राधा १. वंदावनविहारी श्रीकृष्णचंद्र की प्रियतमा, सर्वश्रेष्ठ गोपी, का नाम राधा है। उनके भौतिक जीवन की घटनाएँ नितांत स्वल्प हैं। ये वृंदावन के समीपस्थ बरसाने के आभीरपति वृषभानु नामक गोप की कन्या थीं। इनकी माता का नाम कीर्तिदा था। जन्म इनका हुआ था भाद्रपद शुक्ल अष्टमी चंद्रवार को। श्रीकृष्ण की बाललीलाओं में श्री राधा का अपूर्व योग था, परंतु इसकी पूर्णाहुति हुई महारास में, जहाँ राधा का प्रथम मिलन, तदनंतर विच्छेद और अनंतर पुनर्मिलन संपन्न हुआ था। राधा का श्रीकृष्ण के लिए प्रेम सामाजिक बंधन को उल्लंधन कर दिव्य भाव में परिणत हो गया, जो अक्रूर के द्वारा कृष्ण के मथुरा ले जाने पर और बढ़ता गया। श्रीकृष्ण के साथ गोपीजनों का-और श्रीराधा का-पुनर्मिलन हुआ कुरुक्षेत्र में, जहाँ सूर्यग्रहण के अवसर पर श्रीकृष्ण यादवों के साथ द्वारिका से सदलबल पधारे थे और नंदराय अपने गोप गोपीजनों के संग वृंदावन से आए थे (भागवत १० स्कंद, २२-८३ अ.)। यही मिलन राधा के साथ कृष्ण का अंतिम मिलन था और इसके अनंतर कोई चर्चा मुख्यतया उल्लिखित नहीं है।

वृंदावन की दिव्य भूमि में पनपनेवाले वैष्णव संप्रदायों में राधावल्लभी, चैतन्य, वल्लभाचार्य तथा निंबार्क मतों में-राधाकृष्ण की युगल उपासना आज सर्वत्र प्रचलित है, परंतु किस संप्रदाय में राधा का प्राकट्य संपन्न हुआ, इस तथ्य को इदमित्थंरूपेण निर्णीत करना नितांत कठिन है। वृंदावन के रसमय वैभव का प्रथम गायक कविवर जयदेव को माना जाता है, जिन्होंने द्वादश शती के अंतिम चरण में अपने अलौकिक रसमय काव्य 'गीतगोविंद' में राधाकृष्ण की नित्य केलि का मधुमय गायन किया। गीतगोविंद से पूर्ववर्ती संस्कृत साहित्य में राधाकृष्णन के दिव्य प्रेम का संकेत यत्रतत्र उपलब्ध होता है। आचार्य आनंदवर्धन ने (नवमी शती का मध्य भाग) 'ध्वन्यालोक' में दो उदाहरण प्रस्तुत किए हैं जिनमें राधाकृष्णन की केलि का स्पष्ट संकेत है (निर्णयसागर सं, पृ. ७७ तथा पृ. २१४)। ध्वन्यालोक से लगभग एक सौ वर्ष पूर्व निर्मित 'वेणीसंहार' नाटक की नांदी में कालिंदी के तट पर राम को छोड़कर आनेवाली केलिकुपिता राधा का अनुगमन करनेवाले श्रीकृष्ण के अनुनय का विशद उल्लेख है। महाकवि भास द्वारा प्रणीत 'बालचरित्' नाटक में राधा के नाम का अभाव अवश्य है, परंतु उस हल्लीसक (रास) का विशद वर्णन है जिसकी राधा प्राणभूता थीं। इस प्रकार जयदेव से पूर्ववर्ती संस्कृत काव्यजगत् में राधा कृष्णप्रेयसी के रूप में चिरपरिचिता थीं। प्राकृत साहित्य भी राधा के रमणीय रूप से परिचित है। हाल द्वारा संगृहीत गाथा छंदों में निबद्ध 'गाहा सत्तसई' (गाथा सप्तशती) की अनेक गाथाओं में जहाँ श्रीकृष्ण की बाललीला का सरस वर्णन है, वहाँ राधा भी प्रेम की प्रतिभा के रूप में अंकित की गई हैं। राधा के नाम से अंकित यह गाथा साहित्यिक दृष्टि से बहुत ही सुंदर तथा सरस है :

मुह मारुएण तं कहूण गोरअं राहिअएं अवणेन्तो

एताणं वल्लवीणं अण्णाणापि गौरअं हरसि (१।८९)

