रत्न, प्राकृतिक और संश्लिष्ट रत्न विशेष प्रकार के पत्थर, मोती, या इसी प्रकार के अन्य पदार्थ हैं, जो अपनी कठोरता, प्रकाशिक गुणधर्मों, पारदर्शकता, चमक आदि के कारण विशिष्ट स्थान प्राप्त किए हुए हैं। ये विशेषकर आभूषणों में प्रयोग में लाए जाते हैं। हीरा, लाल, नीलम आदि इनके ज्वलंत उदाहरण है।

रत्न अधिकतर क्रिस्टलों के रूप में पाए जाते हैं। क्रिस्टलों के फलक विशेष आतरिक परमाणु संरचना के फलस्वरूप निर्मित होते हैं। ये साधारणत: समतल और चिकने होते हैं। भिन्न भिन्न प्रकार के क्रिस्टलों को क्रिस्टली अक्षों की भिन्न भिन्न अवस्थाओं के आधार पर छह क्रिस्टल समुदायों में विभाजित किया गया है : त्रिनताक्ष (Triclinic), एकनताक्ष (Monoclinic), विषमलंवाक्ष (Orthorhombric), षट्कोणीय (Hexagonal), चतुष्कोणीय (Tetragonal) तथा त्रिसमलंबाक्ष (Isometnic) समुदाय (देखें, मणिभ विज्ञान)। अक्षीय कोण और अक्षीय निष्पत्ति के आधार पर क्रिस्टलों का सरलता से वर्गीकरण किया जा सकता है। हीरे में तीनों अक्ष समान हैं और एक दूसरे पर समकोण बनाते हैं, अत: यह त्रिसमलंबाक्ष समुदाय के अंतर्गत आता है। लाल और नीलाम षट्कोणीय समुदाय के खनिज कुरुविंद (corundum) की ही विशेष किस्में हैं। इसमें तीन समान क्षैतिज अक्ष एक दूसरे की ६० के कोण पर काटते हैं, चौथा अक्ष असमान है और पहले तीनों अक्षों के समतल पर लंबवत् है। रक्त पत्थरों के क्रिस्टलों की विशिष्ट आकृति काटने से नष्ट हो जाती है। अँगूठी तथा अन्य आभूषणों के रत्नों में दिखाई देनेवाले सुव्यवस्थित फलक प्राकृतिक नहीं वरन् कृत्रिम हैं। ये फलक काटकर तथा पालिश करके बनाए जाते हैं। कुछ रत्न ऐसे भी हैं जिनमें अणु संरचना नहीं होती। इन्हें अक्रिस्टली कहते हैं, जैसे ओपल (opal)। कुछ रत्न बहुत छोटे छोटे क्रिस्टलों के बने होते हैं। इनके फलक सूक्ष्मदर्शी की सहायता से भी नहीं देखे जा सकते। इन्हें गुप्त क्रिस्टलीय कहते हैं, जैसे गोमेद (agate)।

कठोरता - यह रत्नों का एक विशेष भौतिक गुण है। यदि रत्न पत्थर कठोर नहीं हागा तो उसको घिसकर चमकदार नहीं बनाया जा सकता। रत्नों की कठोरता जानने के लिए उन्हें किसी दूसरे खनिज से रगड़ा जाता है। एक खनिज, जो दूसरे खनिज को आसानी से रगड़, या खुरच देता है, अपेक्षाकृत कठोर होता है। कठोरता नापने के लिए मोस (Mohs) का कठोरता मापक अधिकतर उपयोग में लाया जाता है। इस मापक में दस खनिज हैं, जो बढ़ती हुई कठोरता के आधार पर चुने गए हैं। इन खनिजों के नाम तथा कठोरता क्रमश: इस प्रकार हैं : टैल्क १, जिप्सम २, कैल्साइट ३, फ्लुओराइट ४, ऐपाटाइट, ५, फैल्स्पार ६, क्वार्ट्ज़ ७, टोपैज़ ८, कुरुविंद ९, हीरा १०। इनमें टैल्क सबसे मुलायम (कठोरता १) और हीरा सबसे कठोर (कठोरता १०) है। यदि कोई रत्न टोपैज से खुरच जाता है, पर क्वार्ट्ज़ के उसपर काई खुरच नहीं लगती, तब उनसकी कठोरता साधारणत: ७ या ७ से अधिक होती है, पर बहुत से रत्न खनिजों की कठोरता ७ से कम भी है। इन पत्थरों को 'आभूषण पत्थर' कहना अधिक उपयुक्त होगा।

आपेक्षिक घनत्व - आपेक्षिक घनत्व के आधार पर भिन्न भिन्न रत्नों को सुविधा से पहचाना जा सकता है। रत्नों का आपेक्षिक घनत्व जानने के लिए उन्हें विरूपित नहीं करना पड़ता। इसके लिए साधारणत: भारी द्रवों, जैसे मेथिलीन आयोडाइड (आ.ध. ३.३२), का प्रयोग किया जाता है। रत्न या नग आदि को मेथिलीन आयोडाइड द्रव में उबाल देते हैं और इस में तब तक बेंज़ीन डाली जाती है जब तक रत्न उस द्रव में न तो डूबे, न तैरता रहे वरन् निलंबित रहे। इस दशा में द्रव का आपेक्षिक घनत्व समान होता है। इस द्रव का आपेक्षिक घनत्व उत्प्लवन तुला, या सूचकों की सहायता से जाना जा सकता है। रत्न पत्थरों का आपेक्षिक घनत्व २.२ और ४.६ के बीच होता है।

चमक - चमक पदार्थ की सतह से परावर्तित प्रकाश की मात्रा पर निर्भर करती है। यह कई प्रकार की होती है, जैसे हीरेसम, मोतीसम, रालसम, काचसम। रत्नों की चमक ही उनके आकर्षक होने का कारण है। साधारणत: कठोर और उच्च अपवर्तनांकवाले खनिज ही अधिक चमकवाले होते हैं। हीरा सब रत्नों में कठोर है एवं इसका अपवर्तनांक भी सबसे अधिक है। इसकी चमक भी अन्य सब रत्नों से अधिक लुभावनी है। अधिकतर रत्नों की चमक काचसम है। जिन रत्न क्रिस्टलों का अपवर्तनांक सभी दिशाओं में समान होता है, वे समांगी कहलाते हैं। अन्य क्रिस्टल विषमांगी होते हैं। इनमें प्रवेश हेने पर प्रकाश की एक किरण दो किरणों में विभाजित हो जाती है। इन दिशाओं में अपवर्तनांक भी भिन्न भिन्न होते हैं।

कुछ रत्न वर्णपरिवर्तन, अर्थात् भिन्न दिशाओं में भिन्न भिन्न रंग, दिखलाते हैं। यह क्रिस्टली दिशाओं में संचारित प्रकाश के वरणात्मक अवशोषण के कारण होता है, उदाहरणार्थ नीलम का रंग नीले से नीला हरा तथा लाल का वर्ण हल्के से गहरा लाल तक दिखाई देता है।

