रामानुज का जन्म श्री पेकंबुदूर में १०२७ ई. में हुआ। वाल्यावस्था में पिता का देहांत हुआ। कांजीवरम् के यादवप्रकाश से इन्होंने वेदांत पढ़ा। पर गुरु के मत से ये सहमत न थे। श्रीरंगम् मठ के अचार्य आलवंदार अथवा यामुनाचार्य इनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर इन्हें श्रीरंगम् का महंत बनाना चाहते थे। पर इनके श्रीरंगम् पहुँचने के पूर्व ही आलवंदार का देहांत हो गया। जब ये उनके शव के पास पहुँचे तो इन्होंने देखा कि आलवंदार के दाहिने हाथ की तीन अंगुलियाँ बंद हैं। इसका अर्थ यह लगाया गया कि आलंबदार की तीन इच्छाएँ पूरी नहीं हो सकी हैं। एक इच्छा ब्रह्मसूत्र पर सुबोध भाष्य लिखने की थी। रामानुज कांजीवरम् लौट आए, यहाँ उन्हें पाँचरात्र सिद्धांत की मूल बातों का प्रत्यक्ष हुआ और इन्होंने वेरियनंबी से वेदांत का अध्ययन आरंभ किया। अध्ययन, चिंतन तथा भगवदाराधन का परिणाम यह हुआ कि ये गृहस्थाश्रम का परित्याग कर संन्यासी हो गए। संन्यासी रूप में इनकी बड़ी प्रसिद्धि हुई और लोग इन्हें आदर से यतींद्र, यतिराज आदि नामों से पुकारने लगे। रामानुज ने श्रीरंगम् में अपना आसन जमाया और आलवार भक्तिपरंपरा का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया।

इन्होंने कई ग्रंथों की रचना की। वेदांतसार, वेदार्थसंग्रह, वेदांतदीप, इनके मौलिक ग्रंथ हैं। इन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता तथा ब्रह्मसूत्र पर भाष्य भी लिखे। वैष्णव आचार्यों ने इनके भाष्य की बड़ी सराहना की और इनके भाष्य को ही एकमात्र वेदांत का भाष्य बतलाने के लिए श्रीभाष्य की संज्ञा उसे दी। इन्होंने दक्षिण भारत का भ्रमण किया। वैष्णव मंदिरों के उद्धार करने का तथा बहुसंख्यक लोगों को वैष्णव धर्म में दीक्षित करने का कार्य भी इन्होंने द्वारा संपन्न किया।

भागवत धर्म (देखिए) का विकसित रूप वैष्णव संप्रदाय है। इसके अनुसार विष्णु और भगवान् एक ही है। महाभारत में वर्णित पांचरात्र धर्म में वैष्णव संप्रदाय के मूल तत्व निहित हैं। पुराणों में श्रीमद्भागवत (देखिए) को कृष्णभक्ति का वेद माना गया है। नानाघाट शिलालेख के आधार पर तथा श्रीमद्भागवत के सक्ष्य से कहा जा सकता है कि दक्षिण भारत में वैष्णव धर्म का विकास हुआ। आलवार भक्त कवियों ने साधारण जनता में उन्हें की भाषा तमिल में भक्ति का प्रचार किया। इसीलिए वैष्णव लोगों का धार्मिक साहित्य उभय वेदांत कहा जाता है क्योंकि इसमें संस्कृत के प्रस्थानत्रयी तथा तमिल प्रबंधों को समान रूप से प्रमाण माना गया है। रामानुज इसी परंपरा में आते हैं। उन्होंने शंकर के अद्वैत वेदांत का खंडन करते हुए भक्ति को मोक्ष की प्राप्ति का सर्वोत्कृष्ट उपाय बताया। अपने मत को पुष्ट करने के लिए उन्होंने कहा कि वे केवल बोधायन, टंक, द्रमिड, कपर्दी, भारुचि जैसे शंकर के पूर्ववर्ती आचार्यों के मत का ही विस्तार कर रहे हैं। इस प्रकार रामानुज का मत ईश्वरवादी उपनिषदों, पुराणों, वैष्णव आगमों, आलवारों के तमिल प्रबंधों और बोधयन आदि आचार्यों के मत पर आधारित है। इन्होंने भक्ति की दृष्टि से वेदांत के ग्रंथों का व्याख्यान किया और अपने मत को विशिष्टाद्वैतवाद नाम दिया।

रामानुज द्वारा प्रवर्तित भक्ति संप्रदाय आज भी जीवित है और दक्षिण भारत में तो इसका अत्यधिक प्रचार है। रामानुज के दार्शनिक मत के लिए देखिए - 'विशिष्टाद्वैत' 'वेदांत'। (रामचंद्र पांडेय)