राम अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र जिन्हें उनके भक्त तथा धर्मनिष्ठ हिंदू भगवान् का अवतार मानते हैं। अनेक विद्वानों ने उन्हें 'मर्यादापुरुषोत्तम' की संज्ञा दी हे। वाल्मीकि रामायण तथा पुराणादि ग्रंथों के अनुसार वे आज से कई लाख वर्ष पहले त्रेता युग में हुए थे। पाश्चात्य विद्वान् उनका समय ईसा से कुछ ही हजार वर्ष पूर्व मानते हैं। अपने शील और पराक्रम के कारण भारतीय समाज में उन्हें जैसी लोकपूजा मिली वैसी संसार के अन्य किसी धार्मिक या सामाजिक जननेता को शायद ही मिली हो। भारतीय समाज में उन्होंने जीवन का जो आदर्श रखा, स्नेह और सेवा के जिस पथ का अनुगमन किया, उसका महत्व आज भी समूचे भारत में अक्षुण्ण बना हुआ है। वे भारतीय जीवदर्शन और भारतीय संस्कृति के सच्चे प्रतीक थे। भारत के कोटि कोटि नर नारी आज भी उनके उच्चादर्शों से अनुप्राणित होकर संकट और असमंजस की स्थितियों में धैर्य एवं विश्वास के साथ आगे बढ़ते हुए कर्त्तव्यपालन का प्रयत्न करते हैं। उनके त्यागमय, सत्यनिष्ठ जीवन सेभारत ही नहीं, विदेशों के भी मैक्समूलर, जोन्स, कीथ, ग्रिफिथ, बरान्निकोव आदि विद्वान् आकर्षित हुए हैं। उनके चरित्र से मानवता मात्र गौरवान्वित हुई है।

राम अद्वितीय महापुरुष थे। वे अतुल्य बलशाली, सौंदर्यनिधान तथा उच्च शील के व्यक्ति थे। किशोरावस्था में ही उन्होंने धार्मिक अनुष्ठानों में रत विश्वामित्र मुनि के परित्राणार्थ ताड़का और सुबाहु राक्षस का वध किया। राजा जनक की स्वयंवरसभा में उन्होंने शिव का वह विशल धनुष अनायास ही तोड़ डाला जिसके सामने बड़े बड़े वीरपुंगवों का भी नतमस्तक होना पड़ा था। दंडक वन में सूर्पणखा के भड़काने से जब खर, दूषण, त्रिशिरादि ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया तो अकेले ही युद्ध करते हुए उन्होंने थोड़े समय में ही उनका विनाश कर डाला। किष्किंधा में एक ही बाण से राम ने सात तालवृक्षों का छेदन कर दिया और बाद में बड़े भाई के त्रास से उत्पीड़ित सुग्रीव की रक्षा के लिए बालि जैसे महापराक्रमी योद्धा को भी धराशायी कर दिया। लंका में रावण, कुंभकर्णादि से हुआ उनका युद्ध तो पराक्रम की पराकाष्ठा का ऐसा उदाहरण है जिसकी मिसाल अन्यत्र कठिनाई से ही मिलेगी।

अपनी छवि और कांति से अगणित कामदेवों को लज्जित करनेवाले राम के सौंदर्य का वर्णन भी रामायणादि ग्रंथों में यथेष्ट मात्रा में पाया जाता है। तुलसी के रामचरितमानस में तो स्थल स्थल पर इस तरह के विवरण भरे पड़े हैं। राजा जनक जब विश्वामित्र मुनि से मिलने गए तो वहाँ राम की सुंदर छवि देखकर उन्हें अपनी सुध वुध ही भूल गई, वे सचमुच ही विदेह हो गए। उके अलौकिक सौंदर्य का यहाँ तक प्रभाव पड़ा कि 'बरबस ब्रह्म सुखहिं मन त्यागा।' जनक की पुष्पवाटिका में सीता की एक सखी ने राम को जब देखा तो वह भौंचक रह गई। सीता के निकट आकर वह केवल इतना ही कह सकी 'स्याम गौर किमि कहौं वखानी, गिरा अनयन नयन बिनु बानी।' उनके अंग प्रत्यंग का जो वर्णन किया गया है, वह अद्वितीय है। मखभूमि में तथा विवाहमंडप में भी राम के नखशिख का ऐसा ही सुंदर वर्णन मानस में दिया गया है। सामान्य लोगों की तो बात ही क्या, परशुराम जैसे दुर्धर्ष वीर को भी राम के अलौकिक सौंदर्य ने हक्का बक्का बना दिया। वे निर्निमेष नेत्रों से उन्हें देखते रह गए। ऐसा ही एक प्रसंग उस समय आया जब खर दूषण की सेना के वीर राम का रूप देखकर हथियार चलाना ही भूल गए। उनके नेता को स्वीकार करना पड़ा कि अपने जीवन में आज तक हमने ऐसा सौंदर्य कहीं देखा नहीं, इसलिए 'यद्यपि भगिनी कीन्ह कुरूपा, वध लायक नहिं पुरुष अनूपा।'

