रसिक संप्रदाय, रामभक्ति शाखा में रामभक्ति साहित्य में यह धारा पाँच नामों से अभिहित है - जानकी संप्रदाय, रहस्य संप्रदाय, रसिक संप्रदाय, जानकीवल्लभी संप्रदाय और सिया संप्रदाय। इनमें से रसिक संप्रदाय नाम अधिक प्रचलित हुआ। इसका कारण है इस संप्रदाय के प्रवर्तक अग्रदास का अपने अनुयायियों को 'रसिक' नाम से संबोधित करना। उन्होंने अपनी कृतियों 'रसिक' संज्ञा ऐसे भक्तों को दी है जो राम की रसमयी लीलाओं का ध्यान करते हैं और उनकी अंतरंगसेवा के आश्रित हैं।
'रसिक' शब्द का सामान्य अर्थ है-रसमर्मज्ञ या सहृदय। लोकव्यवहार में इसका प्रयोग विषयानंद में लिप्त प्रेमी जीवों के लिए हुआ करता है, किंतु अध्यात्मिक साधना में यह शब्द सगुण ब्रह्म के लीलारसभोक्ता का द्योतक है। मध्यकालीन भक्तिसाहित्य में इसे उस प्रवृत्तिविशेष के भक्तों का व्यंजक माना गया जो अनन्यभाव से सीताराम अथवा राधाकृष्ण की शृंगारी लीलाओं का ध्यान, गान और तदनुरूप सेवा का विधान करते थे। इनके लिए भक्ति भाव मात्र न होकर रसरूप में आस्वाद्य थी। कृष्णोपासना में यह छाप कुछ इने गिने शृंगारी साधकों को ही दी जाती रही, किंतु रामभक्ति शाखा में इस नाम से एक पृथक् संप्रदाय की स्थापित हो गया, जिसमें माधुर्य के साथ दास्य, वात्सल्य,सख्य तथा शांत भाव के उपासक भी सम्मिलित कर लिए गए। इन संतों के दो वर्ग माने गए हैं-रसिक और रुक्ष रसिक। प्रथम के अंतर्गत शृंगारी, सख्य, दास्य तथा वात्सल्य भाव के साधक आते हैं, दूसरे में केवल शांत भाव के। इन्हें क्रमश: माधुर्य तथा ऐश्वर्य प्रेमी कहा गया है।
रामभक्ति में माधुर्यभाव के अंकुर सर्वप्रथम शठकोप आलवार (नवीं शताब्दी) की रचनाओं में दिखाई पड़े। 'रसिक प्रकाश भक्तमाल' में इन्हें राम का 'आदि पारष्द' कहकर प्रकारांतर से रसिक रामभक्ति का सूत्रपात इन्हीं से होना स्वीकार किया गया है। 'पेरुमाल-तिरुमोडी' में काकुत्स्थ राम के प्रति अभिव्यक्त प्रणयोद्गार यह सिद्ध करते हैं कि इनकी उपासना कांताभाव की थी। इनके परवर्ती वैष्णवाचार्यों में नाथमुनि और कुरेश्स्वामी दास्य के, रामानुज दास्यमिश्रित वात्सल्य के और बरवर मुनि सख्य भाव के रामोपासक थे। इसी परंपरा में आविर्भूत लोकाचार्य ने सांसारिक जीवों के उद्धार के लिए सीता के 'पुरुषकारत्व' को विशेष महत्व दिया। आगे चलकर रामभक्ति की मर्यादावादी तथा शृंगारी दोनों शाखाओं में यह भाव एक अनिवार्य तत्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गया।
