रॉकेट वैज्ञानिक साहित्य के आधार पर रॉकेट के आविष्कार का समय एवं आविष्कारक का नाम ठीक ठीक बताना संभव नहीं है। प्राचीन काल में लोग बारूद जैसे पाउडर का उपयोग तीर जैसे नुकीले शस्त्रों में गति लाने के लिए करते थे। शायद इसी तथ्य की उपयोगिता 'अग्निवाण' के रूप में विद्यमान रही हो। एक रूसी ज्ञानकोश द्वारा प्राप्य तथ्यों के आधार पर कहा जाता है कि रॉकेट की कल्पना सर्वप्रथम चीनियों ने ईसा से ३,००० वर्ष पूर्व की थी। लेकिन इसके बाद का चार हजार वर्ष इस संबंध में शांत सा जान पड़ता है। लगभग सन् १२२५ में पुन: चीनियों ने, युद्धास्त्रों के रूप में, रॉकेटों का उपयोग किया। तत्पश्चातृ चीन ने सन् १२३२ में रॉकेटों का उपयोग मंगोल सेनाओं के विरुद्ध किया था। फिर इस तरह का रॉकेटविज्ञान भारत, अरब, ग्रीस, जर्मनी, फ्रंास, इंग्लैंड आदि देशों में करीब सन् १२७५ तक फैल गया। इटली में रॉकेट का सर्वप्रथम प्रयोग सन् १२८१ में फोर्ली (इमिला) नामक स्थान पर हुआ। साथ ही रॉकेट आतिशबाजी के क्षेत्र में भी मनोरंजन के साधन बनते गए और इनका महत्व इस क्षेत्र में ही बढ़ता गया। लगभग ५०० वर्ष बाद भारत में अंग्रेज सेना के विरुद्ध रॉकेट पुन: युद्धास्त्र के रूप में प्रयुक्त हुए। सन् १८०४ में इस तरह के प्रयोगों से इंग्लैंड का एक सैनिक अधिकारी, सर विलियम कांग्रीव, काफी प्रभावित हुआ और इस तरह के रॉकेट अस्त्रों का निर्माण प्रारंभ कर दिया गया, किंतु रॉकेट अस्त्र अधिक विश्वसनीय साबित न हो सके, क्योंकि अधिकांश परिस्थितियों में इनका निशाना ठीक नहीं होता था। फलस्वरूप रायफल, गन तथा तोप के आगे रॉकेट अस्त्रों का महत्व लुप्त सा हो गया।

१९वीं सदी के अंतिम एवं बीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए पुन: रॉकेट का विकास हुआ। साइरेनोडी-बर्जिरेक के काल्पनिक रॉकेटचालित यान एवं जूली वेर्न के काल्पनिक रॉकेटचालित यान एवं जूली वेर्न के काल्पनिक कथानायक चंद्रयात्री साकार से होने लगे। सन् १९०३ में रूस के जिओल्कोवस्की ने अपनी पुस्तक में ऐसे रॉकेट के निर्माण का सुझाव दिया जिसमें ईधंन के लिए किरासन तेल तथा द्रव ऑक्सीजन का उपयोग किया जा सकता था, परंतु आधुनिक रॉकेट राबर्ट एच. गॉडर्ड (Robert H. Goddard) के अनुसंधान कार्य का ही परिणाम है। उन्होंने बहुत से पाउडर जैसे रॉकेट ईधंनों का अविष्कार किया, परंतु अंतरिक्ष यात्रा के स्वप्नों के पूर्वांचल में ही प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया, जिससे अंतरिक्षयात्रा का महान् स्वप्न भंग हो गया।

उन्हीं दिनों अमरीकन गवर्नमेंट में फौजी आवश्यकताओं के लिए अधिक रेंज के रॉकेटों के निर्माण हेतु गॉडर्ड को धन प्रदान किया। नवम्बर, १९१८ ई. में गॉडर्ड एवं हिकमैन (C. N. Hickman) ने सिंगल चार्ज 'राकेट' (४०% नाइट्रोग्लिसरीन + ६०% नाइट्रोसेलुलोस वाले) का प्रदर्शन ऐवर्डीन (Aberdeen) के मैदान में किया।