मुख्य रत्न

रत्न नाम

खनिजीय ज्र्मैैं

रंग

कठोरता

आपेक्षिक घनत्व

अपवर्तनांक

रासायनिक सूत्र

हीरा

हीरूैं

नील-श्वेत रक्त, पीत हरित, नील

१०.००

३.५२

२.४१ - २.४२

का (C)

लाल

कुरुविंद

रक्त

९.००

३.९ - ४.२४

१.७६ - १.७७

(Al2O3)

नीलम

''

नील

९.००

४.०१ - ४.०९

१.७६ - १.७७

(Al2O3)

पन्ना (वैदूर्य)

बेरिल

हरित

७.५

२.६४ - २.७३

१.५८ - १.५९

(ऐ क्रो) बेन८ (सि१८) [(Al Cr)2 Be8 (Si6 O18)]

ऐक्वामेरीन

''

नील

७.२५ - ७.५०

२.६७ - २.७१

१.५७ - १.५८

बेल३सि१८

(Al2Bl3Si6O18)

बेरिल

''

पीत

७.५० - ८.००

२.६३ - २.७६

१.५६ - १.५८

बे१३सि१८ (Al2Bl3Si6O18)

पुष्पराग

टोपैज (पुष्पराग)

रंगहीन, पीत नीलाभ, हरित

८.०

३.५६ - ३.६०

१.६२ - १.६३

सि औ फ्लो

(Al2Si O4F2)

अलमंडाइट

गार्नेट

रक्त

७.२५ - ७.५०

३.७० - ४.२०

१.७८ - १.८३

लो (सिऔ) [Fe3Al2 (Si O4)3]

पाइरोप

''

रक्त

७.२५

३.६५ - ३.९०

१.७५ - १.७७

मैग३ (सिऔ) [Mg3Al2(Si O4)]

ऐक्रोऑइट

टूरमैलीन

रंगहीन

७.५

३.०८ - ३.१०

१.६१ - १.६४

बोरॉन सिलिकेट

रूबेलाइट

''

रक्त

- ७.२५

३.०९ - ३.१५

१.६२ - १.६५

बोरॉन सिलिकेट

इंडिगोलाइट

''

नील

७.५०

३.१ - ३.१२

१.६२ - १.६४

बोरॉन सिलिकेट

जारगून

ज़रकन

रंगहीन, धूमिल, आरंजित

७.५०

४.२० - ४.६५

१.९२ - १.९८

सि औ

(Zr Si O4)

हायासिंथ

''

रक्त

७.५०

४.४ - ४.८२

१.९२ - १.९८

सि औ

(Zr Si O4)

ऐमिथिस्ट

क्वार्टज

(फाइसई) जंबु

७.०

२.६४ - २.६६

१.६३

सि औ (Si O2)

ऐवेंटुराइन

''

सुनहरा, हरित

७.०

२.६५ - २.६९

१.५४ - १.५५

सि औ (Si O2)

शैल क्रिस्टल

''

रंगहीन

७.०

२.६४ - २.६६

१.६३

सि औ२ (Si O2)

ऐगेट

कैल्सेडोनी

धारियों में रंग श्वेत और रक्त

६.५ - ७.०

२.५० - २.८०

---

सि औ (Si O2)

ओपल

ओपल

रंगहीन, दुग्धश्वेत

५.५०

२.००

१.४४

सि औ हा

(Si O2 H2O)

ऐड्लेरिया

फेल्स्पार

श्वेत नील

- ६.५

२.५० - २.६०

१.५२ - १.५३

पो ऐ सि

(K Al Si3 O8)

मूनस्टोन

''

दूधिया, मोतिया

- ६.५

२.५४ - २.५६

१.५२ -१.५२५

पो ऐ सि

(K Al Si3 O8)

अमेज़ोनाइट

फेल्सपार

हरित

- ६.५

२.५४ - २.६९

---

पोऐ सि

(K Al Si3 O8)

स्पिनेल

स्पिनेल

रक्त, पीत, नील हरित, काला आदि

८.००

३.५२ - ४.००

१.७२

मैगऔ, ऐ (Mg O Al2O3)

स्पोडुमीन

पाइरॉक्सीन

नीला, हरित, पाटल

६.५ - ७.०

३.२०

१.६६ - १.६७

ऐ लि (सि) [Na Al (Si2 O6]

जेडाइट

''

हरित, आश्वेत

६.५ - ७.०

३.३० - ३.५०

१.६५ - १.६८

सो ऐ (सि) [Na Al (Si2 O6]

नेफाइट

हार्नब्लैड

हरित

५.० - ६.०

२.९ - ३.१०

१.६२ - १.६५

सो कै (मै लो)१० (औ हा) सि१६४४

[Na2 Ca4 (Mg Fe)10 (OH)2 O2 Si16 O44]

मैलेकाइट

मैलेकाइट

हरित (धारीदार)

३.५ - ४.०

३.८ - ४.१०

---

ता {(औ हा) का औ} [Cu2 {(OH)2 CO3}]

लापिस लाजुली

लेजुराइट

नील

५.५०

२.३८ - २.४५

---

(सोकै) (गंऔ क्लो गं) (ऐ सि औ) [(Na Ca)8 (SO4 Cl S)2 (Al Si O4)6]

टुरकॉइस

टुरकॉइस

नील, नीला, हरित आपात, हरित

६.०

२.६० - २.८०

---

ताऐ (औहा) (पोऔ) ४हा [Cu Al6 (OH)8 (PO4)4 4H2O4]

रासायनिक संरचना - अधिकतर रत्न खनिज ऐलुमिना, या सिलिका, या इन दोनों से बने हाते हैं। कुछ रत्न खनिजों के निर्माण में इनके अतिरिक्त अन्य रासायनिक तत्व भी भाग लेते हैं। ला और नीलम कुरुविंद रत्न की किस्में हैं, जिनका निर्माण शुद्ध ऐलुमिना से ही हुआ है। शैल क्रिस्टल और ऐमिथिस्ट शुद्ध सिलिका से बने हैं। महत्वपूर्ण रत्न, हीरा, शुद्ध क्रिस्टली कार्बन है। कार्बन से बना दूसरा खनिज ग्रैफाइट है, जो अपारदर्शक एवं काला है। एक ही तत्व के दो भिन्न भिन्न रूप भिन्न भिन्न परमाणु व्यवस्था के कारण हैं। कृत्रिम रत्न साधारणत: काच से बनाए जाते हैं। रत्नखनिज मूल्यवान् होते हैं, अत: आजकल कृत्रिम रत्नों का प्रयोग बढ़ रहा है। ऊपर की तालिका में मुख्य रत्नों और आभूषणों में प्रयुक्त होनेवाले पत्थरों के विशेष गुण दिए गए हैं।

