रामदास, समर्थ महाराष्ट्र में गोदावरी नदी के किनारे बसा हुआ जांमगाँव रामदास की जन्मभूमि है। चैत्र शुक्ल नवमी को शक संवत् १५३० में रामदास का जन्म हुआ। ये विवाह करना नहीं चाहते थे परंतु माता के आग्रह से विवाहमंडप में जाना इन्होंने स्वीकार किया। 'शुभमंगल सावधान' इन शब्दों को सुनते ही ये सचमुच सावधान हुए और उसी क्षण सबको आश्चर्यचकित करते हुए विवाह मंडप से भाग गए तथा नासिक पंचवटी में आ पहुँचे। यहाँ टाकली नामक स्थान पर गोदावरी के जल में खड़े होकर उन्होंने शक १५४२ से १५५४ तक बारह वर्ष गायत्री और रामजप यज्ञ में व्यतीत किए। इसी समय इन्होंने नासिक क्षेत्र में निवास करनेवाले वैदिक विद्वानों के समीप वेदों का तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया।
शक १५५४ के अंत में तपश्चर्या समाप्त कर रामदास तीर्थयात्रा के लिए चल पड़े। निकलने के पूर्व इन्होंने टाकली स्थान पर हनुमान जी की स्थापना कर अपने भावी कार्यों का शुभारंभ किया। वारह वर्ष में इन्होंने भारत के चारों दिशाओं के तीर्थ क्षेत्रों के दर्शन करते हुए सम्पूर्ण देश का पर्यटन किया और उस समय की लोकस्थिति का सूक्ष्म रूप से अवलोकन किया। सभी समाज पर दु:ख दारिद्र्य तथा किसी अकस्मात् भीषण संकट के उपस्थित होने के भय ने लोगों को निस्तेज बना रखा था। इस दुरवस्था को देख रामदास का अत:करण व्याकुल हो उठा और उन्होंने असहाय, दीन तथा दु:खी मूढ़ समाज को परमार्थ के दृढ़ पैरों पर आधारित कर्मयोग का पाठ पढ़ाने का मन में संकल्प किया तथा उसके अनुसार कृष्णा नदी के परिसर में अपने संप्रदाय की स्थापना की।
धर्म विषयक जागृति उत्पन्न होने के लिए रामदास ने कोदंडधारी रामचंद्र का आदर्श समाज के सम्मुख रखा और उसकी पुष्टि के लिए शक १५६७ में मसूर में रामजन्मोत्सव बड़े समारोह के साथ प्रारंभ किया। इसी प्रकार चाफल (ड़) नामक स्थान पर रामचंद्र जी की नई मूर्ति का स्थापन कर वहाँ भी रामोपासना का संवर्धन किया। इसी समय रामदास के कार्यों का परिचय शिवाजी महाराज को हुआ और शीघ्र ही इन दो महापुरुषों की प्रत्यक्ष भेंट हुई तथा परस्पर पोषक धर्मसंरक्षण तथा धर्मजाग्रति का कार्य अधिक उत्साह के साथ प्रारंभ हुआ। रामदास ने महाराष्ट्र के विभिन्न स्थानों पर ग्यारह हनुमानों की स्थापना कर अपने धर्मकार्यों के मानो ग्यारह केंद्र ही स्थापित किए और अनेक शिष्यों को इस उपासना की दीक्षा देकर अपने संप्रदाय का प्रचार कराया। साथ ही महाराष्ट्र को निरंतर प्रेरणा मिलती रहे, इस उद्देश्य से उन्होंने प्रभावशाली साहित्य का निर्मांण किया।
जीवन के सभी अंगों पर रामदास ने अच्छा प्रकाश डाला है। विविध प्रकार का साहित्य होने पर भी इसका ढंग कुछ निराला ही है। फुटकर श्लोक, सैंकड़ों पद्य, अनेक लघुकाव्य, प्रासंगिक उपदेश प्रकरण, रामायण जैसे कथाकाव्य, करुणार्त वाणी से प्रस्फुटित करुणाष्टक, सुभाषितों से ओतप्रोत मनाचे श्लोक और मराठी साहित्य में अद्वितीय माना जानेवाला दाबोध ग्रंथ, यह बहुमूल्य साहित्य उन्होंने प्रस्तुत किया।
विचारों की दृष्टि से रामदास के ग्रंथों पर सबसे अधिक प्रभाव भगवद्गीता का दिखलाई पड़ता है। इसके अतिरिक्त वेदोपनिषद्, द्वादश गीता, भागवत इत्यादि ग्रंथों के अध्ययन का उल्लेख दासबोध के प्रारंभ में ही किया गया है। मराठी वाङ्मय के मुकुंदराज, दासोपंत, त््रयंबकराज और एकनाथ के संस्कार भी न्यूनाधिक प्रमाण में रामदास के ग्रंथों पर पड़े हैं। ये संस्कार प्रधानत: पारमार्थिक विवेचन तक ही सीमित हैं। प्रपंचवाद, व्यवहारचातुर्य, राजकारण, कर्मयोग इत्यादि रामदास का अपना वैशिष्ट्य है।