स्वामी रामानंद को पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित रसिक भक्ति के ये आधारभूत तत्व रिक्थ में मिले। उन्होंने राममंत्रार्थ की व्याख्या करते हुए ईश्वर जीव के विविध भावसंबंधों में 'भार्या भर्तृत्व', अथवा 'भोग्य भोक्तृत्व' को विहित बताया और भक्ति की इस रसमयी धारा में मर्यादा तथा सदचार की प्रतिष्ठा के लिए 'स्वकीयाभाव' को आदर्श ठहराया। किंतु १६वीं शताब्दी के अंत तक यह साधना कुछ इने गिने भक्तों तक ही सीमित रही। इसे सांप्रदायिक संगठन का रूप अग्रदास ने दिया। ये स्वामी रामानंद के प्रपौत्रशिष्य थे और सं. १६३२ के लगभग विद्यमान थे। इन्होंने सांप्रदायिक सिद्धांतों के निर्माण में पांचरात्र संहिताओं और आगमग्रंथों से पर्याप्त सहायता ली। इनका ध्यानयाग बहुत अंश तक तंत्रों पर आधारित है। ये आमेर के महाराज मानसिंह के गुरु थे। अग्रदास के शिष्य नाभादास की प्रसिद्ध रचना 'भक्तमाल' से ज्ञात होता है कि तुलसी की समकालीन रामभक्तिधारा माधुर्य से पूर्णतया अनुरंजित हो गई थी। मानदास, मुरारिदास, प्रयागदास और खेमाल रतन राठौर के वृत्त इसके प्रमाण रूप में प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
अकबर के उत्तराधिकारियों की धार्मिक असहिष्णुता तथा दशनामी शैवों के हिंसापूर्ण विरोध से लगभग एक शताब्दी तक रसिक संप्रदाय के विकास के एक दीर्घ गतिरोध बना रहा। इस काल में आलोच्य शाखा के अधिकांश भक्तों ने अयोध्या, काशी, प्रयागादि नगरस्थ तीर्थों को छोड़कर मुस्लिम प्रभाव से दूर मिथिला, चित्रकूट ऐसे निर्जन वन्य तीर्थों का आश्रय लिया। आंतरिक साधना में लीन रहते हुए भी सामाजिक हित के प्रति जागरूक साधकों ने विरोधी शक्तियों का प्रतिरोध करने के उद्देश्य से संगठन को 'अनी' और 'अखाड़ों' में विभक्त कर सैनिक रूप दिया, जो किसी न किसी रूप में अब तक चला आ रहा है।
अठारहवीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के पतन और हिंदू जागरण के फलस्वरूप रामोपासकों में एक नई चेतना आई। उत्तरकालीन मुगल बादशाहों और अवध के नवाबों की उदार हिंदूपरक नीति रसिकभक्ति के प्रचार में अत्यंत प्रेरणाप्रद सिद्ध हुई। परिस्थितियों के अनुकूल हो जाने से दूरस्थ रामतीर्थों के निवासी रामभक्तों का पारस्परिक संसर्ग तो बढ़ा ही, कृष्ण्भक्तों से भी उनके संपर्क में वृद्धि हुई।
उन्नसवीं शताब्दी रसिक संप्रदाय के इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण युग माना जाता है। इस काल में रसिकाचार्यों ने साधना संबंधी प्राचीन साहित्य का आलोड़न कर उसका एक व्यवस्थित रूप प्रस्तुत किया। रसिक भक्ति का जो स्वरूप आज हमारे सामने है, वह बहुत अंश तक इसी शताब्दी के संतों की देन है।
रसिकाचार्यों ने विशिष्ट भावसंपन्न वीतराग साधकों को ही पंचरसात्मिका भक्ति का अधिकारी बताया है और इसके लोकप्रचार का निषेध किया है। इसलिए इसका विकास एक गुह्य अथवा रहस्य साधना के रूप में हुआ। इसका साध्यतत्व है- दिव्यदंपति के सेवामुख की प्राप्ति और 'निकुंजसेवारस' अथवा महलमाधुर्य' का आस्वादन। युगलस्वरूप की अष्टयाम सेवा में ये सभी रस प्राप्त हो जाते हैं अत: उसे रसिकोपासना का मूलाधार माना जाता है। रामलीला में उपास्य के आनंदस्वरूप की चरम अभिव्यक्ति होती है। इसलिए साधनावस्था में भी 'रासध्यान' की व्यवस्था दी गई है।
