रासायनिक युद्ध (Chemical Warfare) में रसायनकों का व्यवहार होता है। युद्ध में रसायनकों का प्रयोग नया नहीं है। ईसा पूर्व के युद्धों में गंधक और पिच के प्रयोग का उल्लेख मिलता है। महाभारत में लाक्षागृह का उल्लेख है, जिसमें आग लगाकर पांडवों को जला देने का कौरवों ने प्रयास किया था, पर २०वीं शताब्दी में ही रासायनिक युद्ध का विशेष रूप से विकास हुआ। रासायनिक युद्ध में रासायनिक ऊर्जा काम में लाई जाती है। जो रसायनक मानव अंगों को सीधे आक्रांत करते हैं, उनमें गैसें विशेष महत्व रखती हैं। ऐसी गैसों को युद्ध गैस कहते हैं। इनका प्रभाव गोला बारूद-सा तत्काल नहीं होता। ये धीरे-धीरे प्रभाव करती है, पर इनका प्रभाव अधिक काल तक होता रहता है।

१९१५ ई. के प्रथम श्वियुद्ध में जर्मनी ने पहले पहल युद्ध में क्लोरीन गैस का उपयोग किया था। उस समय इससे बचने के उपाय मालूम न थे। पीछे इसके प्रभाव से बचने के लिए रूई के पैड में कुछ रासायनिक विलयन मिलाकर नाक और मुख पर बाँधकर रक्षा का प्रयत्न हुआ। पीछे कुछ उन्नत किस्म के श्वासयंत्र, या गैस त्राण, बने। इनमें बराबर परिवर्तन होते आए हैं। शत्रुओं के बीच गैसों को फैलाने के लिए अनुकूल वायुदिशा की आवश्यकता पड़ती थी। इससे १९१६ ई. में गैस से भरे गोले बने, जिन्हें शत्रुओं के बीच फेंककर गैसों को फैलाने का प्रयत्न हुआ। पीछे ऐसी गैसें बनीं जिनसे आँखें आक्रांत हो अत्यधिक आँसू उतपन्न होता था, छींके आती थीं और शरीर पर फफोले पड़ जाते थे। १९१७ ई. में जर्मनी ने मस्टर्ड गैस का आविष्कार किया। द्रववस्था में इसे ऐसे छाले पड़ते थे जिनसे बना घाव जल्द अच्छा नहीं होता था। फिर अन्य देशों ने भी व्यापक अनुसंधान के बाद इसी प्रकार की अन्य गैसें तैयार की। अन्य विषैले रसायनक, आग उत्पन्न करनेवाले पदार्थ तथा धुँआ उत्पन्न करनेवाले पदार्थ, जो परदे का काम देते थे, बने और इनका उपयोग स्थल और समुद्री युद्धों में सफलतापूर्वक होने लगा। धुएँ का परदा उत्पन्न करनेवाले रसायनकों की सहायता से सेनाओं को नदी और पुल पार करने में बड़ी रसायनकों की सहायता से सेनाओं को नदी और पुल पार करने में बड़ी सहूलियत हो गई और शत्रुओं की दृष्टि से बचकर बिना किसी बाधा के टैंकों का संचालन होने लगा।

कुछ युद्ध गैसें श्वासतंत्र को आक्रांत करती हैं। ये बहुधा घातक होती है। इनसे खाँसी आने लगती है, साँस लेने में कठिनता होती है और फुफ्फुस शोध उत्पन्न होता है। ऐसी गैसों में क्लोरीन, फॉसजीन (phosgene) और डाइफ़ॉसजीन है। कुछ पदार्थ शरीर के अंगों पर फफोले उत्पन्न करते हैं। इनसे संरक्षण कठिन होता है। ऐसे पदार्थ द्रव मस्टर्ड गैस, (बीटाक्लोर एथिल सल्फाइड, Beta-chlor-ethyI sulphide), ल्यूइसाट, अर्थात् बीटा-क्लोर विनिल डाइक्लोर-आरसीन (Beta-chlorvinyl dichlorarsine), और द्रव एथिल डाइक्लोरआरसीन (Ethyl dichlorarsin) हैं। छींक उत्पन्न करने वाली गैसों में डाइफेनिल-ऐमिन-क्लोर आरसीन (Diphelnyl-amine-chlor assine) है, जो नाक, गले और वक्ष पर तीव्र वेदना उत्पन्न करती है। यह घातक नहीं होती। इसका प्रभाव लगभग १२ घंटे तक रहता है।