दूसरे विश्वयुद्ध के वर्षों पूर्व जर्मनों, रूसियों एवं अंग्रेजों ने रॉकेट अस्त्रों का विकास कर लिया था। जर्मनों ने द्रव ईधंन का प्रयोग कर बी-२ रॉकेटों का निर्माण किया और अक्टूबर, १९४२ को उन्हें छोड़कर विश्व को चकित कर दिया। येकरीब ३,६०० मील प्रति घंटे की चमत्कारिक गति से करीब ६० मील की ऊँचाई तक पहुँचे और लगभग १२ टन वजनी, ४६ फुट लंबे एवं ५ फुट व्यास के होते थे। इनमें प्रयुक्त द्रव ईधंन में ७,६०० पाउंड ऐल्कोहॉल एवं ११,००० पाउंड द्रव ऑक्सीजन था।

रॉकेट के मूलभूत सिद्धांत - संवेग अविनाशिताका सिद्धांत एवं गति संबंधी न्यूटन के तीसरे नियम पर ही रॉकेट के मूलभूत सिद्धांत आधारित हैं। न्यूटन के नियम के अनुसार, प्रत्येक क्रिया की उसके बराबर एवं उल्टी दिशा में प्रतिक्रिया होती है। साधारण बंदूक से जब गोली छूटती है, तब उसी क्षण बंदूक को उल्टी दिशा में धक्का लगता है। इसी प्रकार जब आतिशबाजी के बाण की पूँछ में भरी बारुद को दागते हैं, तब धड़ाके के साथ बारूद जलती है एवं उस विस्फोटक से उत्पन्न तप्त गैसें पूँछ से बाहर तेजी के साथ भागती हैं और प्रतिक्रिया बल उल्टी दिशा में बाण को वेग प्रदान करता है। इसी तरह जब रॉकेट में भी रखे हुए विस्फोटक पदार्थों का विस्फोटक कराया जाता है, तब उत्पन्न हुई तप्त गैसें, अधिक ताप एवं दबाव पर, तीव्र वेग से चंचु (nozzle) के रास्ते बाहर, पीछे की दिशा में भागती हैं और परिणामस्वरूप राकेट को आगे बढ़ने के लिए प्रतिक्रिया बल मिलता है।

किसी भी रॉकेट में संपूर्ण ईधंन की मात्रा से प्राप्त संवेग का मान स्थिर होता है। यदि Mo रॉकेट, एवं उसमें रखे ईधंनों की मात्रा (प्रज्जवलन के पूर्व), Mo प्रज्वलन के बाद रॉकेट की मात्रा, 'C' तप्त गैसों का प्रभावी निकास वेग, Vo ईधंनों के प्रज्वलन के पूर्व रॉकेट का वगे एवं V दहन के बाद रॉकेट का वेग हो, तो यह प्रदर्शित किया जा सकता है कि : V = Vo + C loge Mo/ Ve । हवा के घर्षणबल एवं पृथ्वी के गुरुतव-बल के कारण रॉकेट का वास्तविक वेग V से थोड़ा कम ही होगा। अधिक परास के प्रभावशाली रॉकेटों के निर्माण हेतु तप्त गैसों का प्रभावी निकास वेग (C) एवं मात्रा अनुपात (Mo/ Me) का उच्चमान होना चाहिए।

ईधंनों के प्रज्वलन गति एवं तप्त गैसों के निकास वेग द्वारा रॉकेट का प्रणोद (thrust) ज्ञात किया जा सकता है। यदि F रॉकेट का प्रणोद Mp ईधंनों की मात्रा, एवं t ईधंनों के प्रज्वलन का समय हो, तो यह प्रदर्शित किया जा सकता है कि F = Mp. C/t । सैद्धांतिक रूप से यह प्रदर्शित किया जा सकता है कि सर्वोच्च प्रणोदमान उसी समय प्राप्त होगा जब तप्त गैसें उच्च दाब से निर्वात में निकालती हों।