प्राप्तिस्थान - हमारे देश में आदि काल से रत्नों का प्रचनल है। महाभारत और सुश्रुत में भी इनका उल्लेख है। ब्राज़िल में हीरे की खोज से पूर्व, विश्व के कई भागों को भारत से ही हीरा प्राप्त होता था। भारत के हीरे विश्व में विख्यात रहे हैं। कोहनूर एक ऐसा ही प्रसिद्ध ऐतिहासिक हीरा है जिसकी आभा एवं द्युति निराली है। हमारे देश में पन्ना क्षेत्र से हीरे प्राप्त किए जाते हैं, पर उत्पादन की दृष्टि से अब यह अधिकश् महत्वपूर्ण नहीं है। भारत के अतिरिक्त, हीरे दक्षिणी अफ्रीका, पूर्वी अफ्रीका, ब्राज़िल और ऑस्ट्रेलिया से भी प्राप्त होते हैं। दक्षिणी अफ्रीका की किंवरलाइट शिलाएँ इसके लिए विश्वविख्यात हैं। बर्मा, लंका और कश्मीर लाल और नीलम के उत्पादन के मुख्य केंद्र रहे हैं। ब्राज़िल, ऑस्ट्रेलिया, थाइलैंड एवं अन्य देशों में भी ये रत्न पाए जाते हैं।

संश्लिष्ट रत्न - ये रत्न प्रकृति में प्राप्त नहीं होते, वरन् प्रयोगशाला में तैयार किए जाते हैं। इनके रासायनिक और भौतिक गुण प्राकृतिक रत्नों के समान होते हैं। वैज्ञानिक सभी प्राकृतिक रत्नों को कृत्रिम रूप से बनाने में सफल नहीं हुए हैं। प्रयोगशाला में बने संलिष्ट रत्नों में हीरा, लाल, नीलम और पन्ना मुख्य हैं।

प्रयोगशाला में हीरा तैयार करने के लिए विद्युत् भट्ठी में कार्बन की कटोरी में शुद्ध लोहा और कार्बन को गरम किया जाता है। लोहे के पिघलने पर कार्बन उसमें मिल जाता है। तप्तावस्था में ही इसे पिघले सीसे के ऊष्मक (bath) में डाल दिया जाता है। अचानक ठंडा होने के कारण आंतरिक दवाब अत्यधिक हो जाता है और तरल कार्बन छोटे छोटे हीरे के कणों में क्रिस्टलित हो जाता है। हीरे का संश्लिष्ट उत्पादन संयुक्त राष्ट्र, अमरीका में होता है।

लाल और नीलम औद्योगिक उत्पादन की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। कृत्रिम लाल को तैयार करने के लिए शुद्ध ऐलुमिना को ऑक्सी-हाइड्रोजन ज्वाला में द्रवित किया जाता है। फिर पिघले पदार्थ को ज्वाला के ठंडे भाग में लाने पर लाल का निर्माण होता है। नीलम कुरुविंद के साथ लौह ऑक्साइड और टाइटेनियम ऑक्साइड को द्रवित करने पर प्राप्त होता है। यहाँ यह बतलाना आवश्यक है कि कृत्रिम रत्नों की रचना की अभिक्रियाएँ नाजुक होती हैं और इनकी रचना में बहुत सी सावधानियाँ बरतनी होती हैं। (म.न.मे.)

रत्न, संस्कृत वाङ्मय में: 'रत्न' शब्द सर्वप्रथम हमें ऋग्वेद के प्रथम मंडल के प्रथम मंत्र में प्राप्त होता है। तत्कालीन टीका के अभाव में इस शब्द का वास्तविक अर्थ ऋग्वेद के काल में क्या था, यह कहना कठिन है। पीछे के लेखकों ने इस शब्द का अर्थ बहुमूल्य पाषाण किया है। यों, कवियों ने 'निधि' के अर्थ में इसका प्रयोग किया है। संस्कृत वाङ्मय में समुद्रमंथन से चौदह रत्नों में लक्ष्मी, उच्चैश्रवा घोड़े, ऐरावत हाथी इत्यादि को रत्न की संज्ञा दी गई। जिन बहुमूल्य पत्थरों को रत्न माना गया था उनके उद्गमस्थान नदी, पृथ्वी, पहाड़ तथा समुद्र थे। पहाड़ को रत्नाचल, पृथ्वी को रत्नगर्भा और समुद्र को रत्नाकर की संज्ञा दी गई।

रत्नों और उपरत्नों का विभाग करते हुए हमारे आचार्यों ने नौ पाषाणों को रत्न तथा दूसरों को उपरत्न माना है। नौ रत्नों में वज्र, नीलम, पुष्पराग, माणिक्य, मरकत, मुक्ता, गोमेदक, वैदूर्य तथा प्रवाल माने गए हैं। इनमें मुक्ता और मूँगा को पाषाण कहना उचित नहीं है क्योंकि ये दोनों ही उस श्रेणी में नहीं आते। दोनों समुद्र से प्राप्त होते है, एक सीप नाम के जंतु से दूसरा समुद्र के भीतर की जड़ों से।

अश्वघोष की कृतियों में हमें रत्नों में मुक्ता, नीलम, पद्मराग, वज्र, वैदूर्य, स्फटिक और शंख मिलते हैं। भरत नाट्यशास्त्र में हमें इनके अतिरिक्त मरकत, पन्ना तथा पद्म मणि रत्न (लाल) मिलते हैं। कालिदास के ग्रंथों में अतिरिक्त रत्नों में विभ्रम मणि (औपल), चंद्रकांत मणि (सफेद पुखराज), सूर्यकांत मणि, लोहितांक मणि तथा सितमणि प्राप्त हाती है। अगस्तिमत, रत्नसंग्रह, मणिमाहात्म्य, लघु-रत्न-परीक्षा ग्रंथों में हमें प्रत्येक रत्न की पहचान, जाति, रंग, दोष, गुण एवं उसकी उत्पत्ति का स्थान इत्यादि सब मिलता है। रत्नव्यवसाय नामक ग्रंथ में, जिसकी हस्तलिखित प्रति (नं. १५६७) बीकानेर के संग्रहालय में है, रत्नों के व्यवसाय के विषय में सभी व्यावहारिक बातें प्राप्त होती हैं। इन पुस्तकों में रत्न, मणि तथा उपल पर्यायवाची शब्द माने गए हैं, यों आजकल मणि विधे हुए रत्न को कहते हैं।

ऋग्वेद में रत्नों की संख्या सप्तानि त्रय याने २१ मिलती है (१, २०, ७)। वराहमिहिर ने पाँच महारत्न तथा चार उपरत्न माने हैं। वज्र, मुक्ता, माणिक्य, नील तथा मरकत को महारत्न की पदवी दी गई है और गोमेद, पुष्पराग, वैदूर्य तथा प्रवाल को उपरत्न की। भारतीय रत्नपरीक्षा के ग्रंथों में प्राय: माणिक्य को सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। आज मूल्य तथा आकर्षण की दृष्टि से वज्र को जौहरी लोग प्रथम स्थान देते हैं।

वज्र, कुलिश या हीरक - आजकल भारत में हीरा मध्यप्रदेश के पन्ना राज्य में और दक्षिण में कृष्णा के तट पर मिलता है। प्रचीन पुस्तकों से ज्ञात होता है कि पहले हीरा सौराष्ट्र, हिमालय, मातंग (मगध), पौंड्र, कलिंग, कोशल, वेणतट तथा सूपारा से प्राप्त होता था।

