राहुल सांकृत्यायन (१८९३-१९६३) जन्म आजमगढ़ जिले (उत्तर प्रदेश) के कनैला गाँव में हुआ। अक्षरारंभ कनैला से ही एक मील की दूरी पर 'रानी की सराय', के एक मदरसे में हुआ। बालक का सर्वप्रथम नाम केदारनाथ था।

बालक की उम्र अभी ११ साल की ही थी कि उसका विवाह कर दिया गया। क्योंकि यह विवाह केदारनाथ की 'अबोध अवस्था' में ही किया गया था, इसलिए केदारनाथ ने इस विवाह को 'अपना विवाह' न माना। १६ वर्ष की अवस्था होने पर उसने घर आना जाना बिल्कुल बंद कर दिया।

अठारह वर्ष की उम्र में केदारनाथ ने बनारस के दयानंद हाई स्कूल के सातवें दर्जे में नाम लिखाया। केदारनाथ का उद्देश्य 'विद्वान्' बनना मात्र नहीं था, वह विद्वान् साधु बनना चाहता था। छपरा के एक महंत जी ने सन् १९१२ के सितंबर महीने में केदारनाथ को अपना शिष्य बना लिया। साधु बन जाने पर केदारनाथ का नाम रामउदार दास या रामोदार साधु हो गया। रामोदार दास ने अपना कुछ समय परसा (छपरा) के इस मठ की व्यवस्था सुधारने में लगाया। किंतु शीघ्र ही वे यहाँ से भी भाग खड़े हुए। इस बार वे दक्षिण की ओर गए।

दक्षिण भारत में हिंदुओं के जितने भी पवित्र स्थान हैं, वे सब 'दिव्य देश' कहलाते हैं। रामोदार साधु बहुत ही जगहों पर गए। कुछ समय बाद वे अयोध्या लौट आए और एक पाठशाला में 'वेद' तथा वेदांत पढ़ना शुरू किया। अयोध्या में ही रहकर उन्होंने व्याख्यान देने की अपनी योग्यता बढ़ाई। यहीं उन्होंने स्वामी दयानंद 'सरस्वती' का 'सत्यार्थ प्रकाश' पढ़ डाला। उन्हें आर्यसमाज के विचार बहुत पसंद आए। आगरे का 'मुसाफिर विद्यालय' प्रसिद्ध आर्यसमाजी धर्मप्रचारक पंडित लेखराम 'आर्य मुसाफिर' की स्मृति में खोला गया था। केदारनाथ 'विद्यार्थी' उसमें भर्ती कर लिए गए। इस समय (१९१५) केदारनाथ 'विद्यार्थी' के लिखे लेख समाचारपत्रों में छपने लगे। हिंदी में उनका सबसे पहला लेख मेरठ से निकलनेवाले 'भास्कर' में छपा, और उर्दू में आगरा से निकलने वाले 'मुसाफिर आगरा' में। कुछ समय बाद वे लाहौर के डी.ए.वी. कालेज के संस्कृत विभाग में भर्ती हो गए।

१९१७ के अक्टूबर मास में रूस में क्रांति हुई। उसकी खबरें छन-छनकर भारत पहुँचती थीं। वैसी साम्यवादी सूचनाओं से रामोदार दास बहुत प्रभावित होते थे। उनके साम्यवादी विचार १९२३-२४ में 'बाईसवीं सदी' के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित हुए। रामोदार दास ने १९१९ के बाद लुंबिनी, बुद्धगया, सारनाथ तथा कुशीनगर, चारों बौद्ध तीर्थस्थानों की यात्रा की। कठिन संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन करने की इच्छा से वे दोबारा तिरुमिशी गए। तिरुमिशी में रहते समय रामोदार साधु ने कुछ तमिल भाषा भी सीखी। इसके बाद उन्होंने कुर्ग में चार मास बिताए। वहाँ कन्नड़ भाषा का भी परिचय प्राप्त कर लिया।

रामोदार साधु ने सन् १९२१ के स्वतंत्रता आंदोलन में खुलकर हिस्सा लिया। १९२२ में उन्हें छह महीने जेल में रहना पड़ा। अप्रैल, १९२३ से अप्रैल १९२५ तक के उनके पूरे दो साल भी हजारीबाग जेल में ही बीते। जेल में रहते समय उनका लिखना पढ़ना जारी रहा। अब वे कई भाषाओं से परिचित हो गए थे - हिंदी, उर्दू, पालि, संस्कृत, अरबी, फारसी, तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी और फ्रांसीसी भाषा से भी।

इस बीच केदारनाथ 'विद्यार्थी' या रामोदार साधु की बौद्ध धर्म की ओर इतनी अधिक दिलचस्पी बढ़ी कि उन्होंने श्रीलंका पहुँचकर बौद्ध धर्म का बाकायदा अध्ययन करने का निश्चय किया। मई, १९२७ में वे संस्कृत के अध्यापक की हैसियत से वहाँ पहुँचे। बौद्ध धर्म का अध्ययन तथा अपना अध्यापन कार्य समाप्त करने के बाद अपने अध्ययन को और भी अधिक आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने नेपाल के रास्ते तिब्बत जाने का निश्चय किया। अनेक कठिनाइयों को झेलकर वह किसी न किसी तरह तिब्बत की राजधानी ल्हासा जा पहुँचे। उन्होंने अपनी इस प्रथम तिब्बत यात्रा का रोचक वर्णन 'तिब्बत में सवा साल' में लिखा है।

ल्हासा से रामोदार साधु वापस श्रीलंका ही लौटे, जहाँ २० जुलाई, १९३० को उन्होंने बौद्ध भिक्षु की दीक्षा ग्रहण की और काषाय वस्त्र धारण किया। अब उनका नाम हुआ राहुल सांकृत्यायन।

