राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद बनारस की भाट की गली में माघ शुक्ल २, संवत् १८८० को जैन परिवार में जन्म। पिता का नाम गोपीचंद। घर पर और स्कूल में संस्कृत, हिंदी, बँगला, फारसी, अरबी और अँगरेजी की शिक्षा प्राप्त की। जागेश्वर महादेव की कृपा से उत्पन्न समझकर नाम शिवप्रसाद रखा गया। पूर्वजों का मूल स्थान रणथंभोर था। वंश के मूल पुरुष गोखरू से ग्याहरवीं पीढ़ी में उत्पन्न भाना नामक इनका पूर्वज अलाउद्दीन खिलजी के साथ रणथंभोर विजय के बाद चंपानेर चला गया। इनके एक पूर्वज को शाहजहाँ ने 'राय' की और दूसरे पूर्वज को मुहम्मदशाह ने 'जगत्सेठ' की उपाधि दी थी। नादिरशाही में परिवार के दो आदमियों के मारे जाने पर इनका परिवार मुर्शिदाबाद चला गया। बंगाल के सूबेदार कासिम अली खाँ के अत्याचारों से तंग आकर इनके दादा राजा अँग्रेजों से मिल गए जिसपर सूबेदार ने उन्हें कैद कर लिया। किसी प्रकार वहाँ से भागकर ये बनारस चले आए और यहीं बस गए। जब ये ग्यारह साल के थे, पिता का देहांत हो गया। सत्रह साल की उम्र में ही भरतपुर के राजा की सेवा में गए और राज्य के वकील का पद प्राप्त किया। तीन साल बाद नौकरी छोड़ दी। कुछ दिन बेकर रहकर सन् १८४५ में ब्रिटिश सरकार की सेवा स्वीकार की और सुबराँव के सिख युद्ध में सर हेनरी लारेंस की जासूस के रूप में सहायता की। तत्पश्चात् शिमले की एजेंटी के मीर मुंशी नियुक्त हुए। सात साल बाद नौकरी छोड़ काशी चले आए परंतु शीघ्र ही गवर्नर जेनरल के एजेंट के आग्रह पर पुन: मीर मुंशी का पद सवीकार किया और दो ही सालों के भीतर पहले बनारस में शिक्षा विभाग के संयुक्त इंस्पेक्टर और तत्पश्चात् बनारस और इलाहाबाद के स्कूल इंस्पेक्टर नियुक्त हुए। सन् १८७२ ई. में सी. आई. ई. और सन् १८८७ ई. में लार्ड मेयो ने उन्हें इंपीरियल कौंसिल का सदस्य बनाया जहाँ एलबर्ट बिल का विरोध कर उन्होंने उसे पारित न होने दिया। सन् १८७८ ई. में सरकारी नौकरी से पेंशन ले ली। इनकी यह इच्छा कि 'काशी की मिट्टी जल्द काशी में मिले' २३ मई, सन् १८९५ ई. को पूरी हुई।
राजा साहब 'आम फहम और खास पसंद' भाषा के पक्षपाती और ब्रिटिश शासन के निष्ठावान् सेवक थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इन्हें गुरु मानते हुए भी इसलिए इनका विरोध भी किया था। फिर भी इन्हीं के उद्योग से उस समय परम प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शिक्षा विभाग में हिंदी का प्रवेश हो सका। साहित्य, व्याकरण, इतिहास, भूगोल आदि विविध विषयों पर इन्होंने प्राय: ३५ पुस्तकों की रचना की जिनमें इनकी सवान-ए उमरी (आत्मकथा), राजा भोज का सपना, आलसियों का कोड़ा, और इतिहास तिमिरनाशक उल्लेख्य हैं। (शिवप्रसाद मिश्र 'रुद्र')