राम के पराक्रम सौंदर्य से भी अधिक व्याक प्रभाव उनके शील और आचार व्यवहार का पड़ा जिसके कारण उन्हें अपने जीवनकाल में ही नहीं, वरन् अनुवर्ती युग में भी ऐसी लोकप्रियता प्राप्त हुई जैसी विरले ही किसी व्यक्ति को प्राप्त हुई हो। वे आदर्श पुत्र, आदर्श पति, स्नेहशील भ्राता और लोकसेवानुरक्त, कर्तव्यपरायण राजा थे। माता पिता का वे पूर्ण समादर करते थे। प्रात: काल उठकर पहले उन्हें प्रणाम करते, फिर नित्यकर्म स्नानादि से निवृत्त होकर उनकी आज्ञा ग्रहण कर अपने काम काज में जुट जाते थे। विवाह हो जाने के बाद राजा ने उन्हें युवराज बनाना चाहा, किंतु मंथरा दासी के बहकाने से विमाता कैकेयी ने जब उन्हें १४ वर्ष का वनवास देने का वर राजा से माँगा तो विरोध में एक शब्द भी न कहकर वे तुरंतवन जाने को तैयार हो गए। उन्होंने कैकेयी से कहा 'सुन जननी सोइ सुत बड़ भागी, जो पितृ मातु वचन अनुरागी।' वाल्मीकि के अनुसार राम ने यहाँ तक कह दिया कि दिया कि 'राजा यदि अग्नि में कूदने को कहें तो कूदूँगा, विष खाने को कहें तो खाऊँगा।' निदान समस्त राजवैभव, उत्तुंग प्रासाद और बहुमूल्य वस्त्राभूषणों का परित्याग कर लक्ष्मण तथा सीता के साथ वे सहर्ष वन के लिए चल पड़े। जाने के पहले उन्होंने गुरु से कहलाकर ब्राह्मणों तथा विद्वानों के वर्षाशन की व्यवस्था करा दी और भरत के लिए संदेश दिया कि 'नीति न तजहिं राजपद पाये'। पिता और माताओं की सुख सुविधा का ध्यान रखने की प्रार्थना पुरजनों हितेच्छुओं से करते हुए उन्होंने कहा 'सोइ सब भाँति मोर हितकारी, जाते रहैं भुआल सुखारी' तथा 'मातु सकल मोरे विरह जेहि न होयँ दुखदीन, सो उपाय तुम करह सब पुरजन प्रजा प्रवीना'

राम जानते थे कि सीता अत्यंत सुकुमार हैं अत: उन्होंने उन्हें अयोध्या में ही रहने को बहुत समझया पर जब वे नहीं मानीं तब उन्होंने उन्हें अपने साथ ले लिया और गर्मी, वर्षा, थकान आदि का बराबर ध्यान रखते हुए सहृदय, स्नेही पति के रूप में उन्हें भरसक कोई कष्ट नहीं होने दिया। इसी तरहलक्ष्मण को भी पिता, माता ओर बड़े भाई का अनुराग देकर इस तरह आप्यायित करते रहे कि उन्हें अयोध्या तथा परिजनों के वियोगका दु:ख तनिक भी खलने नहीं पाया। मेघनाद के शक्तिबाण से लक्ष्मण के आहत होने पर राम को मर्मांताक पीड़ा हुई और वे फूट फूटकर रो पड़े। नारी के पीछे भाई का प्राण जाने की आशंका से उन्हें बड़ी ग्लानि हुई। धैर्यवान् होते हुए भी वे इस समय परम व्याकुल हो उठे। किंतु तभी संजीवनी बूटी लेकर हनुमान के लौट आने से किसी तरह लक्ष्मण की प्राणरक्षा हो सकी।

भरत पर भी राम का ऐसा ही स्नेह उनकी साधुता एवं निश्छलत पर राम का पूरा विश्वास था। इसी से भरतभी उनका पूर्ण समादर करते थे और सर्वदा उनकी आज्ञा का पालन करते थे। भरत जब इन्हें लौट लाने के लिए चित्रकूट पहुँचे तब राम ने उन्हें सत्य और कर्तव्यनिष्ठा का उपदेश देते हुए बड़े प्रेम से समझाया और सहारे के लिए अपनी खड़ाउँ देकर सहृदयतापूर्वक विदा किया। वनवास की अवधि बीतने में केवल एक दिन शेष रहने पर भरत की दशा का स्मरण कर राम अत्यंत व्याकुल हो उठे और उन्होंने विभीषण से पुष्प विमान की याचना की, जिससे वे यथासमय अयोध्या पहुँच सकें।

