राष्ट्रीय आय किसी देश की समस्त साधनों से उपार्जित की हुई वार्षिक आय राष्ट्रीय आय कहलाती है। इस आय में उत्पादन, उपभोग तथा वितरण में की हुई सेवाओं का मूल्य भी सम्मिलित होता है। देश के प्राकृतिक साधनों का पूँजी तथा श्रम के सहयोग से वैज्ञानिक रीतियों द्वारा प्राप्त हुआ उत्पादन राष्ट्रीय आय को बढ़ाता है। राष्ट्रीय आय का रहन-सहन के स्तर से घनिष्ठ संबंध है। जिस देश की राष्ट्रीय आय अधिक होती है वहाँ के निवासियों का जीवनस्तर भी प्राय: ऊँचा होता है और अच्छे रहन-सहन के ढंग से उत्पादन की कार्यक्षमता भी बढ़ती है। किसी राष्ट्र की ठीक आर्थिक स्थिति भी राष्ट्रीय आय द्वारा ही ज्ञात होती है।
समय समय पर राष्ट्रीय आय को नापने के विभिन्न ढंगों का प्रयोग किया गया। देश की करनीति राष्ट्रीय आय पर ही आधारित होती है। भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना के बाद विभिन्न करों का मुख्य आधार राष्ट्रीय आय ही थी। सामान्यत: राष्ट्रीय आय को नापने के दो ढंग अपनाएँ जाते हैं। (१) समस्त उत्पादन का योग (२) समस्त आय का योग। उत्पादन योग में हम देश की किसी वर्ष में तैयार की हुई समस्त वस्तुओं का मूल्यांकन करते हैं। इसमें कृषि, उद्योग, यातायात तथा व्यापार इत्यादि में की हुई सेवाओं का मूल्य भी सम्मिलित होता है। आय योग प्रणाली में देश के सभी नागरिकों की आय का योग होता है जो वे किसी वर्ष में प्राप्त करते हैं। इन दोनों प्रणालियों में कोई भी राष्ट्रीय आय का ठीक पता लगाने में सफल नहीं हुई है अत: लगभग सभी देश राष्ट्रीय आय को जानने के लिए दोनों ही प्रणालियाँ अपनाते हैं।
भारत में राष्ट्रीय आय नापने के लिए पिछले सौ वर्षों में कई प्रयास हुए हैं। दादाभाई नौरोजी ने राष्ट्रीय आय के संबंध में सर्वप्रथम आँकड़े प्राप्त किए थे। उसके बाद राष्ट्रीय आय का ठीक पता लगाने के लिए कई अर्थशास्त्रियों ने प्रयत्न किए। स्वतंत्रता के उपरांत अगस्त १९४९ में भारत सरकार ने राष्ट्रीय आय कमेटी नियुक्त की। इस कमेटी को राष्ट्र की आय के विस्तृत आँकडे प्राप्त करने का काम सौंपा गया। इस कमेटी ने राष्ट्रीय आय नापने के ढंगों में कई महत्वपूर्ण सुधार किए और राष्ट्रीय आय के पर्याप्त मात्रा में सही आँकड़े प्राप्त होने लगे।
भारत की वर्तमान राष्ट्रीय आय दस हजार करोड़ रुपए से अधिक है। प्रथम और द्वितीय पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा हमारी राष्ट्रीय आय में वृद्धि हुई हैं। प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय लगभग ३२० रुपए है और आर्थिकनियोजन द्वारा इसका वितरण समुचित रूप से होने की आशा है। जनसंख्या की वृद्धि का प्रति व्यक्ति आय और ऊपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भारत की उत्तरोत्तर बढ़ती जनसंख्या के कारण प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय अधिक नहीं बढ़ पाती जिससे रहन सहन का स्तर उचित मात्रा में नहीं बढ़ पाया है।
भारत की राष्ट्रीय आय का लगभग ४५% भाग कृषि का, २०% भाग उद्योग धंधों का, २०% भाग व्यापार और यातायात का और शेष १५% भाग सेवाओं के मूल्य का होता है। उद्योगीकरण की प्रगति के फलस्वरूप राष्ट्रीय आय में कृषि द्वारा उत्पन्न किया हुआ प्रतिशत भाग कम होता जा रहा है और उद्योग तथा यातायात के भाग बढ़ रहे हैं। समृद्ध देशों में राष्ट्रीय आय का उद्योग व यातायात का भाग कृषि से सदा अधिक रहता है। यदि राष्ट्रीय आय बनने में कृषि, उद्योग तथा अन्य उपायों में संतुलन हो तो आर्थिक प्रगति और कार्यक्षमता बहुत तेजी से बढ़ती है। राष्ट्रीय आय बनने में ऊँचे जीवनस्तर का बहुत प्रभाव पड़ता है। अत: जीवनस्तर बनानेवाली विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन में संतुलन होना बहुत आवश्यक होता है। हम अपने दैनिक प्रयोग में आनेवाली वस्तुओं के उत्पादन एवं निर्माण में कृषि और उद्योग दोनों का सहारा लेते हैं। इसीलिए कृषि और उद्योग दोनों में लगभग बराबर का भाग राष्ट्रीय आय के लिए हितकर होता है। यदि हमें राष्ट्रीय आय के सही आंकड़े प्राप्त हो सकें तो आर्थिक योजनाओं द्वारा इस संतुलन के लिए ठीक प्रयत्न किए जा सकते हैं। इसी उद्देश्य से भारत सरकार राष्ट्रीय आय में विभिन्न भागों के विस्तृत आँकड़े प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है। (अवध बिहारी मिश्र)