आज विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि हीरा पृथ्वी के गर्भ में पृथ्वी का बोझ कोयले पर पड़ने से स्वयं बन जाता है। कृत्रिम हीरा भी प्रयोगशालाओं में बनाया गया, परंतु इसपर व्ययं बहुत अधिक पड़ने से इसको बनाना लाभप्रद सिद्ध नहीं हुआ। यों जो हीरा नकली बनता है वह पहचान में आ जाता है।

वज्र विविध रंगों के प्राप्त होते हैं, सफेद में गुलाबी, सफेद में हरा, सफेद में पीला, सफेद में नीला, सफेद में फिरोजा, सफेद में भूरा इत्यादि। रत्नपरीक्षा ग्रंथों के अनुसार सौराष्ट्र का हीरा गुलाबी, हिमालय का ताँबे के रंग का, मातंग का पीला, पौड्र का हरा, कलिंग का सोनहरा, कोशल का सिरिस के फूल के सदृश, वेण का चंद्रमा के रंग का तथा सूपारा का सफेद होता है। इस प्रकार रंग देखकर वज्र का प्राप्तिस्थान निश्चित किया जाता था परंतु आज तो सभी रंग के हीरे सभी खदानों से प्राप्त हाते हैं। इस कारण यह विभाजन भ्रामक सिद्ध हो गया है। वराहमिहिर तथा बुद्ध भट न चार जातियों को चार रंग के हीरे पहनने का विधान बताया है। ब्राह्मण को श्वेत, क्षत्रिय को गुलाबी, वैश्य को पीला तथा शूद्र को नीला। राजा के हेतु सभी वर्णों के हीरे पहनने का विधान है।

वज्र के गुण दोषों का वर्णन करते हुए इन ग्रंथों में हीरे के आकार को अष्टकोण माना है। हीरे की बनावट का आधार भी यही है और इसी आधार पर हीरा काटा भी जाता है। इसके छह अचर कोण, बारह धार, आठ पहल या दल तथा एक माथा बनाया जाता था। दो पहलों के बीच की धार बड़ी तीक्ष्ण रखी जाती थी। इसमें दोषों को गिनाते समय कहा गया है कि बनाने के दोषों के अतिरिक्त पत्थर में प्राय: चार प्रकार के बिंदुदोष दिखाई देते हैं, श्वेत, रक्त, स्याम, मधु। इनमें रक्तबिंदु के पत्थर को सब से निकृष्ट माना जाता है। बिंदु के अतिरिक्त यव के आकार का दोष भी हीरे में मिलता है। यह प्राय: लाल, पीला और श्वेत रंग का हाता है। चीर, धार, काग पैर, तारा, अवरखी, गढ़हा, मएल इत्यादि दोष भी गिनाए गए हैं। दोषयुक्त हीरे को पहनने से क्या होता है, इसकी भी कल्पना इन ग्रंथों में मिलती है। इसके अतिरिक्त एक प्रकार का दूधिया हीरा होता है जो प्राय: सुन्न रहता है अर्थात् उसमें चमक बहुत कम रहती है। इन दोषों से रहित पानीदार हीरे को भारतीय अच्छा समझते हैं। प्रसिद्ध प्राचीन हीरों में गोलकुंडा का कोहनूर, परतियाल (कृष्णा से १५० गील पर) से प्राप्त पिट डायमंड, गोलकुंडा के किल्लूर खदान से प्राप्त दरियायनूर, गोलकुंडा से प्राप्त अकबरशाह, गोलकुंडा से प्राप्त 'ताजेमाह', किल्लूर से प्राप्त 'होप' जिसमें नीली छवि पड़ती है, ब्राजिल से प्राप्त 'स्टार आफ दि साउथ', दक्षिण अफ्रका की प्रीमियर माइन का 'कलियुग' इत्यादि हैं।

भारत में हीरे पर पहल बनाने का काम प्राय: १६वीं शताब्दी से चल रहा है। १६६२ ई. में टैपरनियर ने लिखा है कि 'भारत में बहुत से लोग हीरातराश का काम करते हैं।' यहाँ उस काल में प्राय: हीरों के प्राकृतिक घाट पर ही पहलों की बंदिश बाँधी जाती थी तथा हीरे के दोषों को छपाने के हेतु पहल पर पहल लगाए जाते थे। पाश्चात्य देशों में लुई ड वरकेम ने यह आविष्कार किया कि यदि हीरे के चूरे से हीरा घिसा जाए तो उसपर पहल बन जाती है। सर्वप्रथम ड्यूक आफ वरगंडी ने अपने तीन हीरे इन्हें बनाने को दिए। पेरूजी ने सर्वप्रथम आज की भाँति का गोल हीरा काटना प्रारंभ किया, इसके पहले केवल २४ पहल गुलाब की पंखुड़ियों की भाँति लगती थीं। अब ३२ लगने लगीं। इससे हीरे का पूरा यौवन निखर पड़ा। पीछे चलकर छोटी बड़ी ५६ पहलें बनाई जाने लगीं। हीरे को काटा भी जाता है और घिसा भी जाता है, परंतु हीरा अपने प्राकृतिक पहल पर ही कटता है।

भारत में हीरे की भस्म ओषधि के रूप में भी व्यवहृत होती है परंतु हीरे की कणि या हीरे का चूरा नहीं खाया जाता क्योंकि वैद्यों का ऐसा विश्वास है कि इसको खाने से मृत्यु हो जाती है।

भारत में हीरे की भस्म औषधि के रूप में भी व्यवहृत होती है परंतु हीरे की कणि या हीरे का चूरा नहीं खाया जाता क्योंकि वैद्यों का ऐसा विश्वास है कि इसको खाने से मृत्यु हो जाती है।

हीरे का मूल्य, उसकी तोल पर, उसके दोष गुण के आधार पर, उसके रंग पर तथा उसके पानी पर कूता जाता है। दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील इत्यादि में हीरा मिल जाने पर अब इसका मूल्य प्राय: अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निश्चित होता है। इसे काटने, बनाने इत्यादि का काम आजकल सब से अधिक एमस्टरडम (हालैंड), वेल्जियम, भारत तथा अमेरिका में होता है।

