रामकृष्ण परमहंस रामकृष्ण ने पश्चिमी बंगाल के हुगली जिले में कमरपुकुर नामक ग्राम के एक दीन एवं धर्मनिष्ठ परिवार में सन् १८३६ ई. में जन्म लिया। बाल्यावस्था में वह गदाधर के नाम से प्रसिद्ध थे। वह अपने साधु माता पिता के लिए ही नहीं, बल्कि अपने गाँव के भोले भाले लोगों के लिए भी शाश्वत आनंद के केंद्र थे। उनका सुंदर स्वरूप, ईश्वरप्रदत्त संगीतात्मक प्रतिभा, चरित्र की पवित्रता, गहरी धार्मिक भावनाएँ, सांसारिक बातों की ओर से उदासीनता, आकस्मिक रहस्यमयी समाधि, ओर सबके ऊपर उदासीनता, आकस्मिक रहस्यमयी समाधि, और सबके ऊपर उनकी अपने माता पिता के प्रति अगाध भक्ति-इन सबने उन्हें गाँव भर का आकर्षक व्यक्ति बना दिया था।

जगन्माता की पुकार के उत्तर में उन्होंने गाँव के वंशपरंपरागत गृह का परित्याग कर दिया और सत्रह वर्ष की अवस्था में कलकत्ता चले आए तथा झामपुकुर में अपने बड़े भाई के साथ ठहर गए। अंत में दक्षिणेश्वर में काली देवी के मंदिर के पुरोहित के रूप में रहने लगे।

वह शीघ्र ही जगज्जननी के गहन चिंतन में लीन हो गए और मानव जीवन के प्रत्येक संसर्ग को पूर्ण रूप से भुला दिया। माँ के दर्शन के निमित्त उनकी आत्मा की अंतरंग गहराई से रुदन के जो शब्द प्रवाहित होते थे वे कठोर हृदय को दया एवं अनुकंपा से भर देते थे। अंत में उनकी प्रार्थना सुन ली गई और जगन्माता के दर्शन से वे कृतकार्य हुए। किंतु यह सफलता उनके लिए केवल संकेत मात्र थी। असाधारण दृढ़ता और उत्साह से बारह वर्षों तक लगभग सभी प्रमुख धर्मों एवं संप्रदायों का अनुशीलन कर अंत में आध्यात्मिक चेतनता की उस अवस्था में पहुँच गए जहाँ से वह संसार में फैले हुए धार्मिक विश्वासों के सभी स्वरूपों को प्रेम एवं सहानुभूति की दृष्टि से देख सकते थे।

इस प्रकार उनका जीवन द्वैतवादी पूजा के स्तरसे क्रमबद्ध आध्यात्मिक अनुभवों द्वारा निरपेक्षवाद की ऊँचाई तक निर्भीक एवं सफल उत्कर्ष के रूप में पहुँचा हुआ था। उन्होंने प्रयोग करके अपने जीवन काल में ही देखा कि उस परमोच्च सत्य तक पहुँचने के लिए आध्यात्मिक विचार-द्वैतवाद, संशोधित अद्वैतवाद एवं निरपेक्ष अद्वैतवाद, ये तीनों महान् श्रेणियाँ मार्ग की अवस्थाएँ थीं। वे एक दूसरे की विरोधी नहीं बल्कि यदि एक को दूसरे में जोड़ दिया जाए तो वे एक दूसरे की पूरक हो जाती थीं।

जैसे जैसे समय व्यतीत होता गया, उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणीश्वर का मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील संन्यासियों का प्रिय आश्रयस्थान हो गया। कुछ बड़े बड़े विद्वान् एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक साधक, जैसे पं. नारायण शास्त्री, पं. पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते रहे। वह शीघ्र ही तत्कालीनन सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ संपर्क में आए जो बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे। इनमें केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, बंकिमचंद्र चटर्जी, अश्विनीकुमार दत्त के नाम लिए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त साधारण भक्तों का एक दूसरा वर्ग था जिसके सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति रामचंद्र दत्त, गिरीश्चंद्र घोष, बलराम बोस, महेंद्रनाथ गुप्त (मास्टर महाशय) और दुर्गाचरण नाग थे। उनकी जगन्माता की निष्कपट प्रार्थना के फलस्वरूप ऐसे सैकड़ों गृहस्थ भक्त, जो बड़े ही सरल थे, उनके चारों ओर समूहों में एकत्रित हो जाते थे और उनके उपदेशामृत से अपनी आध्यात्मिक पिपासाशांत करते थे।

आचार्य के जीवन के अंतिम वर्षों में पवित्र आत्माओं का प्रतिभाशील मंडल, जिसके नेता नरेंद्रनाथ दत्त (बाद में स्वामी विवेकानंद) थे, रंगमंच पर अवतरित हुआ। आचार्य ने चुने हुए कुछ लोगों को अपना घनिष्ठ साथी बनाया, त्याग एवं सेवा के उच्च आदर्शों के अनुसार उनके जीवन को मोड़ा और पृथ्वी पर अपने संदेश की पूर्ति के निमित्त उन्हें एक आध्यामिक बंधुत्व में बदला। महान् आचार्य के ये दिव्य संदेशवाहक कीर्तिस्तंभ को साहस के साथ पकड़े रहे और उन्होंने मानव जगत् की सेवा में पूर्ण रूप से अपने को न्योछावर कर दिया।

किंतु आचार्य अधिक दिनों तक पृथ्वी पर नहीं रह सके। १८८५ के मध्य में उन्हें गले के कष्ट के च्ह्रि दिखलाई दिए। शीघ्र ही इसने गंभीर रूप धारणा किया जिससे वे मुक्त न हो सके। १८८६ की १६वीं अगस्त को उनका निधन हो गया।

सं. ग्रं. - रोमे रोलाँ : 'लाइफ ऑव रामकृष्ण परमहंस'। (स्वामी तेजसानंद)