रणजीतसिंह, महाराजा (१७८०-१८३९) शेर-ए-पंजाब के नाम से लोकप्रिय रणजीतसिंह सुक्करचक्किया मिसल के नेता सरदार महासिंह के पुत्र थे। वे गुजराँवाला (अब पाकिस्तान में है) में राजकौर के गर्भ से संवत् १८३७ (वि.) के मार्गशीर्ष मास की दूसरी तारीख तदनुसार ३ नवंबर, १७८० को सोमवार के दिन उत्पन्न हुए। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने कस्बे में ही भाई भागू सिंह की धरमशाला में प्राप्त की। अप्रैल, १७९० में पिता की मृत्यु के पश्चात् उत्तराधिकारी के रूप में सुक्करचक्किया मिसल के नेता हुए।
१७९८ में जब शाह ज़मान ने पंजाब पर आक्रमण किया, रणजीतसिंह ने बहादुरी से उसका मुकाबला किया और अंत में उन्होंने शाह जमान को पीछे हटने के लिए विवश कर किया। जब यह समाचार फैला कि कसूर का निजामुद्दीन लाहौर पर आक्रमण करनेवाला है तो प्रमुख मुस्लिम, हिंदू और सिक्ख नागरिकों ने १७९९ में उन्हें लाहौर की रक्षा के लिए आमंत्रित किया। तब निजामुद्दीन ने १८०० में भंगी और रामगढ़िया सिक्ख सरदारों से संधि की, किंतु यह संधि भंगी सरदार की आकस्मिक मृत्यु के कारण लड़खड़ा गई और रणजीतसिंह लाहौर के एकच्छत्र अधिपति हो गए।
रणजीतसिंह ने जम्मू और कश्मीर की ओर कूच किया और बीस हजार रुपयों की भेंट प्राप्त की। उन्होंने मिरोवाल, नरोवाल और जैसरवाल जीत लिए और वे अकालगढ़ पर, जो भंगी सरदारों का गढ़ था, टूट पड़े। इन भंगी सरदारों ने रणजीतसिंह के पूर्वजों के नगर गुजराँवाला पर अधिकार करने का प्रयत्न किया था।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने १८०० के अंत के लगभग अपने एक प्रतिनिधि मीर यूसुफ़ अली खाँ के साथ १० हजार रुपए रणजीत सिंह के पास भेजे कि वे कंपनी की मित्रता स्वीकार कर लें। रणजीत सिंह ने यह मित्रता आजीवन निभाई।
सन् १८०१ के बैशाखी दिवस (१२ अप्रैल) को पंजाब के प्रमुख नागरिकों ने रणजीतसिंह को महाराजा की उपाधि दी और गुरु नानक के उत्तराधिकारी बाबा सहिब सिंह द्वारा उनका 'तिलक समारोह' संपन्न हुआ।
राजकीय प्रशासन हेतु चुनाव करते समय महाराजा जाति और दल की अपेक्षा क्षमता और योग्यता का विचार करते थे। ऊँचे ऊँचे पदों पर हिंदू और मुसलमान समान रूप से नियुक्त किए जाते थे। यद्यपि वे स्वयं सिक्ख थे किंतु उनका राज्य केवल सिक्खों के लिए नहीं था।
१८०५ के अंत में यशवंतराव होल्कर जो अपने राज्य से पराजित होकर भागे थे, रणजीतसिंह के पास लार्ड लेक के विरुद्ध सहायता की याचना के लिए पहुँचे। लेक यशवंतराव होल्कर का पीछा करते हुए व्यास नदी तक पहुँच गया था। महाराजा ने उन दोनों के बीच संधि करा दी तथा दिल्ली के परे उसे उसके राज्य का सारा भाग दिला दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी से १८०९ में की गई संधि से रणजीतसिंह को सतलज के उत्तर के क्षेत्रों में अंग्रेजों के हस्तक्षेप का भय न रहा। उनको केवल सतलज के दक्षिण का भाग छोड़ना पड़ा।
रणजीतसिंह ने तब छोटी छोटी रियासतों के विलयन का कार्य आरंभ किया और शिवालक पहाड़ी रियासतों तथा करोड़सिधिया के हरियाना को लाहौर में मिला लिया। १८१० के आरंभ में साहीवाल के बलोचियों की ओर उनका ध्यान गया और उन्हीं दिनों उन्होंने गुजरा नगर का अधिकार कर लिया। उसी वर्ष की गर्मियों में जम्मू और सियालकोट भी जीत लिए गए।
