राजेंद्रप्रसाद (डाक्टर, भारतरत्न) का जन्म ३ दिसंबर, १८८४ ई. को सारन जिले (बिहार) के जीरादेई गाँव में हुआ था। आपके पूर्वज हथुआ राज में प्रतिष्ठित पदों पर आसीन थे और आपके दादा हयुआ राज के दीवान थे। राजेंद्र बाबू की शिक्षा उर्दू और फ़ारसी से प्रारंभ हुई थी और अंग्रेजी का अध्ययन आपने हथुआ स्कूल, पटने के टी. के. घोष ऐकेडमी और अंत में छपरे के जिला स्कूल में किया था, जहाँ से आपने कलकत्ता विश्वविद्यालय की इंट्रेंस परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान पाने का गौरव प्राप्त किया। वहाँ से वे कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कालेज में भर्ती हुए जहाँ से एफ. ए. (इंटरमिडिएट परीक्षा), बी. ए. और अंग्रेजी की एम. ए. परीक्षाओं में प्रथम स्थान प्राप्त कर उत्तीर्ण हुए। उस समय सभी छात्रों के लिए विज्ञान का अध्ययन अनिवार्य था और इस प्रकार वे सर जगदीशचंद्र बसु तथा सर प्रफुल्लचंद्र राय के विद्यार्थी रहे। १९०९ ई. में कानून की बी. एल. परीक्षा देकर उन्होंने १९११ ई. से कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत शुरु की। शीघ्र ही उनकी वकालत चल निकली। १९१५ ई. में वे एम. एल. परीक्षा में बैठे और प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्प्त किया। संभवत: वे पहले व्यक्ति थे। जिन्होंने एम. एल. परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की थी। उनकी महत्ता, विद्वत्ता, त्याग और देशसेवा को देखकर ही इलाहाबाद युनिवर्सिटी ने उन्हें डाक्टर ऑव लॉ की सम्मानित डिग्री से विभूषित किया था। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद भारत सरकार ने कुछ उपाधियाँ प्रदान करने का प्रचलन चलाया, उनमें सर्वोत्कृष्ट उपाधि भारतरत्न की है। राजेंद्र बाबू का यह उपाधि सर्वप्रथम मिली।

कॉलेज के छात्र रहने के समय उन्होंने अनुभव किया कि बिहारी छात्रों की अवस्था संतोषजनक नहीं थी। उनमें आत्मसम्मान, बड़े बड़े कामों के करने में उत्साह और अपनी कार्यकुशलता में विश्वास का सर्वथा अभाव था। इसे दूर करने के लिए उन्होंने १९०६ ई. में बिहारी छात्र सम्मेलन की स्थापना की। यह सम्मेलन पीछे बिहार छात्र सम्मेलन में परिणत हो गया। इसके अधिवेशन बिहार के विभिन्न नगरों में प्रति वर्ष होते रहे और छात्रों को निबंध लिखने, वक्तृता देने और मिलजुल कर काम करने की भावना की पर्याप्त जागृति हुई। ये ही छात्र पीछे देश के नेता बने और स्वतंत्रताप्राप्ति के प्रयत्नों में उनसे बड़ी सहायता मिली। महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन शुरू होने के बाद छात्रों में दो दल हो गए तथा अधिक क्रियाशील दल राजनीति में भाग लेने के कारण अलग हो गया और इस सम्मेलन का १९२० ई. के बाद प्राय: अंत हो गया।

१९१० ई. में सर्वेंट ऑव इंडिया सोसायटी के संस्थापक श्री गोपालकृष्ण गोखले की दृष्टि राजेंद्र बाबू पर पड़ी और वे चाहते थे कि राजेंद्र बाबू उस का सदस्य बनकर देशसेवा का कार्य करें। राजेंद्र बाबू उसके लिए तैयार भी हो गए थे पर अपने बड़े भाई श्री महेंद्र प्रसाद के आग्रह पर उन्हें अपना विचार छोड़ देना पड़ा। पूने के डक्कन एडुकेशनल सोसायटी के सदृश एक संस्था खोलकर राजेंद्र बाबू एक कालेज की स्थापना कर शिक्षा का प्रसार करना चाहते थे पर राजनीति में सक्रिय भाग लेने के कारण उन्हें अपने विचार को को कार्यान्वित करने का अवसर नहीं मिला।

जब १९१६ ई. में पटना हाईकोर्ट बना तब वे कलकत्ते से पटना चले आए। यहाँ उनकी वकालत प्रथम कोटि की हो गई ओर उनकी आमदनी ३००० रु. प्रति मास तक पहुँच गई। यदि वे कुछ दिन और वकालत करते रहते तो हाईकोर्ट के जज अवश्य हो गए होते। पर उन्हें देशसेवा के लिए परमात्मा ने भेजा था और वे उसमें लग गए।

