राधेश्याम (कथावाचक) इनका जन्म सन् १८९० में बरेली में हुआ। इन्होंने लोक-नाट्य-शैली के आधार पर खड़ीबोली में रामायण की कथा को कई खडों में पद्यबद्ध किया। इस कृति ने ''राधेश्याम रामायण'' के नाम से विशेष प्रसिद्धि प्राप्त की। हिंदी भाषा-भाषीप्रदेशों, विशेषतया उत्तर प्रदेश के ग्राम ग्राम में, इसका प्रचार हुआ। कथावाचकों ने अपने कथावाचन तथा रामलीला करनेवालों ने रामलीला के अभिनय के लिए इसे अपनाया। इसके कई अंशों के ग्रामोफोन रिकार्ड बने।
सन् १९१४ में इन्होंने पारसी नाटक कंपनी ''न्यू एल्फ्रडे कंपनी'' के लिए अपना प्रसिद्ध नाटक ''वीर अभिमन्यु'' लिखा। इस नाटक की ख्याति से व्यावसायिक कंपनियों का ध्यान सुरुचिपूर्ण पौराणिक नाटकों की ओर गया। अभी तक इनके रंगमंच पर प्राय: फारसी एवं अंग्रेजी प्रेमाख्यानों के आधार पर निर्मित कुरुचिपूर्ण नाटकों का ही अभिनय किया जाता था, जिनमें अशिष्ट एवं अश्लील हास्य सामग्री के साथ प्रेम के वासनाजनित बाजारू ढंग का ही चित्रण होता था। इन कंपनियों का उद्देश्य जनसाधारण की निम्नवृत्तियों को उभाड़कर धनोपार्जन करना था। राधेश्याम कथावाचक तथा नारायण प्रसाद बेताब जैसे लेखकों को ही यह श्रेय है कि इन्होंने सुरुचिपूर्ण आदर्शवादी हिंदी पौराणिक नाटकों के द्वारा जनसाधारण को रुचि को परिष्कृत एवं परिमार्जित करने का प्रयास किया। कथावाचक जी ने इन कंपनियों के लिए लगभग एक दर्जन नाटक लिखे जिनमें ''श्रीकृष्णावंतार'', ''रुक्मिणीमंगल'', ''ईश्वरभक्ति'', ''द्रौपदी स्वयंवर'', ''परिवर्तन'' आदि नाटकों को रंगमंचीय दृष्टि से विशेष सफलता मिली। दूसरी पारसी कंपनी 'सूर विजय' के लिये लिखे हुए ''उषा अनिरुद्ध'' ने ''वीर अभिमन्यु'' नाटक के समान ही ख्याति प्राप्त की।
इन नाटकों में जनता के नैतिक स्तर को उठाने तथा रुचि का परिष्कार करने का प्रयास तो था परंतु अन्य सब बातों में पारसी रंगमंचीय परंपराओं का ही पालन किया गया था, जैसे घटना वैचित््रययुक्त रोमांचकारी दृश्यों का विधानन, पद्यप्रधान संवाद, लययुक्त गद्य तथा अतिनाटकीय प्रसंगों की योजना आदि प्राय: ज्यों की त्यों इनमें विद्यमान थी।
कथावाचक जी की कृतियों का मूल्यांकन करते समय यह मानना पड़ेगा कि साहित्यिक दृष्टि से भले ही ये उच्चस्तरीय न हों, परंतु जनप्रिय रचनाओं के द्वारा हिंदीप्रचार एवं प्रसार में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। (रघुराजशरण शर्मा)