मुक्ता (कृशन, मुक्ताफल, मौक्तिक जलविंदु) - मोती भारत में प्राचीन काल से व्यवहार में आता रहा है। अथर्ववेद के एक मंत्र में (४, १०, १) यह कृशन नाम से उल्लिखित है। रत्नपरीक्षा ग्रंथों में इसकी उत्पत्ति सीप, शंख, विद्युत्, सर्प के मस्तक, मछली, वाराह, हाथी तथा बाँस से बताई गई है। अगस्तिमत के अनुसार स्वाति की बूँद जब सीप में पड़ती है तब मोती उत्पन्न होता है। प्लीनी ने लिखा है कि भारत में मोती को लोग हीरे के अतिरिक्त और सब रत्नों से अधिक मूल्यवान् समझते हैं (३७, ४)। पिपरावा के स्तूप स शाक्यमुनि के कुछ अवशेषों में मोती के दाने भी मिले हैं जो इस बात का प्रमाण देते हैं कि भारत में मोती प्राय: ५वीं शताब्दी से व्यवहार में आता था। आज के विज्ञान ने यह पता लगा लिया है कि सीप के भीतर जब कोई बालू का कण चला जाता है तब उसका जंतु उसके ऊपर परत चढ़ाने लगता है। धीरे-धीरे इस प्रकार मोती बन जाता है। चीन के बौद्ध भिक्षुओं ने सर्वप्रथम इस भेद का आविष्कार किया था और उन्होंने छोटी छोटी बुद्ध की मूर्तियाँ बनाकर सीप में रखीं जिनपर कुछ दिन में ही मोती की परत चढ़ गई। इसीं तथ्य के आधार पर आज जापान में कृत्रिम मोती बनता है। वहाँ जीवि सीप को पकड़कर उसमें एक मसाले की गोली रख देते हैं और उसे फिर समुद्र में छोड़ देते हैं। इस काम के हेतु इन्होंने समुद्र में एक घेरा डाल रखा है। दो तीन वर्ष पश्चात् इन गोलियों पर मोती की दो या तीन परतें चढ़ जाती हैं। इस मोती को असली मोती से पहचानना कठिन होता है क्योंकि यह प्राकृतिक ढंग से ही बनता है। मोती को छेदने पर उसमें सूई डालकर बिजली से परछाईं के सहारे ही यह पता लग पाता है कि यह मोती असली है या नकली। असली मोती की परतें गोलाई में भीतर से बाहर तक प्रत्यक्ष दिखाई दे जाती हैं और नकली में ऊपर की दो या तीन परतों के पश्चात् भीतर की गोली दिखाई देती है।

रत्नपरीक्षा ग्रंथों के अनुसार मोती फारस, अरवट, सिंहल, बरबरू तथा दरभंग में मिलता है। इसका प्राप्तिस्थान उसके रंग से पहचाना जाता है। फारस का मोती श्वेत होता है, अरवट का कुछ पीला, बसरा और सिंहल का म्यानी होता है, बरबरू का रूखा और सफेद होता है, तथा दरभंग का लाली लिए हुए। फारस की खाड़ी में अरब के किनारे तथा मनार की खाड़ी में सिंहल के किनारे पर मोती प्राचीन काल से पाए जाते थे। आज भी बढ़िया मोती बसरा तथा सिंहल से ही आते हैं। यों मोती आस्ट्रेलिया के उत्तर पश्चिमी किनारे पर, वर्मा के दक्षिण समुद्र के किनारे पर तथा दक्षिणी अमेरिका, जापान इत्यादि देशों के पास के समुद्र में भी प्राप्त होते हैं। यद्यपि मोती चार रंग का माना गया है, मधुर, पीत, शुक्ल और नील, पर किसी किसी ग्रंथ में रक्त वर्ण के मोती का भी विवरण प्राप्त होता है। आज मोती में विविध आभाएँ प्राप्त होती हैं। पाश्चात्य देशों में श्वेत के अतिरिक्त गुलाबी और नीली आभा के मोतियों की बहुत माँग है। एक प्रकार का काला मोती होता है। उसकी भी खपत उधर ही है। भारत में श्वेत मोती ही ग्राह्य माना जाता है।

आज भी गोल मोती बहुमूल्य समझा जाता है। यों मोती को घाट के अनुसार बीस विभागों में बाँटा गया है - कलगी, सिरा, सुजनी इत्यादि। वृत्त, सित निर्मल, स्वच्छ, स्निग्ध, कोमल, गरू, सुघाट मोती ही अच्छा माना जाता है। मोती के शरीर पर के दोषों में शुक्ति, लग्न, मत्स्याक्ष, विस्फोट पूर्ण, पंक पूर्ण, करकराबत, कर्कश शरकर, रुक्ष माने जाते हैं। श्वेत रंग से भिन्न होने पर मोती को दोषयुक्त माना जाता है।

बुद्ध भटृट की रत्नपरीक्षा में कृत्रिम मोती बनाने की भी प्रक्रिया मिलती है (फिनों ले लापिडेर आंडियाँ, प्रस्तावना पृ. ३६)। कदाचित् उस काल में भी नकली माती बनाया जाता था, तभी उसकी परीक्षा की यहाँ विधियाँ भी दी गई हैं।

माणिक्य (पद्मराग, अस्मराग, चुन्नी) - माणिक्य को सूर्यमणि भी कहा गया है। यह लाल कमल के रंग का कोरूंड जाति का रत्न होता है। इसे स्तेन रत्न, वसु, रत्न, भी कहते हैं। इसमें कई आभाएँ प्राप्त हाती हैं, जैसे कदली के फूल की, अनार के दाने का, अड़हुल के फूल की, पारिजात के फूल की डण्डी की, गुंजा के फल की, जलते हुए अंगारे की, इत्यादि। आज वही माणिक्य अच्छा समझा जाता है जिसमें कुछ हरापन हो।

रत्नपरीक्षा के ग्रंथों के अनुसार अच्छा माणिक्य वह समझा जाता है जिसकी स्निग्ध दाया हो, जिसमें गुरुत्व हो, जो निर्मल हो, जो अतिरक्तता के गुण से संपन्न और दोषरहित हो। दोषों में सूत्र, दूधक, दो रंगा, धूमिल, चीर, मटमैला, श्वेत, कृष्ण अथवा मधु के रंग का छीटा, गढ़ा, जाल तथा कौए के पर के सदृश चिह्न गिनाए गए हैं। प्राचीन ग्रथों में यह वर्णन मिलता है कि सब से बढ़िया माणिक्य सिंहल के रावन गंगा की तलहटी में मिलता है। इसके अतिरिक्त माणिक्य मलय, सुवेल तथा गंधमादन से प्राप्त होता है। महाभारत माणिक्य मलय, सुवेल तथा गंधमादन से प्राप्त होता है। महाभारत में युधिष्ठिर को मलय के राजा बहुत से रत्न अर्पित करते हैं (२, ५२, ३४-३५)। यह मलय कदाचित् आधुनिक ट्रावनकोर के पास किसी स्थान का ना हो या मलाया का हो। आज माणिक्य वर्मा के मोगोक से आठ मील पश्चिम के एक स्थान से आता है। यों गहरे रंग का कलछोंट लिए हुए संग बांगकाक से तथा रत्नपुरा (सिहल) से आता है।

माणिक्य हीरे से कम परंतु और रत्नों से अधिक कड़ा होता है। हीरे की कड़ाई का मापदंड दस और माणिक्य का नौ माना जाता है। षट्कोण आकार में यह उत्पन्न होता है। खदान से जब निकलता है तो पारदर्शी नहीं होता तथा ऊपर दाने दाने रहते हैं। स्वच्छ करने के पश्चात् जब सूर्य की किरणें इस पर पड़ती है तो प्रकाश इसके भीतर से दो ओर छिटककर बाहर निकलता है।

दोषरहित माणिक्य का मूल्य रंग, छूट तथा ताल पर आँका जाता है। अगस्तिमत के अनुसार मूल्य का निर्धारण माणिक्य की जाति, तौल तथा उसके पानी पर किया जाता है। यहाँ माणिक्य के प्राप्त होने के स्थान के आधार पर पद्मराग, कुरुविंद तथा सौगंधिक जातियाँ मानी गई।