(त्वं कृष्ण राधिकाया मुखमारुता गौरजोऽपनयन्।

आसामन्यासामपि गोपीनां गौरवं हरसि।।)

गाथा का भाव है कि कृष्ण तुम अपने मुँह की हवा से, मुँह से, फूँक मारकर, राधिका के मुँह में लगे हुए गोरस (धूलि) को हटा रहे हो। इस प्रेमप्रकाशन द्वारा तुम इन गोपियों का तथा दूसरी गोपियों का गौरव हर रहे हो। इस गाथा में 'गौरज' शब्द दो संस्कृत शब्दों का समान प्राकृत रूप है-गोरज का तथा गौरव का। इन विभिन्न अर्थों को समान रूप पद के द्वारा अभिव्यक्त कर प्राकृत कवि ने शाब्दिक चमत्कार नि:संदेह पैदा किया है। साहित्यजगत् में राधा का नि:संदिग्ध प्रथम उल्लेख इसी गाथा में उपलब्ध होता है। हाल शालिवाहन के नाम से प्रथम शताब्दी में प्रतिष्ठानपुर में राज्य करते थे। फलत: राधा का साहित्यजगत् में आविर्भाव प्रथम शताब्दी से पूर्व की घटना नहीं माना जा सकता।

पुराण साहित्य में राधा के उदय तथा विकस की रूपरेखा निश्चित की जा सकती है। श्रीमद्भागवत की रासपंचाध्यायी (१०।३०।२४) में स्पष्टत: नहीं, केवल प्रकारांतर से, कृष्ण की परम प्रेयसी का नाम राधा संकेतित करनेवाला यह श्लोक इस विषय में ध्यातव्य है :

अनया राधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वर:।

यन्नौ विहाय गोविन्द: प्रीतो यामनयद् रह:।।

इस पद्य के आदि पद के द्वारा कृष्ण की आराधिका गोपी का अभिधान 'राधा' संकेतित किया गया है। परंतु श्रीमद्भागवत् में राधा नाम के विषय में स्पष्टोक्ति का अभाव क्यां है? इसका उत्तर सहृदय व्याख्याकारों ने जो दिया है, वह रसिको के लिए हृदयावर्जक अवश्य है। इष्टवस्तु की संपत्ति गोपन से, छिपाने से, ही सिद्ध होती है-कुंभकार के आँवाँ में सिद्ध पात्र के समान। मिट्टी के बरतनों के ऊपर मिट्टी का मोटा लेप लगाकर ही आँवे में उन्हें सिद्ध करते हैं। यद असावधानी से कोई अंश आवरण से रहित हो जाए और भाप निकलने लगे, तो वह अंश कच्चा ही रह जाता है-पककर सिद्ध नहीं होता। वही दृष्टांत इस तथ्य का प्रतिपादक है :

गोपनादिष्टसम्पत्ति: सर्वथा परिसिध्यति।

कुलालपुटके पात्रमन्तर्वाष्पतया यथा।।

'विशुद्ध रसदीपिका' के अज्ञातनामा रचयिता की दृष्टि में व्यंजना के द्वारा मार्मिक अभिव्यक्ति के अभिप्राय से ग्रंथकार ने अभिधा का आश्रयण नहीं लिया है। विपक्षी गोपियों से छिपाने के हेतु तथा रसिको के लिए व्यंजना के द्वारा नामसिद्धि के तात्पर्य से ही शुक मुनि ने अभिधा द्वारा राधा नाम का निदेशन नहीं किया।

विष्णुपुराण का रासप्रसंग भागवत के प्रसंग की अपेक्षा मात्रा में न्यून है, परंतु यहाँ भी राधा का नाम निर्दिष्ट नहीं है, केवल संकेतित ही है इस पद्य में-

अत्रोपविश्य वै तेन काचित् पुष्पैरलंकृता।

अन्यजन्मनि सर्वात्मा विष्णुरभ्यर्चितस्तया।।

(विष्णुपुराण ५।१३।३५)