१९३२ में बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ, राहुल जी ने कोलंबु से लंदन की यात्रा की। वे यूरोप में लगभग तीन महीने रहे। अपनी इस यात्रा का पूरा वृत्तांत उन्होंने 'मेरी यूरोप यात्रा' नामक पुस्तक में दिया है।

राहुल जी लंदन से १९३३ के जनवरी महीने में वापस श्रीलंका लौट आए। लंका से वे भारत लौटे और जम्मू कश्मीर के रास्ते दूसरी बार लद्दाख पहुँचे। अपनी इस 'लद्दाख यात्रा' में राहुल जी ने त्रिपिटक के एक प्रसिद्ध ग्रंथ 'मज्झिम निकाय' का हिंदी अनुवाद कर डाला। भोट (तिब्बती) भाषा सीखने के लिए कुछ रीडरें भी लिखीं।

१९३४ में बिहार में जोर का भूकंप हुआ। जनधन की अपार हानि हुई। ऐसे समय राहुल जी दु:खी जनों की सेवा करने के लिए बिहार में रहे। सेवाकार्य से अवकाश मिलते ही वे पुन: कालिंपोंग, सिक्किम होते हुए ल्हासा पहुँचे। उनका फिर तिब्बत जाने का उद्देश्य था, उन संस्कृत ग्रंथों का पता लगाना जिनका भारत में कहीं पता नहीं, किंतु जो अपने मूल रूप में या अनुवादों के रूप में आज भी तिब्बत में उपलब्ध हैं। तिब्बत से राहुल जी अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ साथ में लाए।

राहुल जी चुपचाप बैठनेवाले तो थे नहीं। अब उनकी इच्छा हुई पूर्व के बौद्ध देशों - बर्मा, थाईलैंड, कोरिया, जापान-की यात्रा करने की। ३ मई, १९३५ को राहुल जी जापान पहुँचे।

इस यात्रा से लौटकर वे पुन: नेपाल के रास्ते तिब्बत गए। इस बार की तिब्बत यात्रा में उन्हें बड़े महत्व के प्राचीन ग्रंथ मिले। आचार्य धर्मकीर्ति के 'प्रयाग वार्तिक' और आचार्य असंग के 'योगाचार भूमि' जैसे ग्रंथों के देखने के लिए सुदूर लेनिनग्राद (रूस) के आचार्य ईचेरवास्की जैसे बड़े विद्वान् ने भारत आने की इच्छा व्यक्त की।

१९३७ के सितंबर में राहुल जी ईरान के रास्ते रूस गए। उनकी यह दूसरी सोवियत यात्रा थी। इस बार वे लेनिनग्राद के प्राच्य संस्थान में प्राध्यापक बनकर गए। इस संस्थान की सेक्रेटरी का नाम था ऐलेना। यही ऐलेना (लोला) आगे चलकर राहुल सांकृत्यायन के सुपुत्र इगोर राहुलोविच की माता बनी।

राहुल जी को फिर चौथी बार तिब्बत जाना था। इसलिए वे शीघ्र ही रूस से वापस भारत लौट आए। तिब्बत यात्रा के अनंतर उन्होंने भारत की नंगी भूखी जनता की सेवा करने के लिए और देश में 'किसान मजदूर राज्य' स्थापि करने के लिए सक्रिय राजनीति में भाग लेने का निश्चय किया। फलस्वरूप, वे ढाई वर्ष तक जेलों में रहे। इस सारे समय का उपयोग उन्होंने हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि करने में किया। इसी समय उन्होंने 'वोल्गा से गंगा' जैसी कहानियों की बेजोड़ पुस्तक लिखी, जिसका देशविदेश की १५ भाषाओं में अनुवाद हुआ।

राहुल जी को फिर रूस से निमंत्रण मिला। वे २५ महीने 'सोवियत भूमि' में बिताकर वापस भारत लौटे। इस बीच भारत स्वतंत्र हो गया था। राहुल जी अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मलेन के सभापति चुन लिए गए। १९४९ के दिसंबर में हैदराबाद में इसका अधिवेशन हुआ। उस समय उनकी सेक्रेटरी कमला जी भी उनके साथ थीं, जो बाद में राहुल जी की प्रिय संतान जया जेता की माता बनीं।

राहुल जी ने मसूरी में रहते समय 'मध्य एशिया का इतिहास' तथा 'हिमालय परिचय' योजना के अंतर्गत कई महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे।

१९५३ में राहुल जी साठ वर्ष के हो गए थे। इसी वर्ष उन्होंने 'मार्क्स', 'स्तालिन', 'लेनिन' तथा 'माओ-त्से-तुंग' की जीवनियाँ लिखीं। १५ जून, १९५८ का वे हवाई जहाज द्वारा पेकिंग के लिए रवाना हुए। साढ़े चार महीने बाद भारत लौटे।

चीन से लौटने पर राहुल जी को विद्यालंकार विश्वविद्यालय कैलानिया (सीलोन) के दर्शन विभाग के अध्यक्ष की हैसियत से श्रीलंका पधारने का निमंत्रण मिला। सितंबर, १९५९ से लेकर अस्वस्थ होकर भारत लौट आने के दिन तक वे श्रीलंका में ही रहे। इस बीच उन्होंने लगभग आधे दर्जन बड़े बड़े ग्रंथ तैयार किए।

१९६१ के अगस्त में उन्होंने लंका से अंतिम बार विदा ली। उनका शेष जीवन उनके 'रोग की करुण कहानी' मात्र बनकर रह गया। १४ अप्रैल, १९६३ को दार्जिलिंग में उनका निधन हो गया। (भदंत आनंद कौसल्यान)