रिचर्ड्स, आइवर आम्स्ट्रांग यशस्वी अंग्रेज समीक्षक, जन्म चेशायर के अंतर्गत सैडवाच में २६ फरवरी, १८९३ को हुआ था। उनकी शिक्षा क्लिफ्टन कालेज और मैगडालेन कालेज, कैंब्रिज में हुई। मैगडालेन में उन्होंने सन् १९२२ से २५ तक अंग्रेजी और मॉरल सांइसेंज़ में लेक्चरर के पद पर कार्य किया और उसके पश्चात् एक वर्ष सिंगहुआ विश्वविद्यालय, पेकिंग में विज़िटिंग प्रोफेसर के रूप में व्यतीत किया। सन् १९३१ में रिचर्ड्स हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के विज़िटिंग लेक्चरर होकर आए और सन् १९३९ में पुन: उसी विश्वविद्यालय में पंचवर्षीय राकफेलर ग्रांट योजना के फलस्वरूप आए।

रिचर्ड्स ने सी.के. आगडेन और जेम्स उड के सहयोग से सन् १९२१ में 'दि फाउंडेशन ऑव एस्थेटिक्स' नामक पुस्तक की रचना की। इसमें सौंदर्यशास्त्र संबंधी उनकी स्थापनाएँ हैं। सौंदर्य के विभिन्न सदर्भों और अभिप्रार्यों का विस्तृत उल्लेख करते हुए लेखक ने बतलाया है कि काव्य की रचनात्मक प्रक्रिया में किस प्रकार रचयिता और पाठक की मानसिक अवस्थाओं में समीकरण की स्थिति उत्पन्न होती है। सन् १९२३ में सी.के. आगडेन के सहयोग से उन्होंने 'दि मीनिंग ऑव मीनिंग' की रचना की और अगले वर्ष उनकी सुप्रसिद्ध पुस्तक 'दि प्रिंसिपिल्स ऑव लिटरेरी क्रिटिसिज़्म' (१९२४) प्रकाश में आई। पहली पुस्तक में भाषा के प्रयोगों और शब्दशक्तियों का वर्णन है तथा दूसरी में इस महान् आलोचक ने अपने समीक्षा सिद्धांतों का मौलिक विवेचन किया है। सन् १९२५ में 'साइंस ऐंड पोयट्री' तथा १९२९ में 'प्रैक्टिकल क्रिटिसिज़्म' लिखी गई। 'प्रैक्टिकल त्रिटिसिज़्म' में व्यावहारिक समीक्षा पद्धति पर बल दिया गया है। रिचर्ड्स का कथन है कि साहित्यिक मूल्यांकन के लिए कविता का ज्ञान तथा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की निर्लिप्त क्षमता दोनों ही आवश्यक हैं। सन् १९३४ में 'कोलरिज ऑन इमैजिनेशन', १९३६ में 'दि फिलासफी ऑव रेटारिक' तथा सन् १९३८ में 'इंटरप्रेटेशन इन टीचिंग' की रचना की।

रिचर्ड्स की अन्य रचनाएँ हैं - 'मेनसियस ऑन दि माइंड' (१९३१), 'बेसिक रूल्स आव रीज़न' (१९३३), 'हाउ टु रीड ए पेज' (१९४२), 'प्लेटोज रिपब्लिक' (१९४२), 'बेसिक इंगलिश ऐंड इट्स यूसेज' (१९४३), 'नेशंस ऐंड पीस' (१९४७), 'दि पोर्टेबुल कोलरिज' (१९५०), 'दि राथ ऑव एकिलिस' (१९५०), 'स्पेकुलेटिव इंस्ट्रुमेंट'।

रिचर्ड्स की गणना आज विश्व के महान् समीक्षकों में की जाती है। वे अपनी नवीन समीक्षा प्रणाली तथा मौलिक चिंतन के लिए विद्वानों और साहित्य के विद्यार्थियों में सर्वाधिक विख्यात हैं। अपने विशद अध्ययन के बल पर उन्होंने काव्य में मूल्य का स्थान, प्रेषणीयता का महत्व, अर्थ का वास्तविक अभिप्राय, नैतिकता का प्रश्न आदि समस्याओं पर नए ढंग से विचार किया है।