इस श्लोक की अंतिम पदद्वयी भागवत के अनया राधित: के समान ही पदयोजना में है। राधित: या आराधित: के स्थान पर यहाँ तदर्थक 'अभ्यर्चित:' का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार इन प्राचीन पुराणों में राधा नाम का गुह्य संकेत ही है, स्पष्ट अभिधान नहीं। पद्मपुराण (पाताल खंड) तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण (कृष्णजन्म खंड) ही राधातत्व के उन्मीलनकर्ता महनीय पुराण हैं। इन दोनों पुराणों के विशिष्ट खंडों में राधा की जीवनी, आर्विर्भाव, सौंर्य तथा प्रभाव का बड़ा ही सांगोपांग विवरण उपलब्ध होता है। ये दोनों सम्मिलित रूप से राधाकृष्ण के तत्वोन्मीलन के विश्वकोश हैं। इनके रचनाकाल का नि:संदिग्ध परिचय न होने से अवांतरकालीन १६वीं शती के वैष्णव संप्रदायों पर इनके प्रभाव का ऐतिहासिक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। गौड़ीय गोस्वामियों ने पुराणों में से केवल पद्मपुराण तथा मत्स्यपुराण में राधा की सत्ता मानी है। जीव गोस्वामी ने 'ब्रह्मसंहिता' की टीका में 'राधा वृन्दावने' इति मत्स्यवचनात् लिखकर मत्स्यपुराणीय राधा विवरण से अपना परिचय अभिव्यक्त किया है।

'उज्जवलनीलमणि 'में लिखा है कि गोपालोत्तरतापिनी उपनिषद् में राधा गांधर्वी के नाम से विश्रुत है तथा 'ऋक् परिशिष्ट' में राधा माधव के साथ कथित है : उपनिषदों में राधा - वैष्णव उपनिषदों में से कतिपय उपनिषदों में राधा की महिमा वर्णित है। रूप गोस्वामी ने अपने प्रख्यात ग्रंथ

गोपालोत्तरतापिन्यां गान्धर्वीति विश्रुता।

राधेत्यृक् परिशिष्टे च माधवेन सहोदिता।।

आज उपलब्ध राधोपनिषद्, राधिका तापनीयोपनिषद्, सामरहस्य उपनिषदों में राधा की महिमा प्रतिपादित है। परंतु वैष्णव गोस्वामियों के ग्रंथों में इनके उद्धरण और निर्देश का अभाव इनकी प्राचीनता सिद्ध करने में मुख्यतया विघातक है।

वैदिक संहिताओं में भी राधा शब्द सकारांत राधस् तथा आकारांत राधा के रूप में उपलब्ध होता है। 'राधस्' शब्द का बहुत प्रयोग ऋक् संहिता में उपलब्ध है, राधा का केवल दो तीन बार।

यस्य ब्रह्मवर्धनं यस्य सोमो

यस्मेदं राध: स जनास इन्द्र: (ऋ. सं. २।१२।१४)

स्तोत्रं राधानां पते गिर्वाहो वीर यस्य ते।

विभूतिरस्तु सूनृता।।

यह मंत्र ऋग्वेद (१।३०।५), सामवेद और अथर्ववेद (२०।४।५।२), इन तीनों में समान रूप से उपलब्ध होता है।

'संसिद्धि' अर्थ में राध् धातु से सुन् प्रत्यय द्वारा निष्पन्न राधस् शब्द निघंटु (२।१०) में धन के नामों में पठित है। मेरी दृष्टि में राध: तथा राधा दोनों पक्षों की व्युत्पत्ति राध् वृद्धो धातु से है जिसमें 'आ' उपसर्ग के योग से आराधयति क्रियापद निष्पन्न होता है। फलत: इन दोनों शब्दों का समान अर्थ है-आराधना, अर्चना या अर्चा। पौराणिक राधा वैदिक राधस् या राधा का व्यक्तीकरण है। राधा पवित्र तथा पुण्यतम आराधना की प्रतीक है। आराधना की उदात्तता उसके प्रेमपूर्ण होने में है। सच्ची आराधना तथा विशुद्ध प्रेम का अन्योन्याश्रय संबंध है। जिस आराधना में विशुद्ध प्रेम नहीं झलकता, जो उदात्त प्रेम के साथ संपन्न नहीं की जाती, वह सच्ची आराधना कहलाने की अधिकारिणी नहीं होती। इस प्रकार राधा शब्द के साथ प्रेम के प्राचुर्य का, भक्ति की विपुलता का तथा भाव के उत्कर्ष का संबंध कालांतर में जुटता गया और धीरे धीरे राधा विशाल प्रेम की प्रतिमा के रूप में साहित्य तथा धर्म में प्रतिष्ठित हो गई।