राम के इन्हीं गुणों के कारण समस्त अयोध्यावासी और पशुपक्षी तक उनमें अनुरक्त थे। वनवास के लिए प्रस्थान करने पर भारी संख्या में लोग तमसा नदी तक उनके साथ साथ दौड़ गए। राम को आधी रात के समय उन्हें सोते छोड़कर लुक छिपकर वहाँ से कूच कर देना पड़ा। जागने पर लोगों को बड़ा पछतावा हुआ। अत्यंत दु:खित होकर वे अयोध्या लौट आए वनवास की अवधि भर राम की मंगलकामना के उद्देश्य से नेम, व्रत, देवोपासना आदि करते रहे। उधर नाव में बैठकर राम के गंगा पार चले जाने पर सुमंत्र मूर्छित हो गया और उसके रथ के घोड़े भी रामवियोग में व्याकुल हो उठे। उस समय यदि कोई व्यक्ति राम लक्ष्मण का नामोल्लेख कर देता था तो वे पशु विस्फारित नेत्रों से उसकी ओर देखने लगते थे-'जे कहि रामलखन वैदेही, हिकरि हिकरि पशु चितवहिं तेही।' पिता दशरथ ने तो पहले ही कह दिया था कि राम के बिना मेरा जीना संभव नहीं, और यही हुआ भी। माता कौशल्या को इस बात का उतना दु:ख न था कि रामवनगमन की बात सुनकर भी मेरी वज्र की छाती विदीर्ण नहीं हुई, जितनी उन्हें इस बात की ग्लानि थी कि राम जैसे आज्ञाकारी, सुशील पुत्र की मुझ जैसी माता हुई। मतिभ्रम से पूर्व कैकेयी का भी राम से पूर्ण विश्वास था। इसी से उनके राज्याभिषेक की बात सुनकर उसने प्रसन्नता करते हुए कहा था :

''रामे वा भरते वाहं विशेषं नोपलक्षये।

तस्मात्तृष्टास्मि यद्राजा रामं राज्येऽभिषेक्ष्यति''।

प्रजा को हर तरह से सुखी रखना वे राजा का परम कर्तव्य मानते थे। उनकी धारणा थी कि जिस राजा के शासन में प्रजा दु:खी रहती है, वह नृप अवश्य ही नरक का अधिकारी होता है। जनकल्याण की भावना से ही उन्होंने राज्य का संचालन किया, जिससे प्रजा धनधान्य से पूर्ण, सुखी, धर्मशील एवं निरामय हो गई-'प्रहृष्ट मुदितो लोकस्तुष्ट: पुष्ट: सुधार्मिक:। निरामयो ह्यरोगश्च दुर्भिक्षभयवर्जित:।' तुलसीदास ने भी मानस में रामराज्य की विशद चर्चा की है। लोकानुरंजन के लिए वे अपने सर्वस्व का त्याग करने को तत्पर रहते थे। इसी से भवभूति ने उनके के मुँह से कहलाया है

'स्नेहं दयां च सौख्यं च, यदि वा जानकीमपि।

आराधनाय लोकस्य मुंचतोनास्ति मे व्यथा'।

अर्थात् 'यदि आवश्यकता हुई तो जानकी तक का परित्याग मैं कर सकता हूँ।' प्रजानुरंजन के लिए इतना बड़ा त्याग करने पर उन्हें कितनी मर्मांतक व्यथा हुई, सीता-विरह-कातर होकर किस तरह वे मुमूर्षुवत् हो गए, इसका अत्यंत करुणोत्पादक चित्रण महाकवि भवभूति की कुशल लेखनी ने 'उत्तररामचरित' में किया है।

इस तरह राम के चरित्र में भारत की संस्कृति के अनुरूप पारिवारिक और सामाजिक जीवन के उच्चतम आदर्श पाए जाते हैं। उनमें व्यक्तित्वविकास,लोकहित तथा सुव्यवस्थित राज्यसंचालन के सभी गुण विद्यमान थे। उन्होंने दीनों, असहार्यों, संतों और धर्मशीलों की रक्षा के लिए जो क्य्राा किए, आचारव्यवहार की जो परंपरा कायम की, सेवा और त्याग क जो उदाहरण प्रस्तुत किया तथा न्याय एवं सत्य की प्रतिष्ठा के लिए वे जिस तरह अनवरत प्रयत्नवान् रहे, उस सबनें उन्हें भारत के जनजनके मानसमंदिर में अत्यंत पवित्र और उच्च आसन पर आसीन कर दिया है। जब तक वाल्मीकि रामायण, तुलसी के रामचरितमानस तथा ऐसी ही शतशत अन्य रचनाओं में वर्णित राम की कीर्तिगाथा का चिंतनमनन होता रहेगा, तब तक भारतीय संस्कृति और उच्च नैतिक आदर्शों की यह सुखद परंपरा अक्षुण्ण बनी रहेगी तथा घोर दुर्दिन के समय भी वह देशवासियों को शक्ति और प्रेरणा प्रदान करती रहेगी, इसमें संदेह नहीं। (मुकुंदीलाल श्रीवास्तव)