आँसू उत्पन्न करनेवाले और चमड़े की प्रक्षोभित करनेवाले रसायनकों में क्लोरऐसीटोफीनोन (Chloraeetophenone), ब्रोमो बेंज़ील सायनाइड (Bromo benzyl cyanide) और ज़ाइलिल ब्रोमाइड (Xylyl bromide) हैं, जो श्लेष्मिक झिल्ली को आक्रांत कर अत्यधिक आँसू उत्पन्न करते है और कुछ समय के लिए दृष्टि को अवरुद्ध कर देते हैं। इनका प्रभाव कुछ ही मिनटों तक रहता है। कुछ विषैले पदार्थ हृदय और तंत्रिकाप्रतिवर्त (nerve reflexes) को आक्रांत कर ऑक्सीजन के अवशोषण और आत्मीकरण में बाधा पहुँचाते हैं। ऐसे रसायनकों में कार्बन मोनोऑक्साइड और हाइड्रोसायनिक (Hydrocyanic) अम्ल हैं, पर हलके होने के कारण युद्ध में इनका प्रयोग सफल नहीं हो सका है। इनके अतिरिक्त क्लोरोपिक्रिन (Chloropicrin) अर्थात् ट्राइक्लोरोनाइट्रोमेथेन (Rtichloronitromethane), ऐडेमसइट अर्थात् डाइफेनिल क्लोरो-आरसीन (Adamsite or Diphenyl chloro-arsine), सफेद फॉस्फोरस, टाइटेनियम टेट्राक्लोराइड (Titanium tetrachloride) तथा थरमिट (Thermit) अन्य पदार्थ हैं, जो युद्ध में प्रयुक्त हुए हैं। सफेद फ़ॉस्फोरस से गाढ़ा धूम उत्पन्न होता है, जिसमें से देखना संभव नहीं होता। थरमिट से तीव्र ऊष्मा उत्पन्न होकर आग लग जाती है। इनके अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन बम भी बने हैं, जो सन् १९३९-४५ के युद्ध में प्रयुक्त हुए थे। रासायनिक युद्ध में प्रयुक्त हेनेवाले रसायनकों की संख्या हजारों है।

रासायनिक युद्ध से संरक्षण - फुफ्फुस क्षोभकों से रक्षा के लिए गैसत्राण का उपयोग होता है। गैसत्राण से छनकर जो वायु फेफड़े में जाती है उसमें युद्धगैसों का पूर्णतया अवशोषण हुआ रहता है। यदि गैसत्राण इतना बड़ा हो कि आँखों को भी ढँक सके, तो आँसू-उत्पादक रसायनकों से भी रक्षा हो सकती है। गैसत्राण में कोयला और सोडा-चूना उपयुक्त अनुपात में भरे रहते हैं। ये गैसत्राण पर्याप्त समय तक काम देते हैं, पर कार्यक्षमता धीरे-धीरे कम होती जाती है और बार-बार के उपयोग से ये अंत में काम नहीं देते, तब उन्हें बदलने की आवश्यकता पड़ती है। गैसों से रक्षा के लिए कुछ संरक्षणगृह बने हैं, जिनमें छनकर वायु प्रविष्ट करती है, पर युद्धक्षेत्र में इनका प्रयोग संभव नहीं है। शरीर के संरक्षण के लिए दूसरे प्रकार के त्राण आवश्यक होते हैं। इसके लिए कुछ ऐसे वस्त्र बने है जिनके अंदर वायु प्रविष्ट नहीं करती। इससे शरीर की रक्षा होती है। इन त्राणों से संरक्षण लिए उपयुक्त युद्धप्रशिक्षण आवश्यक होता है। रासायनिक युद्ध में सेना की रक्षा के साथ-साथ जनता की रक्षा का भी प्रश्न उपस्थित होता है। युद्ध में प्रयुक्त होनेवाले कुछ रसायनकों का प्रयोग शांतिकाल में भी भीड़ को तितर-बितर करने में आज हो रहा है। (फूलदेव सहाय वर्मा)