फुटकर अभंग, भजन, करुणाष्टक आदि रामदास का काव्य आर्तवाणी से प्रस्फुटित हुआ है। करुणाष्टक उकट करुणरस से परिपूर्ण है। अपने उपास्य देव के गुणमान में लिखे हुए रामायण के युद्ध और सुंदर कांड रामदास की लेखनी से प्रसूत वीर रस के प्रभावशाली चित्रण हैं। भगवद्गीता की समता पर रचित 'मनाचें श्लोक' को रामदासी उपनिषद कह सकते हैं। सेवाधर्म, क्षात्रधर्म, संभाजी को भेजा हुआ पत्र, इत्यादि फुटकर साहित्य में रामदास के राजकीय विचारों का प्रतिबिंब अयंत स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ता है।
रामदास की सारी विचारप्रणाली उनके दासबोध नामक ग्रंथ में संगृहीत है। इसका लेखन किसी एक समय में नहीं हुआ। कुल बीस दशकों (अध्यायों) में से प्रथम सात दशकों का एक स्वयंपूर्ण ग्रंथ लिखने का रामदास का विचार रहा होगा, किंतु इतने ही पर न रुकते हुए बाद में भी जीवन के अंतिम दिनों तक समय समय पर प्रस्फुटित फुटकर समासों को एकत्रित कर रामदास ने बीस दशकों तथा दो सौ समासवाले इस ग्रंथ का निर्माण किया। इसका पूवार्ध तो अध्यात्म निरूपण से ही ओतप्रोत है। उतरार्ध में राजकारण, समाजकारण, व्यवहारचातुर्य, लोकसंग्रह, इयादि राष्ट्रोन्नति संबंधी ऐहिक विषय आए हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में उन्होंने कोई नवीन क्रांतिकारक विचारों का प्रतिपादन नहीं किया। पूर्वाचार्यों द्वारा प्रस्तुत अद्वैतता की भूमिका पर अधिष्ठित सनातन अध्यात्मवाद को ही उन्होंने अपनी सुबोध किंतु वैशिष्ट्यपूर्ण स्पष्ट भाषा में फिर से प्रतिपादित किया है।
रामदास का सम्पूर्ण साहित्य पद्यात्मक होते हुए भी उसमें काव्यमाधुरी स्वल्प मात्र ही है; ज्ञानेश्वर जी की काव्यप्रतिभा उनके पास नहीं। करुणाष्टक, स्फुट कविताएँ, भजन रामायण के दो कांड, इनमें तो रसविलास दिखलाई पड़ता है, किंतु सामान्यतया उनकी कविताएँ अलंकारहीन ही हैं। फिर भी समाजोद्धार की तीव्र लालसा हृदय में व्याप्त होने के कारण उनका सारा साहित्य ओजस्वितापूर्ण एवं स्फूर्तिदायक प्रेरणा से युक्त है।
इस प्रकार ओजस्वी मन:प्रवृत्ति के कारण रामदास तथा छत्रपति शिवाजी के संबंध अत्यंत घनिष्ठ हो गए थे। हिंदू साम्राज्य स्थापना के महत्वपूर्ण कार्य में रामदास का प्रयत्न यथेष्ट सहायक हुआ। शक १५७२ से उन्होंने सतारा के समीप सज्जनगढ़ पर निवास किया। संपूर्ण देश में फैले हुए शिष्यवर्गों द्वारा समाज को प्रपंच एवं परमार्थ के समन्वय का पाठ पढ़ाते तथा छत्रपति जैसे राज्यकर्ता पुरुष का पथप्रदर्शक करते हुए उन्होंने अपने जीवन का उत्तरार्ध व्यतीत किया। शिवाजी के मरणोपरांत अपनी जिम्मेदारी का मूल्य न समझनेवाले संभाजी को रामदास ने अनेक मूल्यवान उपदेश दिए और शिवाजी का आदर्श सम्मुख रख महाराष्ट्र पर राज्य करने की प्रेरणा दी किंतु वह निष्फल हुई।
हरिकथा निरूपण के साथ राजनीति को भी स्थान देना, धर्म संस्थापना के लिए संघटन की प्रशंसा करना, महाराष्ट्र धर्म तथा महाराष्ट्र राज्य की प्रेरणा देना, लोकसंग्रह की महिमा माना तथा प्रपंच का महत्व प्रदर्शित करना आदि अनेक विषय रामदास के साहित्य में दिखलाई पड़ते हैं। शिवाजी महाराज की मृत्यु के कारण उदास तथा विरक्त रामदास ने माघ बदी ९, शक संवत् १६०३ को देहविसर्जन किया। (शं. गु. तुड़पुड़े)