बिहार के चंपारन जिले में अनेक अंग्रेज रहते थे जो नील की खेती कराते थे और संसार के बाजार में नील बेचकर पर्याप्त धन उपार्जित करते थे। ये निलहे वहाँ के किसानों पर बहुत अत्याचार करते थे। अँग्रेज सरकार इन्हें रोकने में असमर्थ थी। असमर्थ ही नहीं थी वरन् अत्याचार कराने में कुछ अंग्रेज कर्मचारी उन्हें प्रोत्साहन भी देते थे। वहाँ एक तिनकठिया प्रथा प्रचलित थी जिसके अनुसार प्रत्येक किसान को अपने खेत के प्रति बीघे पर तीन कट्ठे जमीन में नील की खेती करना अनिवार्य था। इस खेती से किसानों को विशेष लाभ नहीं होता था। इससे वे नील की खेती करना पसंद नहीं करते थे। ऐसा न करने पर नीलवर किसानों के घरों को लूटते और मकानों को जला देते। उन्हें अपने मुर्गीखाने में बंद कर रखते और मार पीटकर नाना प्रकार के अत्याचार करते थे। इन अत्याचारों की शिकायत महात्मा गांधी के पास पहुंची और इसका ठीक ठीक विवरण प्राप्त करने के लिए महात्मा गांधी चंपारन चल पड़े। नीलवर नहीं चाहते थे कि महात्मा गांधी वहाँ जाएँ। उनपर १४४ दफा लगाकर तुरंत चंपारन छोड़कर चले जाने की आज्ञा मिली। उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया और वे पकड़ लिए गए। उनकी मदद के लिए देश के कोने कोने से लोग चंपारन दौड़ पड़े। उसी सिलसिले में राजेंद्र बाबू भी अपनी वकालत छोड़कर महात्मा गाँधी को सहयोग प्रदान करने के लिए चले आए। अंत मे विजय महात्मा गांधी को सहयोग प्रदान करने के लिए चले आए। अंत में विजय महात्मा गांधी की हुई। इस आंदोलन का विस्तृत वर्णन राजेंद्र बाबू ने 'चंपारन में महात्मा गांधी' नामक अपनी पुस्तक में किया है। तब से राजेंद्र बाबू महात्मा गांधी के बड़े विश्वसनीय साथी बन गए।

रोलैट ऐक्ट (Rowlatt Act) के विरोधी में तथा जालियाँवाला बाग के दर्दनाक कांड के प्रतिकारकस्वरूप महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन चलाया जिसमें वकीलों को वकालत छोड़ देने, छात्रों को स्कूलों और कालेजों से निकल आने और उपाधिधारियों को उपाधि छोड़ देने को कहा गया था। राजेंद्र बाबू इसमें जी जान से शामिल हो गए और उन्होंने समस्त भारत में दौरा करके असहयोग आंदोलन को आगे बढ़ाया। १९२२ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का एक अधिवेशन गया में करना निश्चित हुआ। राजेंद्र बाबू कांग्रेस का एक अधिवेशन गया में करना निश्चित हुआ। राजेंद्र बाबू कांग्रेस की स्वागतकारिणी समिति के प्रधान मंत्री नियुक्त हुए। यह उनके ही अदम्य उत्साह और परिश्रम का परिणाम था कि अधिवेशन को पूरी सफलता मिली।

असहयोग आंदोलन में छात्रों के सरकारी स्कूलों और कालेजों को छोड़ने पर ऐसा महसूस हुआ कि इस आंदोलन की सफलता के लिए राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं का होना अत्यावश्यक है। इसके लिए बिहार में बिहार विद्यापीठ की स्थापना हुई जिसके प्रिंसिपल स्वयं राजेंद्र बाबू हुए और अनेक प्रख्यात विद्वान् प्राध्यापक के रूप में कार्य करने लगे। पीछे राजेंद्र बाबू इस विद्यापीठ के उपकुलपति और कुलपति नियुक्त हुए। पर अन्य राजनीतिक कार्यों में व्यस्त रहने के कारण वे विद्यापीठ को अधिक समय और सहयोग न दे सकें जिससे यह संस्था वैसी प्रगति नहीं कर सकी जैसी इसे करनी चाहिए थी।

असहयोग के समय राजेंद्र बाबू को अनेक बार जेल जाना पड़ा था। उनके चातुर्य, अदम्य साहस और सफलता में दृढ़ विश्वास के फलस्वरूप यह आंदोलन आगे बढ़ा और १९३० ई. में श्री राजगोपालचारी ने कांग्रेस के अधिनायक पद पर इन्हें मनोनीत किया था। १९३४ ई. में बिहार में एक प्रलयकारी भूकंप आया जिसका प्रभाव डेढ़ करोड़ की आबादी पर पड़ा तथा जिसमें २० हजार व्यक्ति मरे और बहुसंख्यक मकान धराशायी हो गए। भूकंपपीड़ितों की सहायता के लिए राजेंद्र बाबू जेल से मुक्त कर दिए गए और यद्यपि उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं था, दमें से वे आक्रांत थे, पर इससे उनकी तत्परता तथा परिश्रम में कोई कमी नहीं आई और इस दैवी विपदा के हटाने में उन्होंने पूरी लगन के साथ सहयोग प्रदान किया।