रत्नपरीक्षा के ग्रंथों के अनुसार नकली माणिक्य प्राचीन काल में बनने लगा था। ऐसा ज्ञात होता है कि उस काल में माणिक्य सीप को पीसकर उसमें सिंदूर मिलाकर बनाया जाता था। बुद्ध भट्ट ने पाँच प्रकार के नकली माणिक्य बताए हैं। आज के नकली माणिक्य की विधि का आविष्कार वेरनुई ने सन् १९०४ में किया था। इसने नाशपाती के रूप के पत्थर अलमूनिया को गलाकर और उसमें क्रोमिक आक्साइड मिलाकर बनाया।

प्रसिद्ध माणिक्यों में इंग्लिस्तान का 'ब्लाकप्रिंस' माणिक्य है जो वहाँ के राजा के मुकुट की शोभा बढ़ाता है। दूसरा है तैमूर माणिक्य जो ईस्ट इंडिया कंपनी ने महारानी विक्टोरिया को सन् १८५१ में दिया था। इसका नाम 'खिराज ए आलम' भी था। यह प्राय: ३९६ रत्ती का है। इसपर अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब, फर्रुखसियर तथा अहमद शाह दुर्रानी के नाम अंकित हैं।

मरकत, तारक्ष्य या पन्ना - रत्नपरीक्षा ग्रंथों के अनुसार बरबर प्रदेश में समुद्र के किनारे, रेगिस्तान के पास, तथा तुरुक्ष देश में पाया जाता है। कुछ ग्रंथों के अनुसार मगध के हजारीबाग में भी पाया जाता है, कुछ के अनुसार सिंधु के तीर पर तथा त्रिकूटगिरि पर मिलता है। फिनो ने 'लेलापिडेर आंडिया' में लिखा है कि 'मरकत' नाम का एक बंदरगाह मिस्र में था जिससे इस संग का नाम मरकत पड़ा। इसी स्थान के पास प्राचीन मरकत की खदान भी थी जो बंद हो गई।

इस रत्न का रंग प्राय: सिरस के पुष्प के सदृश, लहलहाते धान के खेत की भाँति, सुग्गे के पंख के रंग की तरह, मोर के पंख की भाँति, नीम, बबूल तथा बेल की पत्तियों की भाँति का होता है। सबसे सुंदर मरकत वही होता है जिसके हरे रंग में पीलापन हो। यह पत्थर रत्नों में बड़ा मुलायम होता है। सीसे से थोड़ा ही कड़ा होता है। रत्नपरीक्षा के ग्रंथों के अनुसार वही मरकत महा मरकत कहा जाता है जो कहीं रखने पर अपने आसपास की वस्तुओं को हरा कर दे।

मरकत के दस अवगुण तथा पाँच गुण वर्णन किए गए हैं। गुणों के विषय में कहा गया है कि वह निर्मल हो, गुरु हो, सुवर्ण हो, स्निग्ध हा तथा अरजस्क हो। इसके अतिरिक्त उसमें छूट और चमक होनी चाहिए। मरकत में जाला पड़ना, अबरखी होना, रूखा होना, गढ़ा पड़ना, चुरचुरा होना, रेखा और चीर पड़ना, दो रंग दिखाई देना, गुंभ होना, आदि दोष माने गए हैं।

पन्ना खदान में छह पहल जमता है और पहल के सहारे ही काटा जाता है। यदि इसे ठीक से न काटा जाए तो इसकी घूट में कमी आ जाती है। ७ या ८ रत्ती के दोषरहित पन्ने का दाम आज बहुत अधिक है। प्राचीन समय में ऐसा विश्वास था कि सर्प यदि पन्ना को देखे तो अंधा हो जाता है परंतु मनुष्य की आँख की ज्योति इसे देखने से बहुत बढ़ जाती है। आज पन्ना अमेरिका के कोलंबिया में, दक्षिण अमेरिका के ब्राजील में, रूस के साइबेरिया में, तथा दक्षिण अफ्रीका में मिलता है परंतु इन पन्नों का रग हरा होते हुए भी उनमें पीलापन नहीं रहता। भारत में पन्ना जंमू से आता है परंतु यह बहुत अच्छे रंग का नहीं होता।

सबसे विख्यात बड़ा पन्ना डेवनशायर पन्ना है जो प्रय: १,४५० रत्ती का है। यह दक्षिण अमेरिका के कोलंबिया की खदान से निकला था। दूसरा बड़ा पन्ना 'ब्रिटिश संग्रहालय' में है। यह १७० रत्ती का है। एक छोटी सोने में जड़ी पन्ने की चौकी भी ब्रिटिश संग्रहालय में है जो दोषरहित है। ऐसा ही एक सुंदर पन्ना लूब्र के संग्रहालय में है जो नेपोलियन की अँगूठी में था।

नीलम - नीलम, इंद्रनील या देवक की खदान, रत्नपरीक्षा के ग्रंथों के अनुसार, विंध्य पर्वत पर महानदी के किनारे, हिमालय में, काबुल में, आबू पहाड़ पर, जंमू में, मुलतान में, सिंहल द्वीप, कलिंग, श्याम, बर्मा में बताई गई है। यह कोरूंड जाति का पाषाण होता है। यूनानी भाषा में इसे सफाइरस कहते हैं जिसका अर्थ नीला होता है। इसका रंग अलसी के फूल की भाँति, नीले कमल के फूल के सदृश, मोर, नीलकंठ पक्षियों की ग्रीवा की तरह होता है। रत्न परीक्षा ग्रंथों के अनुसार दस भाँति का नीला रंग नीलम में मिलता है। यदि श्वेत रंग लिए हुए नीला रहता है तो उसे ब्राह्मण जाति का, लाली लिए हुए नीले को क्षत्रिय वर्ण का, पीला लिए हुए नीला को वैश्य और कलछौंह नीला को शूद्र वर्ण का माना जाता है। अच्छा नीलम वही है जो गुरु हो, स्निग्ध हो, सुरंग हो, तथा जो हृदयग्राही हो। रत्नपरीक्षा के अनुसार नीलम में, अबरखी पड़ना, डोरिया पड़ना, दूधक होना, चीर पड़ना, दो रंग होना, जाल, गढ़ा, मसल, सुन्न होना, रक्त विंदु, श्याम बिंदु तथा मधु के रंग का बिंदु होना दोष माने गए हैं। कहा गया है, यदि नीलम की तौल से बीस गुना दूध लेकर उसमें नीलम रखा जाए और वह दूध नीला हो जाए तो उस नीलम को अच्छा समझना चाहिए।

विरनुइ ने नीलम सर्वप्रथम प्रयोगशाला में १९०९ ई. में बनाया। बुद्ध भट्ट ने नकली नीलम के विषय में लिखा है कि शीशे, स्फटिक, वैदूर्य, करवीर तथा उत्पल से नीलम बनाया जाता है। आज जो नकली नीलम बनते हैं उनकी यही पहचान है कि उनमें गोलाई लिए हुए धारी पड़ती है और असली मे सीधी। किसी किसी बने हुए रत्न में हवा के गोल बुल्ले भी दिखाई दे जाते हैं।