राधातत्व का विमर्शं - राधाकृष्ण का आध्यात्मिक तत्व पूर्णतया वैदिक है। श्रीकृष्ण शक्तिमान् हैं तथा उनकी शक्ति है। क्षीर में धवलता, अग्नि में दाहिकाशक्ति तथा पृथ्वी में गंध के समान शक्ति तथा शक्तिमान् में अभेद संबंध है। शक्ति न तो शक्तिमान् को छोड़कर एक क्षण के लिए भी पृथक् रह सकती है और न शक्तिमान् ही अपनी शक्ति से विरहित होकर सामर्थ्यवान् हो सकता है। भगवान् श्रीकृष्ण अचिंत्य अनंत शक्तियों से संपन्न हैं, परंतु इनमें तीन शक्तियाँ ही मुख्य मानी जाती हैं-(१) अतरंगा शक्ति (= चित् शक्ति अथवा स्वरूप शक्ति); (२) तटस्था शक्ति (जीव शक्ति); बहिरंगा शक्ति (माया शक्ति)। भगवान् के सच्चिदानंद विग्रह होने के हेतु उनकी स्वरूप शक्ति एकात्मिका होने पर भी त्रिविधा होती है-(क) संधिनी, (ख) संवित् तथा (ग) ह्लादिनी। आनंद का आश्रयण लेकर वर्तमान होती है। ह्लादिनी वह शक्ति है जिससे भगवान् स्वयं आनन्द का अनुभव करते हैं, और दूसरों का आनंद का अनुभव कराते हैं। ह्लादिनी शक्ति विकास की चरम काष्ठा है। फलत: यह भगवान् की समस्त शक्तियों की पूर्णता की द्योतिका है, इसलिए यह सब शक्तियों में-तथा स्वरूप शक्ति में भी-मुख्य मानी गई है। राधा इसी ह्लादिनी शक्ति का नाम है। मधु में माधुर्य है, परंतु मधु को उसका अनुभव नहीं होता। उसी प्रकार श्रीकृष्ण में आनंद है, परंतु उन्हें इसकी अनुभूति स्वत: नहीं होती। राधा की वह अनुभूतिप्रदायिनी शक्ति है जिसके द्वारा कृष्ण को अपने में विद्यमान नैसर्गिक आनंद का अनुभव होता है। वे स्वयं आनंद का अनुभव करते हैं तथा जीवों को वह आनंद देते हैं। वही है राधा-सच्चिदानंद भगवत् की ह्लादिनी शक्ति।

राधा महाभाव स्वरूप है। प्रेम स्नेह, मान, प्रणय, राग अनुराग तथा भाव के रूप में क्रमश: उत्कर्ष पाता हुआ जिस विशिष्ट रूप में प्रतिष्ठित होता है वह वैष्णव शास्त्र में 'महाभाव' कहलाता है। यह प्रेम का चूडांत विकास है। श्रीकृष्ण विषयक प्रेम की अंतिम कोटि प्रेमा कहलाती है (भक्तिरसामृतसिंधु)। जब भाव या रति चित्त को अच्छी तरह ने कोमल बना देती है, चित्त चिक्कण हो जाता है, तब साधक में श्रीकृष्ण के प्रति अतिशय ममता उत्पन्न होती है। भगवान् में यही घनीभूत प्रेम प्रेमा कहा जाता है। इसी प्रेमा का अभिधान महाभाव है। राधारानी यही महाभावरूपा हैं। इस प्रकार शक्ति की दृष्टि से तथा प्रेम की दृष्टि से इन दोनों की चरम परिणति राधा में विद्यमान है।

हूलादिनी शक्तिरूपा श्रीराधा के साथ ही भगवान् नित्य वृंदावन में नृत्यलीला किया करते हैं। राधा को पाकर ही श्रीकृष्ण अपने यथार्थ आनंदस्वरूप ही अनुभूति करते हैं और इसप्रकार श्रीकृष्ण को आत्मस्वरूप की उपलब्धि के लिए राधा की कारणभूता हैं। राधा भगवान् तथा भक्तों के बीच मध्यस्थता करती है। वे ईश्वरकोटि तथा जीवकोटि दोनों कोटियों में रसरूप तथा भक्तिरूप से अपने कार्य का विस्तार करती हैं। एक ओर वे राधा ब्रजनंदन श्रीकृष्ण के आनंद की विस्तारिणी है, तो दूसरी ओर भक्तों के ऊपर भगवान् की करुणा को प्रवाहित करने में भी कारण बनती हैं। राधावाद के ये मुख्य तथ्य प्राचीन तंत्रों में व्याख्यात शक्तिवाद के विकीर्ण विभिन्न तथ्य ही एकत्र कर प्रस्तुत किए गए हैं। गंभीरता से विचार करने पर यही सिद्धांत परिस्फुटित होता है कि प्रत्यभिज्ञा दर्शन में जो शिव और शक्ति हैं, त्रिपुरामत में जो कामेश्वर और कामेश्वरी हैं वे ही गौड़ीय वैष्णवदर्शन में कृष्ण और राधा हैं।