१९३४ के अक्टूबर में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन बंबई में हुआ, तो उसके अध्यक्ष सर्वसम्मति से राजेंद्र बाबू नियुक्त हुए। बंबई में उनका जैसा शानदार स्वागत हुआ वैसा किसी राजे महाराजे का भी नहीं हुआ था। राजेंद्र बाबू की कार्यकुशलता अदम्य उत्साह और कार्यसंचालन में सतर्कता के कारण अधिवेशन बड़ी सफलता से संपन्न हुआ।

भारत के स्वतंत्र होने के बाद राष्ट्रीय संविधान तैयार करने के लिए एक समिति बनी जिसके अध्यक्ष राजेंद्र बाबू थे। संविधान तैयार करने में आपका बहुत बड़ा हाथ था। कुछ समय तक आप संघ सरकार के खाद्यमंत्री भी थे। संविधान के संसद् द्वारा स्वीकृत हो जाने पर प्रथम राष्ट्रपति आप ही चुने गए और १९५१ ई. से १९६१ ई. तक आप उस पद पर रहे। २८ फरवरी, १९६३ ई. को पटने में आपका देहावसान हो गया।

राजेंद्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्य काल में ही, लगभग १३ वर्ष की उम्र में, हा गया था जिस समय उन्हें यह ज्ञान तक न था कि विवाह का तात्पर्य क्या है। पर उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी।

यद्यपि राजेंद्र बाबू की पढ़ाई फारसी और उर्दू से शुरु हुई थी तथापि वी. ए. में उन्होंने हिंदी ले ली थी। वे अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, फ़ारसी तथा बंगाली भाषा और साहित्य से पूरे परिचित तथा इन भाषाओं में वे सरलता से प्रभावकारी व्याख्यान भी दे सकते थे। गुजराती का व्यावहारिक ज्ञान भी उन्हें था। एम. एल. परीक्षा के लिए हिंदू कानून का उन्होंने संस्कृत ग्रंथों से ही अध्ययन किया था। हिंदी के प्रति उनका प्रेम अगाध था। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं जैसे भारतमित्र, भारतोदय, कमला आदि में उनके लेख छपते थे। उनके निबंध सुरुचिपूर्ण तथा प्रभावकारी होते थे। १९१२ ई. में जब अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कलकत्ते में हुआ था तब स्वागतकारिणी समिति के वे प्रधान मंत्री थे। १९२० ई. में जब अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का १०वाँ अधिवेशन पटने में हुआ था तब भी वे प्रधान मंत्री थे। १९२३ ई. में जब सम्मेलन का अधिवेशन कोकोनाडा में होने वाला था तब वे उसके अध्यक्ष मनोनीत हुए थेपर रुग्णता के कारण वे उसमें उपस्थित न हो से। उनका भाषण श्री जमनालाल बजाज ने पढ़ा था। १९२६ ई. में वे बिहार प्रदेशीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के और १९२७ ई. में उत्तर प्रदेशीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे। हिंदी में इनकी आत्मकथा बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है। अंग्रेजी में भी इन्होंने कुछ पुस्तकें लिखी हैं। इन्होंने हिंदी के 'देश' और अंग्रेजी के 'पटना लॉ वीकली' का भी संपादन किया था।

राजेंद्र बाबू की वेशभूषा बड़ी सरल थी। उनके चेहरे मोहरे पता नहीं लगता था कि वे इतने प्रतिभासंपन्न और उच्च व्यक्तित्ववाले सज्जन हैं। देखने में वे सामान्य किसान जैसे लगते थे।

जैसा इलाहाबाद यूनिवर्सिटी द्वारा उन्हें डाक्टर ऑव ला की सम्मानित उपाधि प्रदान करने के समय कहा गया था-'बाबू राजेंद्रप्रसाद ने अपने जीवन में सरल, नि:स्वार्थ और निस्व सेवा का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत किया है।' 'जब वकील के व्यवसाय में चरम उत्कर्ष की उपलब्धि दूर नहीं रह गई थी, इन्हें राष्ट्रीय कार्य के लिए आह्वान मिला और उन्होंने व्यक्तिगत भावी उन्नति की सभी संभावनाओं को त्यागकर गाँवों में गरीबों तथा दीन कृषकों के बीच काम करना स्वीकार किया'। स्वर्गीय श्रीमति सरोजिनी नायडू ने लिखा था, 'उनकी असाधारण प्रतिभा, उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है। गाँधी जी के निकटतम शिष्यों में उनका वही स्थान है जो ईसा मसीह के निकट सेंट जॉन का था।' (फूलदेव सहाय वर्मा)