राधावल्लभ संप्रदाय मध्यकालीन वैष्णव भक्ति संप्रदायों में राधावल्लभ संप्रदाय कृष्णभक्ति का एक प्रमुख संप्रदाय है। इस संप्रदाय का प्रवर्तन आचार्य श्री हितहरिवंश गोस्वामी ने संवत् १५९१ में वृंदावनन में किया। सभी संप्रदायों की भाँति इस संप्रदाय का भी मूल स्त्रोत ब्रह्मा ही हैं। संप्रदाय में लंबी ऋषिपरंपरा और अनुयायी माने जाते हैं जिनकी सोलहवीं पीढ़ी में हितहरिवंश का स्थान है।

वैष्णव भक्ति चतु:संप्रदाय माननेवाले इस संप्रदाय को ब्रह्म संप्रदाय अथवा माध्व संप्रदाय के अंतर्गत बताते हैं और तदनुसार गुरु परंपरा भी स्थिर करते हैं। किंतु भक्तिसिद्धांत एवं भक्तिपद्धति के अनुशीलन से यह संप्रदाय से यह संप्रदाय ही प्रतीत होता है। इस संप्रदाय के सिद्धांत द्वैत या अद्वैतपरक किसी विशिष्टदर्शन मार्ग का अनुसरण नहीं करते। प्रेम को ही भक्ति तथा संप्रदाय का मूलाधार माना जाता है। भक्तिसिद्धांतों में प्रेम, हित, प्रेम काम, प्रेम नेम, मान विरह, मिलन,अर्चा पूजा, आदि का वर्णन किसी शास्त्रीय विधिनिषेध पर आधारित नहीं है। प्रस्थानत्रयी आदि पर भाष्य लिखने का भी इस संप्रदाय में आग्रह लक्षित नहीं होता। अनंत भावों और अनंत रूपों में नित्य क्रीड़ा करनेवाला प्रेम ही केवल परातपर तत्व है। रस रूप भगवान् कृष्ण और राधा तथा परात्पर प्रेमतत्व में कोई तात्विक भेद नहीं है। इस संप्रदाय में न ता मुक्ति की कामना है और न मुक्ति का कोई स्थान है। साधनापरक कर्मकांडमयी शक्ति भी स्वीकृत नहीं है। इस संप्रदाय में मुख्य रूप से नित्यविहार दर्शन ही सहचरी (जीवात्मा) का उपास्य भाव है। इस भाव की प्राप्ति केवल प्रेम से ही होती है। नित्यविहार के विधायक चार तत्व हैं-कृष्ण, राधा, सहचरी और वृंदावन। राधा और कृष्ण नित्य विहारी हैं और जीवात्मा सुखीभाव से उनके विहार दर्शन को परम सुख मानता है। प्रेम में नित्य मिलन और विरह दोनों का विचित्र शैली से इस संप्रदाय में समाहार किया गया है। अपने इस विलक्षण प्रेमतत्व को हितहविंश ने सारस तथा चकवा चकवी के प्रणय द्वारा स्पष्ट किया हैं। प्रेम में 'तत्सुखीभाव' को स्थान देने की जैसी सफल चेष्टा इस संप्रदाय में लक्षित होती है वैसी अन्यत्र कहीं नहीं है।

उपासना का आधार रस माना जाता है, अत: बाह्य विधिनिषेध को स्थान नहीं दिया जाता। नाभादास ने कहा है कि 'विधिनिषेध नहि दास अनन्य उत्कट व्रतधारी।' रसिक स्वरूप प्राप्त करने के लिए विधिनिषेध को त्यागने का बड़े जोरदार शब्दों में उपदेश 'राधा सुधानिधि' ग्रंथ में मिलता है। राधा को कृष्ण से भी उच्च स्थान पर रखकर उपास्य माना जाता है। कृष्ण की उपासना आनुषंगिक रूप से है। राधा स्वयं आनंदरूपा, नित्यभाव है। इस संप्रदाय की उपासना को इसलिए रसोपासना कहा जाता है।

इस संप्रदाय के मंदिरों में राधा का विग्रह कृष्ण के साथ नहीं होता। कृष्ण के वाम भाग में वस्त्रनिर्मित एक गद्दी होती है जिसके ऊपर स्वर्णपत्र पर 'श्री राधा' शब्द अंकित रहता है। इसे गद्दी सेवा कहते हैं। नामसेवा समाज, अष्टयासेवा, नैमित्तिक उत्सव आदि संप्रदाय में स्वीकृत हैं। इस संप्रदाय का तिलक नासिका भाग से ऊर्ध्व भाग तक अर्थात् त्रिकुटी तक रहता है। बीच में काली बिंदी रहती है। तिलक की सीधी रेखाओं को कृष्ण और बिंदी को राधा माना जाता है। 'निज मंत्र ग्रहण करने पर दोलड़ी कंठी जिसमें तुलसी के मनके रहते हैं पहनना अनिवार्य है।

इस संप्रदाय का प्रमुख मंदिर वृंदावन में है। गुजरात, राजस्थान, बुंदेलखंड और मध्यप्रदेश में भी राधावल्लभीय संप्रदाय के अनुयायी हैं। (विजयद्र स्नातक)