रामायण आदि कवि महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामचंद्र के चरित्र से संबंधित संस्कृत का प्रथम महाकाव्य। इस काव्य की उत्पत्ति के संबंध में आख्यान है कि क्रौंच मिथुन में से एक के व्याध द्वारा माने जाने पर वाल्मीकि को जो शोक हुआ उसका उद्गार अचानक श्लोक के रूप में उनके कंठ से निकला और फिर ब्रह्मा के आदेश से इन्होंने उसी छंद की प्रधानता रखते हुए रामायण की रचना की। उक्त अनुष्टुम् श्लोक यह है :
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:।
यत्क्रौंच - मिथुनादेकमवधी: काममोहितम्।।
संस्कृत साहित्य में रामायण नाम के अनेक ग्रंथ है जिनमें से वाल्मीकि रामायण सबसे प्राचीन और प्रसिद्ध है। रामचरित्र के संबंध में इसकी प्रामाणिकता निर्विवाद है क्योंकि वाल्मीकि रामचंद्र के पिता दशरथ के सखा और समकालीन थे। इसमें कुल सात कांड हैं जिनमें से प्रत्येक कांड कई वर्गों में विभाजित है। साधारणत: भारत में तीन प्रकार के वाल्मीकि रामायण पाए जाते हैं - (१) औदीच्य या उत्तरपश्चिमीय, (२) दाक्षिणात्य और (३) गौडीय। इन तीनों रामायणों के सर्गों की संख्या और पाठ आदि में बहुत कुछ अंतर है पर ये तीनों पाठ प्रामाणिक माने जाते हैं। अत्यंत प्राचीन ग्रंथ होने के कारण इस ग्रंथ की विभिन्न प्रतियों में विशेष अंतर होना स्वाभाविक है पर जहाँ तक मूल कथा का संबंध है, तीनों प्रतियों में समानता है।
वाल्मीकीय रामायण के रचनाकाल के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों के मत के आधार पर रामायण की रचना ईसवी सन् के कई शताब्दियों पूर्व की ठहरती है। श्लेगल और वेबर ने इसे ११वीं, १२वीं, शती ई.पू. की रचना माना और याकोबी इसे ई.पू. पाँचवीं शती तक लाते हैं। भारतीय कालगणना के अनुसार इसका समय इन मान्यताओं से भी पुरातन माना जाना चाहिए। ग्रंथ-रचना-काल की इन परस्पर विरोधी मान्यताओं को यथास्थान रहने देकर यदि हम विचार करते हैं तो तथ्यत: इतना तो मानना पड़ता है कि बौद्ध जैन धर्मों की प्रारंभिक स्थिति के बहुत पूर्व से ही लोक में इसकी प्रियता सर्वमान्य हो चुकी थी जिससे प्रभावित होकर इन धर्मों को भी रामकथा को आत्मसात् करना पड़ा। यह आदिकवि वाल्मीकि की ही प्रतिभा थी कि न केवल भारत वरन् निकटवर्ती विभिन्न देशों के साहित्य में भी इसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ और वाल्मीकि रामायण की कथा भारतीय संस्कृति के दीप्तोज्ज्वल प्रतीक के रूप में प्रथित हुई।
प्राचीन काल से बौद्धों ने राम की इस कथा को अपनाया और उसे जातक साहित्य में स्थान दिया। उनके इस प्राचीन साहित्य में रामकथा संबंधी तीन जातक प्राप्त हुए हैं। इनमें 'दशरथ जातक' अधिक प्रसिद्ध है और सिंहली मूल का पालि अनुवाद है। शेष दो 'अनामक जातक' और 'दशरथ कथा' चीनी अनुवाद द्वारा ज्ञात हैं। इनका मूल भारतीय रूप अद्यावधि अप्राप्य है।
