रामानुजन (श्रीनिवास रामानुजन आयंगार) अलौकिक प्रतिभाशाली, भारतीय गणितज्ञ का जन्म कोयंबटूर जिले (मद्रास राज्य) के इरोड नामक नगर के एक गरीब ब्राह्मण परिवार में २२ दिसंबर, १८८७ को हुआ था। इनके दादा और पिता कुंभकोणन् (जिला तंजोर) में बजाजों के यहाँ गुमाश्ते का काम करते थे। गाँव की पाठशाला में अध्ययन करने के पश्चात्, ये कुंभकोणम् टाउन हाईस्कूल में भरती किए गए, जहाँ से दिसंबर, १९०३ में इन्होंने मैट्रिक परीक्षा पास की।

बालकपन से ही रामानुजन ने गणित में अद्भुत लगन और प्रतिभा का परिचय दिया। जब वे स्कूल की आठवीं कक्षा में थे तभी वे बी.ए. के विद्यार्थियों का गणित के कठिन प्रश्नों का हल बताया करते थे। उसी समय इन्होंने ज्या, कोटिज्या संबंधी नियमों को बिना पूर्वज्ञान के स्वयं खोज निकाला था। गणित के परिशीलन में इन्हें बड़ा आनंद मिलता था। उच्च गणित की कोई पुस्तक प्राप्त होने पर ये उसमें लीन हो जाते थे और उसके जटिल प्रश्नों का समाधान स्वयं ढूँढ़ निकालते थे। इस प्रकार इनकी अनुसंधान शक्ति का विकास हुआ।

दिसंबर, १९०३ ई. में ये मैट्रिकुलेशन परीक्षा में उत्तीर्ण होकर गवर्नमेंट कॉलेज की प्रथम वर्ष की कक्षा में भरती हुए, जहाँ इन्हें एक छात्रवृत्ति मिलने लगी। रात दिन ये गणित में ही तन्मय रहते थे और अन्य विषयों की ओर ध्यान न दे पाते थे। फलता:, आगे की कक्षा में वे न चढ़ाए गए और इनकी छात्रवृत्ति भी बंद हो गई। इससे कॉलेज में इनकी पढ़ाई बंद हो गई, किंतु गणित सबंधी इनके अनुसंधान चलते रहे, जिनसे कई मोटी मोटी कापियाँ भर गई। सन् १९०९ में इनका विवाह हुआ और रोजी कमाने की चिंता सवार हुई। कुछ विद्वान् सज्जनों ने, जो गणित में रामानुजन की विलक्षण प्रतिभा से प्रभावित हो चुके थे, इस बात की भरपूर चेष्टा की कि इन्हें ऐसी छात्रवृत्ति मिल जाए कि ये अपना सारा समय गणितीय अनुसंधान में लगा सकें, पर सब प्रयत्न विफल हुए।

रामानुजन को किसी पर भार स्वरूप अवलंबित रहना पसंद न था, इसलिए अन्य उपाय न देखकर इन्होंने मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के कार्यालय में तीस रुपये मासिक वेतन की नौकरी स्वीकार कर ली, किंतु इनके गणितीय अनुसंधान चलते रहे और इनके कई लेख जर्नल ऑव दि इंडियन मैथेमैटिकल सोसायटी में प्रकाशित हुए। कुछ मित्रों की सलाह से इन्होंने अपने लगभग १०० गणितीय परिणामों को प्रसिद्ध गणितज्ञ और केंब्रिज यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर, जी.एच. हार्डी, के पास राय के लिए भेजा। इनके गणित संबंधी शोधपत्र पढ़कर प्रो. हार्डी अत्यंत चकित और प्रभावित हुए। उन्होंने देखा कि रामानुजन की गणितीय विधि अत्यंत संक्षिप्त और मौलिक थी तथा स्थापित सूत्र प्राय: निर्दोष और उच्च कोटि के थे। उसी समय से प्रो. हार्डी ने रामानुजन को इंग्लैंड बुलाकर अपने पास रखने की चेष्टा आरंभ की, किंतु इसमें सर्वप्रथम रामानुजन और उनकी माता के कट्टर धार्मिक विचार, जिनके अनुसार समुद्र की यात्रा वर्जित थी, बाधक सिद्ध हुए।