ऐतिहासिक नीलमों में 'सर एडवर्ड सफायर' है जा इंग्लिस्तान के राजा के मुकुट में लगा है। दूसरा 'स्टुअर्ट सफायर' यह डेढ़ इंच लंबा और एक इंच चौड़ा है। यह भी राजा के मुकुट में लगा है।

पुखराज - (पुष्पराग) की गणना प्राचीन रत्नशास्त्रों में उपरत्नों में की गई है परंतु पीछे चलकर जब इसे नौ रत्नों में स्थान मिल गया तो इसकी भी गणना रत्नों में होने लगी। इसकी उत्पत्ति के स्थान टुर्की, ईरान, थाईलैंड, म्यांमार, कामरूप, उड़ीसा, महानदी, ब्रह्मपुत्र, विंध्याचल तथा हिमालय बताए गए हैं। आज रूस के यूराल पर्वत पर, दक्षिण अमेरिका के ब्राजील से, सिंहल तथा बर्मा से पुखराज आता है। अच्छा पुष्पराग चिकना, निर्मल, झलकते हुए पानी सदृश, पीला, एकरंगा माना गया है। इसके दस दोष गिनाए गए हैं जैसे चीर पड़ना, सुन्न दिखाई देना, दूधक होना, जाला होना, अबरखी होना। अन्य रत्नों की भाँति इसे भी रंग के सिब से चार जातियों में बाँटा गया है। सफेद पीले रंग के पुष्पराग को ब्राह्मण, लाल पीले रंग के रत्न को क्षत्रिय, पूर्ण पीले रंग के रत्न को वैश्य तथा पीले के साथ श्याम रंग को शूद्र जाति की संज्ञा रत्नपरीक्षा के ग्रंथों में दी गई है।

इसे भी चार वर्णों में इस प्रकार बाँटा गया है कि श्वेत घृत की भाँति के रंग का वैदूर्य ब्राह्मण, कंचन की झलक देता हुआ क्षत्रिय, पीली और हरी आभा का वैश्य तथा धूम वर्ण का शूद्र।

गोमेदक - गोमेदक या मेदक रत्नपरीक्षा के ग्रंथों के अनुसार बर्मा, अरब देशों में, कांतिपुर, हिमालय और विंध्याचल पर्वतों में, महानदी, सिंधु और सरस्वती के तटों पर पाया जाता है। भारत में गोमेदक उसी संग को कहते हैं जो पीला, लाल तथा श्याम रंग मिला हुआ गोमूत्र के रंग का होता है, यों इस पत्थर में बहुत से रंग मिला हुआ गोमूत्र के रंग का होता है, यों इस पत्थर में बहुत से रंग आते हैं। यह सफेद, नीला, हरा, गहरे लाल रंग का तथा पीला भी होता है। पाश्चात्य देशों में नीले गोमेदक की बहुत खपत है। आज यह प्राय: श्रीलंका, थाईलैंड, वियतनाम, रूस, मेडागासकर, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि स्थानों से आता है। इसकी छवि को ग्रहण लगे हुए सूर्य के रंग से, उल्लू और बाज के नयन के रंग से समानता दी गई है। खदान में यह चतुष्कोण रूप में जमता है। इसका घनत्व ४.६५ से ४.७१ तक होता है और कड़ापन हीरे के अनुपात में श्है। अच्छा गोमेदक वही माना जाता है जो दोषरहित हो, जिसमें चमक हो, कोमल, हो चिकना हो और जिसका रंग एक सा हो। इसके जाल, अबरखी, गढ़ा, चीर, धब्बा, दोरंग, काला, लाल, सफेद, छींटा, सुन्न इत्यादि दोषों का वर्णन ग्रंथों में पाया जाता है।

आभा के सहारे इसे चतुर्वर्ण में बाँटा गया है। श्वेत को द्विज वर्ण, रक्त को क्षत्रिय वर्ण, पीत को वैश्य वर्ण तथा श्याम को शूद्र वर्ण माना है।

आज विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि गोमेदक को अग्नि का ताप देकर सफेद किया जा सकता है। ऐसा करने पर इसमें हीरे का कड़ापन तो नहीं आता, परंतु हीरे से मिलती-जुलती चमक उत्पन्न हो जाती हैं।

मूंगा, विद्रुम, प्रवाल - संग न होते हुए भी मोती की भाँति नौ रत्नों में गिना जाता है। प्राचीन रत्नपरीक्षा के ग्रंथों के अनुसार मूँगा शकंजल, समलासक, देवक तथा रामक में मिलता है। रामक का अर्थ लुई फिनो ने (प्रस्तावना, पृ. ४८) एक लवण झील, जो म्लेच्छों के देश हेमखंड में है, किया है। पीछे के ग्रंथों के अनुसार यह हुरमुज में, फिरंगिस्तान के समुद्र में, सिसली के पास के समुद्र में और आस्ट्रेलिया के समुद्र में पाया जाता है। प्लीनी के अनुसार प्राचीन समय से मूँगा पाश्चात्य देशों में बहुत प्रचलित था तथा ओषधि के रूप में भी इसका व्यवहार किया जाता था। (ना.हि. ३२-२)।

भारतीय ग्रंथों के अनुसार इसका रंग सिंदूर, सिंग्रफ, हिंगुल के सदृश या तोते की ठोर की भाँति तथा गेरू के सदृश होता है। यह काष्ठ के सदृश नरम होता है। सिंदूर के रंग के मूँगे को विष वर्ण, हिंगुल तथा सिंग्रु के रंग को क्षत्रिय वर्ण, गेरू तथा सुग्गे की ठोर के सदृश रंग को वैश्य वर्ण तथा कृमि के रंग के श्याम मूँगे को शूद्र वर्ण कहा है। चिकना, चमकदार, एक रंग के दोषरहित मूँगे को अच्छा माना जाता है। इनमें दो रंग होना, गढ़ा पड़ना, धब्बा होना, चीर पड़ना आदि दोष माने गए हैं।

नौ रत्नों को एक साथ पहनने के हेतु माणिक्य को बीच में जड़ा जाता था। ऊपर की पंक्ति में क्रम से पन्ना, हीरा, मोती, दूसरी में पुष्पराग, माणिक्य, मूँगा और तीसरी पंक्ति में लहसुनिया, नीलम, गोमेदक। इन नौ रत्नों के अतिरिक्त स्फटिक, लाड़ली, फिरोजा, लाजवर्त, घृतमणि या जबरजद्द, तिरमुली, तैल्यमणि, उपलक इत्यादि उपरत्नों की श्रेणी में आते हैं।

स्फटिक - को रत्नपरीक्षा के ग्रंथों में चंद्रमणि भी कहा गया है। यह श्वेत होता है और इसमें चंद्रमा सी चमक हाती है। यों आज स्फटिक बैंगनी रंग का तथा पीला भी मिलता है परंतु भारत में जल की भाँति स्वच्छ स्फटिक ही अच्छा माना जाता है। इसकी विशेषता यह है कि किसी रंग का वस्त्र या डोरा इसके नीचे रख दिया जाए तो उसका रंग नहीं दिखाई देता।