अनुसंधानों द्वारा ज्ञात किया गया है कि रॉकेट का वेग बढ़ाने के लिए निम्न दो उपाय काम में लाए जा सकते हैं :

(1) रॉकेट में रखे विस्फोटक पदार्थों की मात्रा बढ़ाई जाए, एवं (२) विस्फोटक पदार्थों का किस्म ऐसा हो जिससे C का मान बहुत अधिक हो। रॉकेट-ईधंनों के मँहगे होने से पहला तरीका फजूलखर्ची का है। अत: कोशिश रहती है कि दूसरी तरीका ही अपनाया जाए। हिसाब लगाया गया है कि यदि रॉकेट का वेग C से तीन गुना करना हो, तो रॉकेट पर लादे गए ईधंनों का भार खाली रॉकेट के भार भरकम होते हैं।

रॉकेट ईधंन - रॉकेट की दो प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है : ठोस ईधंन रॉकेट एवं द्रव ईधंन रॉकेट। ठोस ईधंन (बारूद, गंधक, कार्बन और पोटैशियम नाइट्रेट) रॉकेट के धड़ में रखा गया है। ठोस ईधंन के साथ साथ परक्लोरेट भी रखा रहता है, जिससे विस्फोट के लिए ऑक्सीजन प्राप्त हो सके। परक्लोरेट ऑक्सीकारक का कार्य करता है। जब ईधंन प्रज्वलित किया जाता है, तब ऑक्सीजन और कार्बन मिलकर कार्बन डाइऑक्साइड बनता है और साथ ही पोटैशियम नाइट्रेट के अणुओं के टूटने से नाइट्रोजन मुक्त हो जाता है। यही गैसें रॉकेट के चंचु से बाहर ऊँचे वेग से निकलती हैं और तब प्रतिक्रिया बल पाकर रॉकेट ऊपर को उठता है। ठोस ईधंन के प्रयोग में एक भारी असुविधा यह है कि प्रज्वलन क्रिया पर कोई नियंत्रण नहीं किया जा सकता है। सारा ईधंन खत्म होने तक रॉकेट इंजन चालू रहता है। चित्र १. में ठोस ईधंन रॉकेट की आवश्यक रूपरेखा प्रदर्शित है।

चित्र १. ठोस ईधंन वाला राकेट

द्रव ईधंन रॉकेट में मुख्यतया ऐल्कोहॉल, द्रव हाइड्रोजन, पेट्रोल और किरासिन उपयोग में लाए जाते हैं। ये द्रव ईधंन रॉकेट में बने हुए एक कक्ष में रख जाते हैं तथा इनके प्रज्वलन के लिए ऑक्सीकारक, जैसे द्रव ऑक्सीजन, दूसरे कक्ष में रखा जाता है। नियंत्रित रूप में ऊँची दाब की वायु के जोर से ईधंन एव ऑक्सीकारक प्रज्जवलन कक्ष में भेजे जाते हैं, जहाँ विद्युत् चिनगारी से प्रज्जवलन क्रिया कराई जाती है। चित्र २. में द्रव ईधंन रॉकेट की आवश्यक रूपरेखा दी गई है।

एक से अधिक सोपान के रॉकेट - एक सोपान के रॉकेटों से महत्तम वेग कुछ हजार मील प्रति घंटे के करीब का ही प्राप्त हो सकता है। अंतरिक्ष अनुसंधान एवं चाँद-सितारों की यात्राओं के लिए १८,००० मील प्रति घंटा, अथवा इससे भी ऊपर के वेग आवश्यक होंगे। उदाहरणार्थ भू-उपग्रह स्थापित करने के लिए रॉकेट का वेग १८,००० मील प्रति घंटा होना चाहिए। पृथ्वी के गुरुत्व बल को परास्त कर