उन्होंने मूल्य की मनोवैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की है जिसे समीक्षा जगत् उनकी प्रथम मौलिक और सारगर्भित देन के रूप में स्वीकार करता है। गेस्टाल्ट मनोविज्ञान और स्नायुमंडल की प्रक्रियाओं के अध्ययन से उद्भूत निष्कर्षों से रिचर्ड्स के विचार प्रभावित हुए हैं। मानव मन में अनवरत उठते हुए नवीन उद्वेगों और अंतर्वृत्तियों के समुचित संतुलन और सामंजस्य पर ही मानसिक सुख एवं शांति निर्भर है। हमारी अंतर्वृत्तियों में सदा पारस्परिक संघर्ष और द्वंद्व मचा रहता है। इनमें सुव्यवस्था और संतुलन उत्पन्न करना ही जीवन का क्रम है। रिचर्ड्स के मतानुसार, बिना किस महत्वपूर्ण आकांक्षा को दलित और नष्ट किए हुए अधिक से अधिक आकांक्षाओं को संतुष्ट और सुव्यवस्थित करने वाली वस्तु ही पूर्णरूपेण मूल्यवान् है। मन की यह संतुलित और सुव्यवस्थित अवस्था केवल अपनी इच्छा के द्वारा ही नहीं प्राप्त की जा सकती, वरन् बाह्य प्रभावों और विशेषत: दूसरों के विचारों द्वारा भी इस परम उद्देश्य की प्राप्ति हाती है। साहित्य दूसरों के विचारों, भावनाओं और संवेगों का संकलन है। अतएव उसके द्वारा संवेगों, आकांक्षाओं और विचारों की सुव्यवस्थित संगति होती है। इसी में साहित्य के मूल्य की मनोवैज्ञानिक सार्थकता सन्निहित है। स्पष्ट है कि रिचर्ड्स के मूल्यवाद का आधार 'मनोवैज्ञानिक मानववाद' है :

श्रेष्ठ समीक्षक में रिचर्ड्स ने तीन गुणों का होना अनिवार्य बतलाया है : १- जिस मानसिक परिवेश में कोई कलाकृति लिखी गई हो उस परिस्थिति विशेष को बिना किसी पूर्वाग्रह के अनुभव और ग्रहण करने की क्षमता। २- अनुभवों के पारस्परिक विभेद द्वारा उनकी विविध श्रेणियों को समझने की योग्यता, तथा ३- साहित्यिक मूल्यों की स्वस्थ निर्णायक शक्ति। इस प्रकार हम देखते हैं कि आलोचक मानसिक अवस्थाओं और अनुभूतियों का मूल्यांकन करता है जिनका संबंध मनोविज्ञान से है। इसीलिए जब कोई आलोचक अनुभवों के सामान्य मनोवैज्ञानिक स्वरूप की अवहेलना करता है तो कलागत तत्वों अथवा उनके सापेक्षिक महत्व के विषय में उसके निर्णय अस्पष्ट रह जाते हैं।

'अर्थ' से क्या तात्पर्य है, इस प्रश्न पर विस्तार के साथ विचार करते हुए रिचर्ड्स ने भाषा के स्वरूप तथा शब्दशक्तियों का विशद एवं गंभीर विवेचन किया है। भाषा ही भावप्रकाशन का माध्यम है। वह वक्ता और श्रोता के भी अंखड मानसिक प्रवृत्ति का संचार करती है। काव्य में रूपक के प्रयोग पर रिचर्ड्सन ने जोर दिया है। इन रूपकों के माध्यम से थोड़े में ही बहुत कुछ व्यक्त किया जा सकता है।

भाषा जीवन में सामान्य रूप से और साहित्य में विशेष रूप से अर्थवहन का कार्य करती है। रिचर्ड्स ने चार प्रकार के अर्थों का निर्देशन किया है जिनके पारस्परिक सामंजस्य से ही भाषा की पूर्ण अर्थवत्ता व्यक्त होती है। उत्तम काव्य में इन चारों प्रकार के अर्थों का सम्यक् योग रहता है। (रामअवध द्विवेदी.)