यही राधाकृष्ण की युगल मूर्ति वैष्णव संप्रदायों में तथा उनके साहित्य में उपासना के निमित्त स्वीकृत की गई है। श्री चैतन्य, श्री वल्लभाचार्य तथा श्री निबार्काचार्य के संप्रदायों में युगल उपासना की मान्यता होने पर भी कृष्णचरण का आश्रय प्रधान है, परंतु राधावल्लभी संप्रदाय ही राधाचरण का आश्रय माननेवाला संप्रदाय है। राधा कृष्ण की निकुंजलीला में भी इन संप्रदायों में सूक्ष्म पार्थक्य है।

उपासना की पुष्टि के निमित्त ही साहित्य अपनी समृद्धि अपनी समृद्धि प्रदान करता है। वृंदावनाश्रयी कृष्णभक्तों में ही राधा मान्य नहीं हैं, अपितु दक्षिण भारत के वैष्णव मतों में भी वह कहीं गोपी के नाम से और तमिल देश में 'नप्पिनै के अभिधान से अपनी रसिकता का विस्तार करती हैं। समग्र भारत की प्रांतीय भाषाओं में कृष्णचरित्र के कीर्तनप्रसंग में राधा की अनुपम सुषमा, दिव्य प्रेम तथा उदात्त आनंद का सरस प्रतिपादन उपलब्ध होता है परंतु राधालीला का कीर्तन तो ब्रजभाषा तथा ब्रजबुली का सर्वस्व है। संस्कृत में जयदेव का 'गीतगोविंद' पदावली साहित्य का प्रथम निदर्शन प्रस्तुत करता है जिससे तथा श्रीमद्भागवत की रसमयी गीतियों से स्फूर्ति तथा प्रेरणा लेकर विद्यापति ने मैथिली में, चंडीदास, गोविंददास तथा ज्ञानदास ने ब्रजबुली में अष्टछाप के सूरदास, नंददास आदि ने, हितहरिवंश के द्वारा प्रतिष्ठित संप्रदाय के राधावल्लभी कवियों ने तथा निंबार्की कवियों ने ब्रजभाषा में इस केलि की अमृतमायी लीलाओं के चित्रण में अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया है तथा साहित्य को रसामृत से सिक्त बनाया है। तथ्य यह हैं कि राधा भारतीय भक्ति और अनुरक्ति की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है। वह भारतीय साधना और आराधना की चरम परिणति हैं। प्रेमोत्कर्ष की दृष्टि से ऐसी अनुपम कल्पना संसार के इतर साहित्यों में खोज पाना दुष्कर है।

सं. ग्रं. - डा. शशिभूषण दासगुप्त : राधा का क्रमविकास (वाराणसी १९५६); डा. रामपूजन तिवारी : ब्रजबुली साहित्य (पटना १९६०); श्री वागीश शास्त्री : श्री राधा सप्तशती (कलकत्ता २०१८ सं.); श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार : श्रीराधा माधव चिंतन (गोरखपुर, २०१८ सं.); डॉ. विजयेंद्र स्नातक : राधावल्लभ संप्रदाय, सिद्धांत और साहित्य (दिल्ली, १९५९), श्री राधागुणगान (कलकत्ता, २०१७ सं.); श्री मदण्णंगराचार्य द्रविडाम्नाय दिव्य प्रबंध विवर्त: (खेमराज श्रीकृष्णदास मुंबई, १९५८); श्री परशुराम चतुर्वेदी : भक्ति साहित्य में मधुरोपासना (इलाहाबाद सं. २०१८); बलदेव उपाध्याय : भारतीय वाङ्मय में श्री राधा (विहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, १९६३)। (बलदेव उपाध्याय)

२. घृतराष्ट्र के साथी अधिरथ या नंदन की पत्नी जिसने कुंतीपुत्र कर्ण को पाला था (दे. 'कुंती')। इसीलिए वह सूतपुत्र रूप में प्रसिद्ध रहा। राधा के नाम पर कर्ण को राधेय भी कहते हैं। (रा. हिं.)