रत्नत्रय (जैन) धर्मप्रणेताओं ने सम्यग्दर्शन, अभ्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चरित्र यानी सद्दृष्टि, सद्ज्ञान, एवं सद्वृत्ति को धर्म की संज्ञा दी है। 'सत्', 'सम्यक्', 'समीचीन', 'बीतकलक', 'निर्दोष' आदि शब्द प्राय: एक से अर्थ या भाव रखते हैं। दर्शन या दृष्टि का संबंध होता है श्रद्धा से; ज्ञान का संबंध होता है विद्या, बोध या जानकारी से; चरित्र अथवा वृत्ति का संबंध हाता है आचरण से। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चरित्र जीवात्मा के धर्म के त्रिकालबाधित लक्षण हैं। इन्हें ही 'रत्नत्रय' (समीचीन धर्मशास्त्र, कारिका १३; स्वयंभूस्तोत्र, कारिका ८४) तथा 'योग' (योगशास्त्र, प्र. प्रकाश, सूत्र-१५) कहते हैं। चूँकि इनसे मोक्ष की प्राप्ति होती है (पुरुषार्थ सिद्धयुपाय -२१७-२२१), अत: 'मोक्षमार्ग', 'सन्मार्ग', 'शुद्धमार्ग', 'शिवमार्ग', 'निर्वाण मार्ग', 'नि:श्रेयसमार्ग' आदि भी इनके नाम दिए गए हैं। (वाष्ठ नारायण सिंह शोधछात्र)