रांगेय राघव (१९२३-१९६२ ई.) रामानुजाचार्य परंपरा में तमिलदेशीय आयंगार ब्राह्मणकुलात्मज श्री रंगाचार्य तथा श्रीमति कनकांमा के पुत्र थे। श्री रंगाचार्य के पूर्वज लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व पहले जयपुर और फिर भरतपुर नरेश से प्राप्त 'वैर' (वयाना, राजस्थान के निकट) नामक कस्बे में जागीर पर स्थायी रूपेण रहने लगे थे। रांगेय राघव हिंदी प्रदेश में ही जन्मे किंतु उन्हें तमिल और कन्नड़ का भी ज्ञान था। उनकी शिक्षा सेंट जांस कालेज, आगरा में हुई। गोरखनाथ पर अनुसंधान करके उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की।

रांगेय राघव ने शताधिक ग्रंथ लिखे हैं-लगभग ४२ उपन्यास, ११ कहानीसंग्रह, १२ आलोचनात्मक ग्रंथ, ८ काव्य, ४ इतिहास, ६ समाजशास्त्र से संबंधित पुस्तकें, ५ नाटक और लगभग ५० अनूदित ग्रंथ। २० पुस्तकें अभी तक अप्रकाशित हैं।

हिंदी में राघव जी कथाकार के रूप में अधिक सफल हुए। 'मुर्दों का टीला' जैसे ऐतिहासिक और 'कब तक पुकारूँ' जैसे आंचलिक उपन्यासों में उनकी कला का सर्वोत्कृष्ट रूप दर्शनीय है। 'समाजवादी यथार्थ' उनके उपन्यासों का विषय है-उन्होंने अनेक उपन्यासों में भारतीय इतिहास को द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दृष्टि से चित्रित किया है। लघु कथाओं में 'ऐयाश मुर्दे', 'देवदासी', 'अंगारे न बुझे' आदि संगह विशेष प्रसिद्ध हुए। कथाओं में भी लेखक का यथार्थवादी आग्रह ही सर्वत्र मिलता है, व्रज क्षेत्र के जनजीवन को राघव जी ने बड़ी पैनी दृष्टि से अंकित किया है। रांगेय राघव प्रेमचंद की परंपरा को अधिक सूक्ष्म, अधिक विस्तृत और अधिक मनोविज्ञानपरक बनाने में सफल हुए हैं। उनका कथा साहित्य भारतीय समाज का दर्पण है।

'भारतीय परंपरा और इतिहास' और अन्य पुस्तकों में लेखक ने प्रागैतिहासिक युग से आधुनिक युग तक इतिहास और परंपराओं की भौतिकवादी व्याख्या की है। 'महायात्रा' में लेखक ने समूचे इतिहास को कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है। उनके नाटकों के विषय भी ऐतिहासिक ही अधिक हैं, विरुद्धक, रामानुज आदि। इतिहास के प्रति इस रुचि के कारण ही रांगेय राघव अपने कथा-नाट्य-साहित्य में अन्य ऐतिहासिक उपन्यासकारों की तुलना में सामाजिक शक्तियों और मानवीय संबंधों का विश्लेषण अधिक गंभीरता से कर सके हैं।

काव्य के क्षेत्र में उनका 'मेघावी' काव्य 'हिंदुस्तानी अकादमी' से पुरस्कृत हुआ था जो कामायनी परंपरा का काव्य है, परंतु उसकी दृष्टि रहस्यवादी नहीं, जनवादी है। 'अजेय खंडहर' में 'स्तालिनग्राद' के युद्ध का रोमांचकारी वर्णन है। मृत्यु से पूर्व उनका 'उत्तरायण' महाकाव्य लिखा जा रहा था जो अपूर्ण रह गया।

राघव जी के बंगाल के अकाल पर लिखे गए रिपोर्ताज अत्यधिक मार्मिक हैं।

अनुवादों में उन्हें अपने शीघ्रतावाद के कारण उतनी सफलता नहीं मिली, विशेषकर शेक्सपियर के नाटकों के अनुवादों में, किंतु संस्कृत के अनुवाद आकर्षक हैं। मेघूदत का सचित्र अनुवाद उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है।

राघव जी प्रगतिवादी धारा के एक प्रमुख स्तंभ थे। किंतु वह मार्क्सवादी दर्शन को संशोधित रूप में ही स्वीकारते थे। 'कुत्सित समाजशास्त्र' के विरुद्ध उन्होंने 'प्रगतिशील साहित्य के मानदंड' में प्रबल अभियान किया है। हिंदी में 'प्रगतिशील लेखक संघ' के वह सक्रिय सदस्य रहे और उसके प्रमुख पत्र 'हंस में लिखते रहे। उन्होंने साहित्य पर राजनीतिक दलों के अंकुश को कभी स्वीकार नहीं किया। इस संबंध में उनका डा. रामविलास शर्मा से सैद्धांतिक विवाद भी चला था।

डा. रांगेय राघव ने केवल ३९ वर्ष की अवस्था में इतना अधिक कार्य किया है कि आश्चर्य होता है। (व्शिवंभर राय उपाध्याय)