रॉस, रोनाल्ड (सन् १८५७-१९३२), अंग्रेज चिकित्सक, का जन्म सन् १८५७ में अल्मोड़ा में हुआ था, जहाँ इनके पिता सेना में जनरल थे। दस वर्ष की आयु में अध्ययन के लिए रॉस इंग्लैंड भेजे गए। रॉस पढ़ते कम थे। इनकी रुचि संगीतरचना में थी। सेंट वारथलम्यू अस्पताल में ये चिकित्सा विज्ञान पढ़ते रहे, पर जब यहाँ असफल हुए, तब जहाज पर नौकरी कर ली। फिर लौटे और डॉक्टर बने। १८८१ ई. में भारतीय चिकित्सा सेवा में प्रविष्ट हुए। अब ये संगीत छोड़कर कविता करने लगे थे। इन्होंने उपन्यास भी लिखे और फिर गणितशास्त्र में हस्तक्षेप करने का शौक हुआ।

भारत में काम करने के बाद, ये मोलमीन (बर्मा) भेजे गए। यहाँ इन्हें सर्जरी का शौक हुआ और ऑपरेशन कर डाले। १८८८ ई. में छुट्टी लेकर ये इंग्लैंड गए और वहाँ विवह करके लौटे। इस बार इन्होंने एक उपन्यास लिखा और शीघ्रलिपि बनाने की चेष्टा की; साथ ही माइक्रासकोप की ओर भी शोक बढ़ा।

सन् १८८० में लाब्राँ (Laveran) ने रोगी के रक्त में मलेरिया के परजीवी ढूँढ़ निकाले थे। रॉस ने इन्हें देखने की चेष्टा की और जब वे न दिखे तो इन्होंने लिख माना कि 'लाब्रॉ' गलत है, मलेरिया पेट की खराबी से होता है।

सन् १८९५ में, ये सिंकदराबाद में नियुक्त हुए। यहाँ इन्होंने हजारो रोगियों का रुधिर देखा, मच्छर पकड़े और उन्हें काटकर देखा। रॉस का मच्छर जाति से कोई परिचय न था, सिवाय इसके कि वे भूरे, या धूसर होते हैं। अवैज्ञानिक ढंग से किए गए प्रयोग असफल होते रहे। अंत में भाग्य मुस्कराया। १८९७ ई. में एक दिन मच्छर के आमाशय की कोशिकाओं के बीचों बीच अजीब सी गोल गोल चीज और काला रंग देखा।

कलकत्ता के प्रेसिडेंसी जनरल अस्पताल में इन्होंने शोधकार्य नई लगन से आरंभ किया। इस बार इन्होंने चिड़ियों के मलेरिया पर शोध की। अंत में चिड़ियों को मलेरिया हुआ। रॉस ने मच्छर काटे तथा उनके आमाशय में क्रमश: मलेरिया परजीवी का विकास देखा। इन्होंने देखा कि आमाशय की दीवार पर एक से अनेक होकर ये परजीवी मच्छर की लाला ग्रंथि में प्रवेश करते हैं। मच्छर काटने के बाद थूकते हैं और तब रुधिर चूसते हैं। इस प्रकार उनके थूक से स्वस्थ चिड़िया को मलेरिया होता है। अज्ञात मेजर रॉस विश्वविख्यात हो गया।

ये रॉयल सोसायटी के सदस्य चुने गए और सोसायटी का पदक प्राप्त किया (सन् १९०१)। सन् १९०२ में इन्हें नोबेल पुरस्कार मिला और १९११ ई. में 'नाइटहुड' की उपाधि मिली। रॉस इंस्टिट्यूट की स्थापना हुई और ये उसके निदेशक नियुक्त हुए। ये 'साइंस प्रोग्रेस' के संपादक थे। इनके 'संस्मरण' प्रसिद्ध हैं। (भानुशंकर मेहता.)