१८११ में महाराजा के अफ़गानिस्तान के पदच्युत शाह शुजा के शरणार्थी परिवार को शरण दी और शाह की पत्नी वफ़ा बेग़्मा के अनुरोध पर उन्होंने बज़ीर फ़तेह खाँ से संधि कर ली और उसके दीवान मोहकम चंद को कश्मीर पर चढ़ाई के लिए नियुक्त किया, जहाँ अफ़गानों ने शाह को कैद करके बंद कर रखा था। शाह शुजा कारागार से मुक्त किया गया और सुरक्षित लाहौर लाया गया। इसपर शाह शुजा ने महाराजा रणजीतसिंह को कोहनूर हीरा भेंट किया।
१८१८ में उन्होंने मुल्तान और पेशावर जीते। १८१९ में कश्मीर को मिलाकर पंजाब की उत्तरी सीमाओं का विस्तार कर लिया। १८२६ में हैदराबाद के निजाम का एक प्रतिनिधि महाराजा के लिए अनेक उपहार लाया जिनमें एक सुंदर चँदोवा भी था। महाराजा ने उसे तुरंत स्वर्णमंदिर को भेंट कर दिया, वहाँ तोशाखाने में यह अब तक सुरक्षित है।
१८२७ में पेशावर सीमांत प्रदेश में बरेली के सैयद अहमद के सिक्ख विरोधी बहावी जिहाद से शांति भंग हो गई। सैयद अहमद ने उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल से बहुत सा रुपया और अनेक कट्टरपंथी मुसलमानों को जुटाकर पेशावर पर अधिकार कर लिया था। अंत में राजकुमार शेरसिंह और सरदार हरिसिंह नलवा के नेतृत्व में महाराजा की सिक्ख सेना ने १८३१ में जिहाद को दबा दिया। सैयद अहमद और शाह इस्माइल आदि जिहाद के नेता ६ मई को बालाकोट में खेत रहे।
काबुल के दोस्त मुहम्मद खाँ ने १८३५ में सिक्खों का पठान क्षेत्रीय गढ़ तोड़ने के लिए पेशावर की ओर कूच किया किंतु महाराजा रणजीतसिंह के वहाँ पहुँचने पर वह बिना हमला किए चुपचाप वापस चला गया। उसने १८३८ में दूसरी बार प्रयत्न किया किंतु सिक्खों से पेशावर जीतने में असफल रहा। पेशावर पंजाब के अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित किए जाने (१८४९) तक सिक्खों के हाथ में रहा। २६ जून १८३८, को अंग्रेजों, शाह शुजा और महाराजा के बीच होने वाली एक त्रिदलीय संधि, जिससे शाह शुजा को काबुल की राजगद्दी पर बैठाया गया, महाराजा रणजीतसिंह के जीवन की अंतिम पूर्ण राजनीतिक घटना थी।
महाराजा रणजीतसिंह की सर्वप्रमुख उपलब्धि यह थी कि उन्होंने जम्मू और कश्मीर को मिलाकर पंजाब को एक शक्तिशाली, प्रभुता संपन्न राज्य का रूप दिया और इसकी सीमाओं को तिब्बत के पश्चिम सिंध के उत्तर और खैबर दर्रे से लेकर यमुना नदी के पश्चिमी तट तक बढ़ाकर इसे राजनीतिक और भौगोलिक एकता प्रदान की। डब्ल्यू.जी. ऑसबर्न के शब्दों में 'महाराजा धार्मिक रीति रिवाजों के नियमित पालन में दृढ़ विश्वासी थे।' किंतु उनकी सरकार सांप्रदायी आग्रहों से मुक्त थी और उसमें सभी समुदायों के लोग सम्मिलित थे। जे.डी. कनिंघम के अनुसार 'उनका राज्य जनभावना पर आधारित था।' डॉ.डब्ल्यु.एल. म'ग्रेगर 'हिस्ट्री ऑव् दि सिक्ख्स' (१८४६) में लिखता है - 'वह सामान्य व्यक्ति नहीं थे किंतु संपूर्ण पूर्व और पश्चिम संसार में दुर्लभ मानसिक शक्तियों के स्वामी थे'। (गंडासिंह )