चित्र २. द्रव ईधंन वाला राकेट

पलायन वेग प्राप्त करने के लिए २५,००० मील प्रति घंटे का वेग आवश्यक होगा। समस्याओं को अमरीका एवं रूस के इंजीनियरों ने सफलतापूर्वक हल किया है। उन्होंने दो या तीन रॉकेट एक दूसरे पीछे जोड़ दिए। यदि दो रॉकेट जोड़े गए हों तो, दो सोपानों का रॉकेट, या द्विखंडी रॉकेट, कहलाता है और इसी तरह तीन रॉकेटों से बने हुए रॉकेट को त्रिखंडी रॉकेट कहते हैं। सबसे पहले नीचे का प्रथम सोपान वाला रॉकेट दगता है और ऊपर के रॉकेट को लिए हुए यह आकाश में ऊपर उठ जाता है प्रथम रॉकेट का ईधंन जब समाप्त हो चुकता है, तब ठीक उसी क्षण द्वितीय सोपान का रॉकेट स्वचालित यंत्रों द्वारा अपने आप दग जाता है और तब यह प्रथम सोपान के रॉकेट की गोद से ऊपर उठ जाता है। प्रथम सोपान का रॉकेट थोड़ी देर बाद नीचे गिर जाता है। इसी तरह द्वितीय सोपान के रॉकेट का ईधंन जिस क्षण समाप्त होता है ठीक उसी क्षण तृतीय का रॉकेट दगता है और द्वितीय सोपान के रॉकेट की गोद से यह ऊपर उठ जाता है। फल यह होता है कि इसरीति से तृतीय सोपान के रॉकेट को करीब १८ हजार मील प्रति घंटे का वेग प्राप्त हो जाता है। चार, या पाँच खंडवाले रॉकेट द्वारा २५,००० मील प्रति घंटे का भी वेग प्राप्त किया जा सकता है।

बजिरेक तथा जूली वेर्न की कल्पनाएँ यथार्थं की ओर - विज्ञान का सबसे बड़ा आश्चर्य, रूसी रॉकेट 'ल्यूनिक-१', २ जनवरी, १९५९ को छोड़ा गया था, जो चंद्रमा के निकट से गुजरता हुआ एक दम आगे बढ़ गया और सूर्य की पकड़ में आकर उसी की परिक्रमा करनेवाला ग्रह बन गया। निस्संदेह रूस का यह सूर्य-राकेट 'ल्यूनिक-१' बीसवीं सदी की वैज्ञानिक सामर्थ्य का एक महान् प्रतीक है। इसके पूर्व कोई भी आकाशयान पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त होकर बाहर नहीं जा सका था। तदुपरांत रूस ने पुन: अपना चंद्र रॉकेट 'ल्यूनिक-२' छोड़ा, जो अपनी ३४ घंटे की उड़ान के बाद चंद्रमा के पूर्वनिश्चित स्थल पर पहुंच गया। फिर ४ अक्टूबर, १९५९, को 'ल्यूनिक-३' छोड़ा गया, जिससे चंद्रमा के अदृश्य भाग क चित्र लिया जा सका। १२ अप्रैल, १९६१, को रूस ने 'वोस्तोक-१' छोड़ा, जिसमें दुनिया का सर्वप्रथम अंतरिक्ष यात्री मेजर यूरी ऐलेक्ज़ीविच गागारिन बैठा था। फिर तो इस तरह की, एवं इससे भी बड़े पैमाने की, कई यात्राएँ अमरीका एवं रूस के साहसी उड़ाकों ने कीं।

भविष्य के रॉकेट - यातायात के क्षेत्र में परमाणु ऊर्जा का उपयोग सफलतापूर्वक प्रारंभ किया जा चुका है। अमरीका एवं रूस ने कई पनडुब्बियाँ तैयार की हें, जिनके इंजन परमाणु शक्ति पर ही आधारित हैं। स्वाभाविक ही था कि रॉकेटों लिए भी परमाणु ऊर्जा को काम में लाने की बात सोची जाए। 'आयन' एवं 'फोटॉन' रॉकेटों की कल्पना परमाणु ऊर्जा के उपयोग से ही की जा रही है। गणना-

