रतननाथ, सरशार जन्म १८४७ में लखनऊ के एक प्रतिष्ठित कश्मीरी खानदान में हुआ। पहले अरबी, फारसी, उर्दू पढ़ी, फिर कैनिंग कालेज में अंग्रेजी पढ़ी। खीरी के जिला स्कूल में कुछ दिन अध्यापक रहे। कश्मीरियों के एक पत्र 'मसलये कश्मीर' में लिखने लगे। 'अवध पंच' में भी लिखा। फिर 'अवध अखबार' के संपादक हो गए जिसमें 'फसानये आजाद' को किस्तबार लिखने लगे। यही किस्तें बाद को किताबी सूरत में छापी गईं और यही वह किताब है जिसने 'सरशार' को अमर बनाया।
इस उपन्यास में लखनऊ की मिटती हुई तहजीब और उस जमाने के सामाजिक जीवन का अत्यंत खूबी के साथ बयान किया गया है। जबान-ए-लखनऊ की निहायत सुथरी बामुहावरा और शगुफ्ता है। किरदार ऐसे ऐसे पेश किए गए हैं जो उर्दू अरब में नमूना बन गए हैं। फसानये आज़ाद का उर्दू नस्र में जवाब नहीं।
फसानये आजाद के अलावा भी आपकी किताबें हैं 'सैरे कोहसार', 'कामनी', 'पी कहाँ'। सन् १८९५ में आप हैदराबाद गए और वहाँ महाराजा सर किशनप्रसाद आपको अपना कलाम दिखलाया करते थे।
हैदराबाद में ही सन् १९०२ में आपका इंतिकाल हुआ। (रजिया सज्जाद ज़हीर)