जब भारतीय मिटीयरोलॉजी विभाग के अध्यक्ष, डाक्टर जी.टी. वाकर, मद्रास (चेन्नै) पधारे और उन्होंने रामानुजन का गणित संबंधी कार्य देखा तो वे बहुत प्रभावित हुए और उनके जोर देने पर मद्रास युनिवर्सिटी ने रामानुजन को ७५ रुपये प्रति मास की छात्रवृत्ति देना दो वर्ष के लिए स्वीकार किया। पहली मई, १९१३ ई., से इन्होंने पोर्ट ट्रस्ट की क्लर्की छोड़ी और इसके पश्चात् जीवन के अंत तक केवल गणितीय अनुसंधान करते रहे। उधर प्रो. हार्डी रामनुजन को केंब्रिज युनिवर्सिटी में बुलाने की चेष्टा में लगे रहे। उनकी चेष्टा के फलस्वरूप मद्रास युनिवर्सिटी ने रामानुजन को इस कार्य के लिए समुचित छात्रवृत्ति देना स्वीकार कर लिया। इस बीच रामानुजन तथा उनकी माता के समुद्रयात्रा संबंधी विचारों में भी परिवर्तन हो गया था, अत: रामानुजन केंब्रिज के लिए चल पड़े। अप्रैल, १९१४ ई. में वे ट्रिनिटी कॉलेज में भरती हो गए। ६० पाउंड प्रति वर्ष की एक अन्य छात्रवृत्ति भी उन्हें केंब्रिज विश्वविद्यालय से मिलने लगी।

लगभग चार वर्ष केंब्रिज में रहकर रामानुजन ने जो गवेषणाएँ की, उनकी विद्वानों ने बड़ी प्रशंसा की है। प्रो. हार्डी की राय थी कि रामानुजन नि:संदेह वर्तमान काल के सबसे अद्भुत और उत्कृष्ट गणितज्ञ हैं। सन् १९१८ में जब रामानुजन केवल ३० वर्ष के थे, वे लंदन की प्रसिद्ध, विशिष्ट वैज्ञानिक संस्था, रॉयल सोसायटी के फेलो (सदस्य) निर्वाचित हुए। इसके पहले यह महान् गौरव किसी अन्य भारतवासी को नहीं प्राप्त हुआ था। इसी वर्ष ये ट्रिनिटी कॉलेज, केब्रिज, के भी फेलो चुने गए, जिससे ६ वर्ष तक के लिए २५० पाउंड प्रति वर्ष पाने के अधिकारी हुए। मद्रास यूनिवर्सिटी ने भी ५ वर्ष के लिए वैसी ही छात्रवृत्ति प्रदान की और यूनिवर्सिटी में उन्हें विशेष प्रोफेसर का स्थान देने की योजना भी बनने लगी, किंतु भवितव्यता के आगे क्या बस चल सकता है।

सन् १९१७ में ही रामानुजन को एक असाध्य रोग ने पकड़ लिया था। वे अविरत परिश्रम करते थे और इंग्लैंड सदृश ठंडे देश में भी अपने प्रादेशिक भोजन, वस्त्र आदि का ही व्यवहार करते थे, जिससे रोग की रोकथाम कठिन हो गई। प्रथम विश्वयुद्ध के कारण भारत आना कठिन था। इसलिए वे २ अप्रैल, १९१९ ई. के पूर्व भारत वापस न पहुँच सके। तब तक उनकी चिकित्सा कराने में कुछ उठा न रखा, किंतु कुछ काम न आया और २६ अप्रैल, १९२० ई. को गणित संसार का यह सूर्य अस्त हो गया।

इनकी खोज के विषय मुख्यत: संख्या सिद्धांत, (Theory of Numbers), विभाजन सिद्धांत (Theory of Partition) तथा वितत भिन्नों का सिद्धांत (Theory of Continued Fractions) से संबंधित थे। रामानुजन में तीव्र स्मरणशक्ति के साथ गणित सबंधी ईश्वरप्रदत्त, विस्मयकारी अंतर्बुद्धि थी। इन्हें अनेक परिणाम, बिना प्रमाणों का ज्ञान हुए, सूझ जाते थे, जिन्हें वे लिख लेते थे। उनके निकाले परिणामों को समझने के लिए बड़े उच्च और नूतन गणित का ज्ञान आवश्यक है। उच्च कोटि के विद्वान् गणितज्ञ इनके कार्य को अपूर्व और अद्भुत कहते हैं और उनका दृढ़ विश्वास है कि ज्यों ज्यों समय बीतेगा इनके कार्य की महत्ता अधिक आश्चर्यजनक सिद्ध होगी। (भगवानदास वर्मा)