रसिकाचार्यों ने लीलारस के आस्वादन की तीन विधियाँ बताई हैं-मनस्संभोग, दृष्टिसंभोग और स्पर्श अथवा स्थूल संभोग। इनमें से प्रथम दो स्थितियों में दृष्टाभाव की प्रधानता रहती है किंतु तीसरी में भोक्ता भाव की। प्रथम को तत्सुख और द्वितीय को स्वसुख कहते हैं। तत्सुख का अभिप्राय है-प्रियाप्रियतम की दिव्यक्रीडा में सीता द्वारा अनुभूत सुख को अपना सुख मानना किंतु स्वसुख का तात्पर्य प्रियतम के साथ की गई रसक्रीड़ा में स्वानुभूत सुख को ही अपना सुख मानने से है। तात्विक दृष्टिकोणा से विचार करने र तत्सुख और स्वसुख का यह भेद अवस्थाजन्य मात्र प्रतीत होता है। जब तत्सुख का स्वास्थ्य साधक की सर्वेंद्रियों में व्याप्त हो जाता है तो वही स्वमुख में परिणत हो जाता है अत: तत्सुख स्वमुख का ही सिद्ध तत्व है।
कालप्रभाव से यद्यपि आज इस संप्रदाय के कुछ वर्गों में रूढ़िवादिता तथा छिछली शृंगारिकता का प्रवेश हो गया है, तथापि लोकप्रियता एवं साहित्यनिर्माण की दृष्टि से रामभक्ति की सभी शाखाओं में इसका स्थान अन्यतम है। रामचरितमानस की टीका परंपरा और प्रवचनशैली के प्रवर्तन और प्रचार का मुख्य श्रेय इसी संप्रदाय के भक्तों को प्राप्त है। अयोध्या के महात्मा रामचरणदास, काशी के पं. शिवलाल पाठक, मिर्जापुर के पं. रामगुलाम द्विवेदी, बाराबंकी के बैजनाथ कूर्मवंशी और चित्रकूट के परमहंस रामदास की गणना इस कला के निष्णात आचार्यों में की जाती है।
रसिक साहित्य में साधनात्मक तत्वों की प्रधानता है। उसके प्रमुख आचार्यों-अग्रदास, बालअली, मथुराचार्य, कृपानिवास, रामचरण दास, जीवाराम तथा युगलानन्यशरण की काव्यरचना का एकमात्र उद्देश्य सैद्धांतिक साहित्य का निर्माण और प्रचार था। अतएव साहित्यिक दृष्टि से इनकी कृतियाँ विशेष महत्व नहीं रखतीं। इस शाखा के-नाभादास, प्रेमसखी, सूरकिशोर, रामसखी, पं. रामगुलाम द्विवेदी, रसिकबिहारी, महाराज विश्वनाथ सिंह, रघुराज सिंह, शीलमणि, बनादास आदि कुछ ही कवि ऐसे हैं जिनकी रचनाएँ उच्च कोटि के भक्तिसाहित्य में स्थान पा सकती हैं।
रसिक संप्रदाय में आराध्ययुगल का नित्य संयोग एवं स्वकीया भाव ही समाहित है-वियोग तथा परकीया भाव के लिए इसमें कोई स्थान नहीं। यही कारण है जिससे माधुर्य को अपनाते हुए भी इस शाखा के कवियों ने रामके एकपत्नीव्रत की मर्यादा अक्षुण्ण रखी है और सामाजिक सदाचार की रक्षा में इतर संप्रदायों के शृंगारी भक्तों की अपेक्षा इनका दृष्टिकोण अधिक संयत तथा व्यावहारिक रहा है।
सं. ग्रं. - आचार्य रामचंद्र शुक्ल : हिंदी साहित्य का इतिहास; डा. भगवतीप्रसाद सिंह : रामभक्ति में रसिक संप्रदाय। (भगवतीप्रसाद सिंह)