बौद्धों की तरह जैनों ने भी रामकथा का अपनाया और उनके कथाग्रंथों में विस्तृत रामसाहित्य प्राप्त होता है। कल्प के त्रिषष्ठि महापुरुषों में राम, लक्ष्मण और रावण की गणना है और क्रमश: ये आठवें बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव माने गए हैं। वानर और राक्षसों को विद्याधरों के वंश की शाखा माना गया है। इनमें श्वेतांबर संप्रदाय में विमलसूरि का 'पउम चरिउ' है, जिसकी परंपरा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंशादि में प्राप्य है जिसमें कथागत कोई आमूल परिवर्तन नहीं है। इसका संस्कृत रूपांतर भी मिलता है। दिगंबर संप्रदाय में विमलसूरि के साथ गुणभद्र की रामकथा (उत्तर पुराण) विशेष प्रथित है। इसमें वाल्मीकि और सूरि से कथागत भिन्नता है और संप्रदायानुरोध से यह मूल कथा से विकृत कर दी गई है।
तिब्बती रामायण की अनेक प्रतियाँ मिलती हैं जो गुणभद्र के उत्तर पुराण से प्रभावित हैं। खोतान (पूर्वी तुर्किस्तान) की रामायण तिब्बती रामायण से मिलती-जुलती है जिसपर बौद्ध प्रभाव स्पष्ट है और कथागत नवीनता है। यह नवीं शताब्दी की है।
भारत के पूर्वी पड़ोसी देशों में भी रामायण की कथा के रूप प्राप्त होते हैं, यद्यपि देशभेद से इनमें अंतर आ गया है। वाल्मीकि की कथा का निकटवर्ती रूप जावा (हिंदेशिया) की प्राचीन रामायण में मिलता है पर अर्वाचीन कथा में भिन्नता है। इनके 'ककविन रामायण' का आधार भक्ति काव्य है। जावा और मलय की अर्वाचीन रामकथा सुमात्रा, जावा आदि में लोकप्रिय है। जावा और मलय की रामायणों में विशेष अंतर नहीं है - इनका आधार भारतीय है। हिंदेशिया की रामकथा का मूल स्रोत 'सेरीराम' (मलय) है।
हिंदचीन का 'रामकेत्ति', स्याम का 'रामकिएन' और वर्मा का 'रामयागन', थोड़े से हेरफेर के साथ एक ही मूलाधार पर हैं। सिंहली रामकथा बौद्ध जातक के रूप में अनूदित है। जावा की रामायण का नाम रामकेलिंग और सेरत कांड है। जावा और मलय की रामकथाओं पर, जो अर्वाचीन है, ककविन रामायण और मुसलिम धर्म का प्रभाव स्पष्ट है। इसके अतिरिक्त पाश्चात्य मिश्नरियों ने भी १५वीं शताब्दी से लेकर रामायण के अनेक अंशों के अनुवाद विभिन्न भाषाओं में प्रस्तुत किए हैं।
भारत में भी संप्रदाय भेद से अनेक रामायण प्राप्त हैं, (अध्यात्म रामा., आनंद रामा., अद्भुत रामा., महा रामायण ई.) जिनमें कई का उल्लेख स्वर्गीय रामदास गौड़ ने अपने ग्रंथ 'हिंदुत्व' में उनकी कथागत विशेषताओं को दिखाते हुए किया है जो द्रष्टव्य है (दे. अध्यात्म रामायण)। अन्य भारतीय भाषाओं में भी वल्मीकि रामायण को आधार मानकर रामकथा की रचना की गई जिनमें कन्नड़, बँगला पंजाबी सिंहली आदि उल्लेख्य हैं (दे. वर्मी रामायण, बर्मी भाषा और साहित्य में; रामचरित काव्य, मलयालम भाषा और साहित्य में; रामचरितमानस, रामावतार)। इस प्रकार वह स्पष्ट हो जाता है कि वाल्मीकि रामायण की रामकथा अपने प्रारंभ काल से ही चारों ओर फैली। अनेक भारतीय भाषाओं ने इन्हें अपनाया और संप्रदायों में भी ब्राह्मण धर्म में वाल्मीकि के राम विष्णु के रूप में प्राथित एवं पूज्य माने गए; बौद्धों ने इन्हें बोधिसत्व के रूप में अपनाया और जैनों ने आठवें बलदेव के रूप में राम को अपने संप्रदाय में मान्यता दी। इस क्रौंच द्वंदवियोग जन्य शोक को सभी लोगों ने देश विदेश में मान्यता दी और वाल्मीकि का करुण रस अपने विभिन्न रूपों तथा विकृतियों के साथ अपनी अपनी जगह आदरणीय हुआ। (विश्वनाथ त्रिपाठी)