वैधानिक संस्था जिसे 'भारत का औद्योगिक विकास बैंक' कहा जाता है, रिजर्व बैंक ऑव इंडिया की सहायक संस्था के रूप में १ जुलाई, १९६४ को स्थापित की गई। भारत का औद्योगिक विकास बैंक औद्योगिक संस्थानों को या तो प्रत्यक्ष रूप से या दूसरी आर्थिक सहायता देनेवाली संस्थाओं के जरिए सहायता प्रदान करेगा। यह उधार या अग्रिम धन देकर या स्टाकों के हिस्सें, बांडों या ऋणपत्रों को खरीदकर या खरीद लेने की जिम्मेदारी लेकर प्रत्यक्ष सहायता देगा। यह औद्योगिक संस्थानों के यहाँ बाकी भावी भुगतान तथा खुले बाजार से या विशिष्ट संस्थाओं से लिए गए ऋणों के भुगतान की गारंटी दे सकता है। औद्योगिक विकास बैंक लंबी या छोटी अवधि पर उधार देनेवाली वर्तमान संस्थाओं को, विशुद्ध अल्पावधि को छोड़कर, सभी अवधियों के लिए पुन: वित्तीय सहायता प्रदान करके और उनकी पूँजी तथा अन्य साधनों को जुटाने में हिस्सा बँटाकर नई ताकत प्रदान करता है। कुछ महत्वपूर्ण युद्धनीतिक क्षेत्र के उद्योगों को सहायता प्रदान करने के लिए जहाँ प्रार्थीगण कड़ी व्यापारिक शर्तों को पूर्ण कर सकने में असमर्थ हैं, वहाँ विकास बैंक उस निधि से विकास सहायता कोष की स्थापना करेगा जो भारत सरकार उसे अर्पित कर देगी।

इनमें निजी तथा सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों के जहाजरानी, यातायात तथा होटल उद्योग आदि उद्योग सम्मिलित हैं। विकास बैंक के पास ५० करोड़ की एक प्राधिकृत पूँजी है जो भारत सरकार की पूर्वस्वीकृति से रिज़र्व बैंक द्वारा १०० करोड़ तक बढ़ाई जा सकती है। १० करोड़ की प्रारंभिक चुकता पूँजी को भारत सरकार द्वारा प्रदत्त १० करोड़ तक व्याजरहित ऋण द्वारा बढ़ाया जा सकता है।

रिजर्व बैंक ने लघुकाय उद्योगों को ऋण सुविधा की व्यवस्था की तरफ भी विशेष ध्यान दिया है। लघुकाय उद्योगों को उधार देने में जोखिम के अंश को पूरा करने के लिए सरकार ने रिज़र्व बैंक की सलाह से सन् १९६० में एक ऋण भुगतान गारंटी योजना का श्री गणश किया। बैंक को इस योजना का संचालन करने का भार सौंपा गया जो भारत सरकार तथा विशिष्ट उधार देनेवाली संस्थाओं के बीच कर्ज के आकार के अनुसार विभिन्न अनुपातों में हानि की रकम बँटाने की व्यवस्था करता है। बैंक, अभी हाल तक उन अनुसूचित बैंकों के साथ रियायती व्यवहार करता आ रहा है जो लघुकाय उद्योगों को उधार देने के लिए उससे ऋण लिया करते हैं। (पी. वी. रंगनाथन)