रामचरितमानस यह हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि तुलसीदास की सर्वप्रमुख कृति है। इसकी रचना उन्होंने सं. १६३१ में रामनवमी (चैत्र शुक्ला ९) को अयोध्या में प्रारंभ की थी; समाप्ति कब की, यह ठीक ठीक ज्ञात नहीं हे। इसकी भाषा अवधी है, यद्यपि तत्कालीन बोलचाल की ठेठ अवधी न हेकर उसका एक साहित्यिक रूप है, जिसमें कहीं कहीं पर ब्रजभाषा के भी रूप मिल जाते हैं। इसकी शब्दावली में संस्कृतके तत्सम तथा अर्धतत्सम शब्दों का भी बहुतायत से उपयोग हुआ है।
इसकी रचना 'चउपई-बंध' परिपाटी में की गई है। उउस समय कई काव्य परिपाटियाँ प्रचलित थीं जो प्रयुक्त मुख्य छंदों के नाम से अभिहित की जाती थीं, यथा-वार्ता बंध, दूहा बंध, रासा बंध, छप्पय बंधा, आदि। 'चउपई बंध' में, चउपई (चतुष्पदी) प्रमुख छंद होता था किंतु बीच बीच में वस्तु, रड्डा, दूहा, सोरठा या इस प्रकार के एक दो और छंदों का भी प्रयोग किया जाता था। 'मानस' में सर्वप्रमुख छंद चौपाई हैं, जिसके बीच बीच में दोहा, या सोरठा छंद आया है; इनके अतिरिक्त हरिगीतिका तथा कुछ और छंद भी कहीं कहीं प्रयुक्त हुए हैं।
'रामचरितमानस' चरितकाव्यों की परंपरा भारतीय साहित्य में बड़ी प्राचीन है। ज्ञात काव्यों में से वह वाल्मीकि के 'रामायण' से प्रारंभ होती मानी जा सकती है। तुलसीदास की यह रचना भी उसी परंपरा में आती है, किंतु इस रचना का मुख्य आधार 'अध्यात्म रामायण' था जो शिव-पार्वती-संवाद के रूप में लिखा गया था और 'ब्रह्मांडपुराण' का एक अंश माना जाता था। अत: 'मानस' में पुराण शैली के भी कुछ तत्व मिलते हैं।
'चरित' की दृष्टि से यह रचना पूर्ण रूप से सफल है। इसमें राम के जीवन की समस्त घटनाएँ आवश्यक विस्तार के साथ सुशृंखलित रूप में कहीं गई हैं। मुख्य कथा के बीच में कवि ने प्रासंगिक कथाओं को नहीं आने दिया है। मुख्य कथा से जो भी संबद्ध प्रांसगिक कथाएँ आई हैं, वे उसके पूर्व या बाद में आई हैं। इन पूर्ववर्ती कथाओं में प्रमुख राम के पूर्ववर्ती अवतारों और रावण के पूर्व भवों की हैं।
इन प्रासंगिक कथाओं के अतिरिक्त रचना में प्रस्तावना के रूप में भी कुछ कथाएँ आती हैं, जिनमें सबसे प्रमुख शिव-पार्वती-संवाद की कथा है। इस संवाद की कथा के पूर्व शिवपुराण के आधर पर संक्षेप में शिवचरित भी दिया गया है, जिसमें सीता के विरह में व्याकुल राम को देखकर पार्वती के मन में हुए उनके ईश्वरत्व के संबंध में मोह का वर्णन किया गया है। पार्वती के इसी मोह का समाधान शिव ने राम की कथा कहकर किया है, इसलिए 'मानस' की संपूर्ण रामकथा शिव-पार्वती-संवाद के साँचे में प्रस्तुत की गई है। प्रस्तावना के रूप में इसी प्रकार दो और संवाद भी रखे गए हैं- याज्ञवाल्क्य-भरद्वाज-संवाद तथा कागभुशुंडि-गरुड़-संवाद किंतु इन्हें बहुत संक्षेप में ही प्रस्तुत किया गया है। कागभुशुंडि-गरुड़-संवाद रचना के अंत में विस्तृत रूप धारण करता है और उनके साँचे में अनेक आध्यात्मिक विषयों का निरूपण होता है। यह अंश कथा से गरुड़मोह की प्रासंगिक कथा रखकर जोड़ा भर गया है, और मुख्य कथा से स्वतंत्र सा है। गीतावली को छोड़कर तुलसीदास की समस्त रामकथा संबंधिनी रचनाओं में उत्तर कां में रामभक्ति तथा कतिपय अन्य आध्यात्मिकि विषयों का इसी प्रकार निरूपण किया गया है। रचना के बीच बीच में भी कुछ स्थलों पर दार्शनिक विषयों का संक्षिप्त विवेचन कथा के पात्रों के संवादों के रूप में किया गया है। प्रस्तावनाओं तथा तत्वनिरूपण की यह परंपरा रामचरितमानस में 'अध्यात्मरामायण' तथा पुराणों से ग्रहण की गई है।
किंतु 'चरित' और 'पुराण' होने के साथ साथ रामचरितमानस एक महान् काव्यकृति भी है-और इसी रूप में वह आज के परिवर्तित परिवेश में भी समादृत हो रहा है। राम कोई ऐतिहासिक व्यक्ति थे या नहीं और उनका जो चरित तुलसीदास ने प्रस्तुत किया है वह तथ्यपूर्ण है या नहीं, इसे आज कोई नहीं देखना चाहता; राम ईश्वर के अवतार थे, और जो कुछ भी उन्होंने किया वह लीला के रूप में ही किया, वास्तव में वे मनुष्य नहीं थे-'रामचरितमानस' के अनेकानेक पाठक इसमें कदाचित् विश्वास न करते हों। आज का युग विज्ञान और बुत्रिमान का है, अत: तुलसीदास द्वारा कल्पित राम के ईश्वरत्व पर से कुछ लोगों का विश्वास उठता जा रहा हो तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। फिर भी 'रामचरितमानस' की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आ रही है। इसका कारण यह है कि इस काव्यकृति के माध्यम से तुलसीदास ने जिन आदर्शो और जीवनमूल्यों का प्रतिपादन किया, आधुनिक विवेचन की दृष्टि उन्हें उत्तरोत्तर अधिकाधिक महत्व दे रही है। चिरकाल से मानवता के सम्मुख यह प्रश्न रहा है कि सुख किसमें है - वह जीवन के भौतिक उपादानों की अधिकार उपलब्धि में है, भले ही उसके लिए किन्हीं भी उपायों का अवलंबन लेना पड़े, अथवा वह किन्हीं आदर्शों की उपलब्धि में है जिनके लिए आवश्यक होने पर जीवन के समस्त भौतिक उपादानों का भी त्याग किया जा सकता है। 'रामचरितमानस' इसी प्रश्न का एक उत्तर देता है।(रामशंकर शुक्ल)