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चित्र ३. तीन सोपानवाले राकेट द्वारा पृथ्वी से चंद्रमा तक यात्रा और वापसी

बाएँ : झ. रॉकेट का प्रस्थान, ज. प्रथम सोपानकक्ष का त्याग, छ. द्वितीय सोपानकक्ष का प्रज्वलन, च. निकास टावर का त्याग, घ. द्वितीय सोपानकक्ष का त्याग, क. तृतीय सोपानकक्ष तथा अंतरिक्षयान का पृथ्वी की कक्षा में स्थापन, ख, तृतीय सोपानकक्ष अंतरिक्षयान को पृथ्वी की कक्षा से चंद्रमा के प्रक्षेपपथ पर फेंकता है तथा क. तृतीय सोपानकक्ष का त्याग; मध्य में ऊपर : क. घूर्णन द्वारा अग्रस्थ पुच्छ स्थिति, ख, प्रतिवर्ती विस्फोट से गति धीमी हो जाने के कारण अंतरिक्षयान चंद्रमा की कक्षा में स्थापित हो जाता है, ग. चंद्रपर्यटन के लिए लधुयान अलग होकर चंद्रमा पर उतरता है तथा घ. आदेशक एवं सेवकयान चंद्रकक्षा में रह जाता है; मध्य में नीचे : घ. आज्ञा को कार्यान्वित करानेवाला यान कक्षा में, ग. लघुयान से संमिलन, ख. अंतरिक्षयान रिक्त लघु यान को, जो चंद्रकक्षा में रह जाता है, त्याग देता है तथा क. अंतरिक्ष यान पृथ्वी की ओर घूमकर चलता है; दाहिने : क. सेवकयान अलग हो जाता है, ख. आदेशयान घूम जाता है, ग. आदेशयान का पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश, घ. गतिरोधक पैराशूट का खुलना, च. मुख्य : पैराशूट का खुलना, तथा छ. पृथ्वी पर आगमन और पैराशट से निस्तार।

नुसार 'आयन राकेट' थोड़े ही ईधंन से काफी अर्से तक चालू रखे जा सकते हैं, परंतु इनमें प्राप्त प्रतिक्रिया-बल रासायनिक ईधनों की अपेक्षा कम ही होगा। अत: स्पष्ट है कि आयन-इंजन रासायनिक इंजनों के सहायक के रूप में प्रयुक्त हो सकता है। अंतरिक्ष में रॉकेट के पहुँच जाने के बाद आयन इंजन को चालू कर रॉकेट को काफी लंबे समय तक चलाया जाना संभव होगा और इच्छानुसार वेग एवं दिशा पर नियंत्रण रखा जाना संभव होगा

अधिकांश सितारों की दूरियाँ कई प्रकाशवर्षों में हैं। अत: सितारों की दुनियाँ में पहुँचने के लिए ऐसे रॉकेटों का उपयोग जरूरी होगा जिनका वेग आजकल के रॉकेटों की अपेक्षा बहुत ही अधिक हो। वैज्ञानिकों ने सोचा कि संसार में महत्तम वेग प्रकाश-कणिकाओं, फाटॉनों (photons), का ही है, तो क्यों न हम अपने रॉकेट इंजन में फोटॉनों का ही उपयोग करें। 'फोटॉन' कणों की बौछार प्रकाश के वेग (१ लाख ८६ हजार मील प्रति सेकंड) से पीछे की ओर भागेगी, तो रॉकेट को आगे बढ़ने के लिए तीव्र वेग मिलेगा। हो सकता है, दो चार वर्षों के अंदर अंदर 'फोटॉन' राकेट अंतरिक्ष की लंबी मंजिलों की यात्रा के लिए प्रयुक्त होने लगें। इनका वेग लगभग डेढ़ लाख मील प्रति सेकंड होगा। रूस एवं अमरीका इस क्षेत्र में काफी प्रयत्नशील हैं। (शु. प्र. मि.)