रघुनाथदास गोस्वामी बंगाल के सप्तग्राम के मजूमदार हिरण्यदास तथा गोवर्धनदास दो भाई अत्यंत धार्मिक तथा विद्वान् थे। ऐश्वर्यशाली होते हुए भी बड़े उदार थे। ये कायस्थ थे तथा द्वितीय रघुनाथदास के पिता थे। इनका जन्म सं. १५५१ में हुआ। यह प्रकृति ही से विरक्त तथा ऐश्वर्य से उदासीन थे। इन्होंने शांतिपुर जाकर संन्यस्त श्री गौरांग का दर्शन किया। इसके अनंतर इनका विवाह हुआ। चार वर्ष बाद पुन: यह श्री गौरांग के दर्शन को शांतिपुर गए। उन्होंने उपदेश दिया कि कर्म किए बिना छुटकारा नहीं, मर्कटविरक्ति से लाभ नहीं; अत: स्थिरधी हो कर्म करते रहो, भगवत्कृपा अवश्य होगी। रघुनाथदास गृह लौट आए। द्वेषियों के षड्यंत्र से यह गौड़ बुलाए गए और एक वर्ष कारागार में रहने पर इन्हें छुट्टी मिली। श्री नित्यानंद के पानिहारी आने पर यह उनसे मिलने गए। इसके अनंतर यह अवसर पा गृहत्यागी हो पुरी चले गए। यहाँ श्री स्वरूप दामोदर से भक्तिशास्त्र का अध्ययन करते हुए कठोर साधना की और श्री गौरांग के अप्रकट होने पर सं. १५९० में वृंदावन चले गए। गोवर्द्धन पर्वत के पास राधाकुंड पर कुटी बनाकर रहने लगे और श्रीगौर की दी हुई गोवर्धनशिला का पूजन करते रहे। रघुनाथ ने भठे हुए राधाकुंड को खुदवाकर स्वच्छ कराया तथा उसके जल से भर जाने पर स्नानार्थी लोग आने लगे और चारों ओर क्रमश: मंदिर, कुंज, भजनकुटीर आदि बने। इस प्रकार यहाँ दूसरा वृंदावन बस गया और यह 'राधाकुंड के रघुनाथ' कहे जाने लगे। यह रतिमंजरी या रसमंजरी सखी के अवतार मान जाते हैं। आश्विन शुक्ल १२, सं. १६४० में इनका शरीरपात हुआ। रचनाएँ - १. स्तवावली, जिसमें उनतीस स्तव हैं २. दानकेलि चिंतामणि, ३. मुक्ताचरित। ((स्व.) ब्रजरत्नदास)