रसेल, बर्ट्रेंड आर्थर विलियम रसेल की गणना बीसवीं शताब्दी के सुख्यात दार्शनिकों में की जाती है। इसका जन्म १८ मई १८७२ ई. को इंगलैंड में हुआ था। बाल्यावस्था में ही माता पिता की मृत्यु हो जाने से पितामह और पितामही ने इसका पालन पोषण किया। ११ वर्ष की उम्र में रसेल यूक्लिड की ज्यामिति में रुचि रखने लगा था। गणित की यह रुचि सारे जीवन विकसित होती रही। १५ वर्ष की उम्र में यह देकार्त से मिलते-जुलते सिद्धांत पर पहुँच गया था। केंब्रिज का विद्यार्थी बनते समय उसकी अवस्था १८ वर्ष थी। घर पर जर्मनी, स्वित्सरलैंड और इंगलैड के शिक्षकों से ज्ञान अर्जित किया। केंब्रिज में पहले वह तीन वर्ष गणित का अध्ययन करता रहा किंतु चौथे वर्ष उसने दर्शन पर अपना ध्यान विशेष केंद्रित कर लिया। वहाँ हेनरी सिजविक, जेम्स वार्ड और जी. एफ. स्टाउट जैसे विद्वानों से उसे मार्गदर्शन प्राप्त होता रहा। रसेल ने कुछ समय के लिए अध्यापन कार्य भी किया किंतु उग्र राजनीतिक विचार का होन के कारण उसे विश्वविद्यालय छोड़ा पड़ा।
रसेल ने दर्शन, तर्कशास्त्र, गणित, शिक्षाशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति आदि विषयों पर बहुत अधिक लिखा है। सभी रचनाओं की सूची बहुत लंबी है। कुछ महत्वपूर्ण रचनाएँ ये हैं-प्रिंसिपिया (ह्वाटहैड के साथ), फिलसाफिकल एसेज, दि प्राबलम, आँव फिलासफी, इंट्रोडक्शन टु मैथेमेटिकल फिलासफी, दि एनालिसिस आव माईडं, दि एनालिसिस ऑव मैटर, ऐन आउटलाइन ऑव फिलासफी, ऐन इंक्वायरी इनटू मीनिंग ऐंड ट्रुथ, ए हिस्ट्री आव वेस्टर्नं फिलासफी।
रसेल आधुनिक दर्शन का युगप्रवर्तक माना जाता है। आधुनिक तर्कशास्त्र (गणितीय तर्कशास्त्र) और दार्शनिक विश्लेषण समझने के लिए रसेल की रचनाओं का अध्ययन नितांत अपेक्षित है। गणित के क्षेत्र में और विज्ञान का दर्शन निरूपित करने में उसका विशेष योगदान रहा है। राजनीति, अर्थशास्त्र आदि सामाजिक विषयों में भी उनकी रुचि प्रारंभ से ही रही हैं। इन विषयों पर भी वह समय पर लेख लिखता रहा है। आज भी वह स्वतंत्र चिंतक के रूप में प्रसिद्ध है।
दर्शन के क्षेत्र के विचार परिवर्तित होते रहे हैं। जैसे जैसे उसने गंभीरता से विचार किया और सिद्धांतों में परिवर्तन की अपेक्षा समझी, उसने बिना संकोच अपने पुराने सिद्धांतों का खंडन कर नए सिद्धांत स्थापित कर दिए। प्रारंभ में उसने वर्कले के सिद्धांत 'दृष्टि-सृष्टि-वाद' का खंडन किया और चिंतन की क्रिया तथा चिंतन के विषय में भेद स्वीकार किया। इस प्रकार उसने बाह्य वस्तुओं की सत्ता मान ली। रसेल के विचार से संसार का निर्माण करनेवाले मूल तत्त्व थे-भौतिक वस्तुएँ, सामान्य, इंद्रिय विवरण और इन सब का ज्ञाता मन। भौतिक वस्तुओं का ज्ञान वर्णन से (बाई डिस्क्रिप्शन) प्राप्त होता है और सामान्य तथा इंद्रियविवरण का ज्ञान परिचय से (बाई एक्वेंटेंस) मिलता है। कुछ समय वाद रसेल ने तत्वों की संख्या कम कर दी। उसने भौतिक वस्तुओं को मूल तत्त्व मानना आवश्यक नहीं समझा किंतु उनको विभिन्न परिप्रेक्षों से प्राप्त इंद्रियविवरणों की तार्किक रचना (लाजिकल कंसट्रक्शन) मात्रा माना। इस प्रकार उसने बाह्य जगत् को मानते हुए भी भौतिक वस्तुओं को समाप्त कर दिया। मन और पुद्गल की प्राचीन जटिल समस्या को उसने 'तटस्थ विशेषों' (न्यूट्रल पर्टीकुलर) की उद्भावना कर सुलझाने का प्रयत्न किया। उसके विचार से ये तटस्थ विशेष न मानसिक हैं और न भौतिक, वरन् एक प्रसंग में वे मनोविज्ञान की विषयस्तु हैं और दूसरे प्रसंग में भौतिक शास्त्र की। इस प्रकार रसेल वस्तुवाद से प्रारंभ करके बहुत कुछ अध्यात्मवादी हो गया, किंतु उसे प्राचीन अर्थ में न वस्तुवादी कहा जा सकता है और न अध्यात्मवादी।
रसेल ने तार्किक अणुवाद की उद्भावना करके दर्शन में एक नई दिशा खोल दी है। इसके अनुसार के बाद जो परमाणु प्राप्त होते हैं वे भौतिक अणु न होकर तार्किक अणु होते हैं। विश्लेषण का विषय तथ्य है। श्लिष्ट तथ्यों का विश्लेषण करके रसेल ने मूल तथ्य खोजने का प्रयत्न किया है। इससे प्रभावित होकर अन्य दार्शनिकों ने विश्लेषणात्मक दर्शन में महत्वपूर्ण प्रगति की।
गणितीय तर्कशास्त्र में रसेल का योगदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। प्रो. ह्वाइटहेड के सहयोग से उसने इस विषय पर एक विशाल ग्रंथ लिखकर तर्कशास्त्र में गंभीर चिंतन के लिए तार्किक भाववादियों को प्रेरित किया। इसमें विज्ञान की भाषात्मक अभिव्यक्तियों के रूपों का अध्ययन किया गया है। इस ग्रंथ में रसेल ने प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र में भी नवीन खोजें की हैं। तर्कवाक्यीय व्यापार (प्रोपोजीशनल फंक्शन), वस्तुवाचक उपलक्षण (मैटीरियल इम्प्लिकेशन), अनुमान और उपलक्षण का अंतर आदि कई विषयों पर रसेल की मौलिक खोजें हैं। रसेल ने यह भी प्रमाणित किया है कि गणित तर्कशास्त्र का एक ही अंग है।
(हृदयनारायण मिश्र)