लाड़ली - उन्नावी रंग का पत्थर होता है। इसी को मुगलों के समय लाल का नाम दिया जाता था। इसे सूर्य मणि भी कहा गया है। रत्नपरीक्षा के ग्रंथों के आधार पर इसकी उत्पत्ति के स्थान विंष्याचल, हिमालय, श्रीलंका, थाईलैंड, म्याँमार, चीन तथा बदखशाँ बताए गए हैं। आज लाड़ली बदखशाँ, चीन, म्याँमार, थाईलैंड तथा रूस से आती है। इसकी आठ तरह की छवि कही गई है - अंगारे के रग की, कनैल के फूल के रंग की, गुलाब के रंग की, इत्यादि। मुगल काल के भारत में लाड़ली की बड़ी माँग थी और उस काल के आभूषणों में प्राय: यह जड़ी जाती थी।

फिरोजा - वर्षा के पश्चात् आकाश के रंग का नीला पत्थर होता है। सब से अच्छा फिरोजा ईरान के निशापुर का होता है। यों यह इस्तंबोल और शिराज में भी पाया जाता है। भारत में यह गंडक तथा महानदी के किनारे और विंध्याचल के पर्वत पर होता है। अच्छा फिरोजा चिकना, चमकदार और एक रंगवाला समझा जाता है। इसका चलन अफगानिस्तान ईरान और अरब में बहुत है। अरब के लोगों का ऐसा विश्वास है कि इसका पहनने से आकस्मिक आपत्ति का निवारण होता है। प्रचीन काल में इसकी बड़ी माँग थी। फिरोजा की एक मणि सोने में मढ़ी मोहनजुदाड़ो से और एक मणि लोथल से प्राप्त हुई है। प्राचीन मिस्र में तो अनेक आभूषणों में यह जड़ा हुआ मिलता है।

लाजवर्त - गहरे बैंगनी रग का होता है जिसमें सुनहले छींटे भी होते हैं। भारत में यह सिंधु के किनारे, हिमाचल पहाड़ पर, मध्यप्रदेश में मिलता है तथा लंका से आता है। प्राचीन समय से आक्सस नदी की एक सहायक नदी कोक्ष के पास से फिरगाना स्थान से लाजवर्त आता था। अब साइबेरिया के बैकाल झील के पास तथा चील से भी आता है। लाजवर्त के कुछ पत्थर हलके आलोक में चमकते हैं। इससे भारतीय चित्रकार रंग भी तैयार करते थे।

इसमें गढ़ा, चीर, धब्बा, दो रंग, लूक, मैल, श्याम बिंदु दोष माने जाते हैं। इस रत्न की बनी अँगूठी राजघाट की खुदाई में भी मिली है।

कारकेतक - (घृतमणि या जबरजद्द) हलके हरे रंग का पत्थर होता है। यह रत्नपरीक्षा के ग्रंथों के अनुसार महानदी, गंगा, सिंधु नदियों के किनारे, त्रिकूट, विंध्याचल, हिमाचल, श्री पर्वत पर तथा म्याँमार में उत्पन्न होता है। इसकी छवि पीली, हरी, हलमी लाली लिए हुए सन के फूल के समान हाती है। देखने में ऐसा ज्ञात होता है जैसा बिना डोरे का बैदूर्य। और रत्नों की भाँति इससे भी दोष पड़ते हैं। अंग्रेजी में इस ओलविन कहते हैं। आज यह यूराल पहाड़ से आता है।

तिर्मुली - (वैक्रांत, कुवज्रक) सफेद, गुलाबी, श्याम तथा पीला रंग लिए हुए पाषाण हाता है। यह कावेरी, गंगा, वेन नदी के किनारे, हिमाचल, कामरूप, विंध्याचल के पर्वतों में तथा म्याँमार में होता है। अब्रक की छवि से इसकी उपमा दी जाती है। यह चिकना, कुछ कोमल पत्थर हाता है। आज यह गुलाबी, बैंगनी, नीला तथा सफेद रंग का प्राप्त होता है।

तैल्यमणि - (उदउक या उदऊ) सरसों के तेल के रंग का पत्थर हाता है। यह बड़ा चिकना तथा कामल होता है। आग में रखने से सुवर्ण की झलक देता है। फिर पानी में रखने से इसका अपना रंग लौट आता है। अंग्रेजी में इसे स्पिनेल (spinel) कह सकते हैं।

उपलक या ओपल - इसमें बहुत से रंगों की झलक मिलती है। प्लीनी ने इसकी बड़ी प्रशंसा की है (ना.हिस्ट्री २७-६)। नकली ओपल प्राचीन काल में सीसे से बनाया जाता था। इसकी छवि की उपमा दूध में तारे की परछाई से दी जाती है। इसमें जाला, गढ़ा, चीर, काला बिंदु दोष माने जाते हैं।

इनके अतिरिक्त ८४ संगों में और भी उपरत्नों के नाम जैसे एमनी, सुनैला, कांसला, दाने फिरंग, एशव इत्यादि प्राप्त होते हैं। भारत में रत्नों की पहचान पर बहुत काम हुआ है और इनके व्यवहार पर अनेक ग्रंथ लिखे गए। इनमें रत्नों के विषय में बहुत सी तत्कालीन सामग्री प्राप्त होती है।

आभूषणों में रत्नों का व्यवहार मणियों के रूप में भारत में पाषाण युग से प्रारंभ हो गया था। क्योंकि मध्य पाषाण युग के अस्त्रों के साथ उपरत्नों के मनके मिलते हैं। इनका रूप प्राय: फलों के बीजों से ही लिया हुआ प्रतीत होता है। कदाचित् पहले बीजों को ही छेद कर पहनने की प्रथा रही होगी। प्राचीन पाषाण युग के मनके और दूसरे आभूषण हड्डी और दाँतों के बने मिले हैं। प्रागैतिहासिक युग में जब काँसे और ताँबे का व्यवहार होने लगा था तो मनके बनने लगे थे जिनका ऊपर निर्देश हो चुका है। आभूषणों में रत्न जड़ने की कला का भारतीयों ने ही सर्वप्रथम आविष्कार प्राय: २,८०० वर्ष ईसा से पूर्व कर लिया था। पाषाण को घिसकर उसपर पहल देना भी भारतीयों ने उसी समय के लगभग प्रारंभ कर दिया था क्योंकि इस प्रकार का पहल दिया हुआ मनका भी हमें सिंधु धाटी की सभ्यता के चान्हूदाड़ों नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। हीरा, माणिक्य, पन्ना से जड़े हुए आभूषण आज भी व्यवहार में आते हैं।

यों भारत में प्राचीन काल से रत्नों को पीसकर, या उन्हें भस्म करके औषधि के रूप में भी व्यवहार होता रहा है और आज भी होता है। कुछ रत्न, जैसे मोती इत्यादि, तो पाश्चात्य देशों में भी ओषधि बनाने के काम में आने लगे हैं। ऐसी किंवदंती है कि मिस्र की रानी क्लियोपाट्रा मोती को सिरके में घोलकर अपनी सुंदरता बनाए रखने हेतु व्यवहार करती थी। (राय गोविंदचंद्र)