रक्तक्षीणता (Anaemia) शरीर में विद्यमान लाल रुधिर कणों की कमी की अवस्था है। यह अवस्था प्राय: अनेक व्याधियों के कारण प्रकट होती है। रक्तक्षीणता स्वतंत्र रूप से कोई रोग नहीं है।

रक्तक्षीणता के भेद - रक्तक्षीणता को निम्नलिखित श्रेणियों में विभक्त किया गया है :

१.����� साधारण रक्तनिर्माण के अनिवार्य अंश के अभाव से उत्पन्न रक्तक्षीणता - इसके अंतर्गत लोहे की कमी, विटामिन सी की कमी, बाह्य तथा आंतरिक घटकों की कमी, पोषक आहार की दीर्घकालिक कमी, इत्यादि सम्मिलित हैं।

२.����� बाह्य एवं आंतरिक कारण से रक्तक्षीणता - कुछ रोगों में उन लाल रुधिर कणों की, जो प्रतिदिन नष्ट होते रहते हैं, पूर्ति नहीं होती या रुधिर कणों का निर्माण बंद हो जाता है, जैसे मुख्य दुष्ट रक्तक्षीणता (perniceous anaemia) में। इस वर्ग में हैं : (क) रुधिर के ऐसे रोग, जिनमें श्वेत रुधिर कण अत्यधिक बढ़ जाते हैं, जैसे रक्तश्वेताणुमयता (Leukaemia)। इन रोगों में लाल रुधिर कण कम बनते हैं और मरते बहुत हैं। (ख) गर्भ की बृहत्लोहिताणु (macrocytic) क्षीणता। (ग) आमाशय की यांत्रिक प्रणाली की विकृति के कारण संवेधिक अवस्था, जैसे स्प्रू इत्यादि। (घ) उष्णवलयिक बृहत्लोहिताणु (tropical macrocytic) क्षीणता। (च) यकृत् रोग की बृहत् लोहिताणु रक्तक्षीणता।

३.����� अत्यधिक रुधिर के नाश के कारण रक्तक्षीणता -

(क) कुछ रोगों में दिन प्रतिदिन लाल रुधिर कणों का नाश होता रहता है, जिसके फलस्वरूप कुछ दिनों में रक्तक्षीणता उत्पन्न हो जाती है, जैसे मलेरिया, कालाजार, उपदंश (गर्मी), राजयक्ष्मा, मधुमेह, जीर्ण वृक्कशोथ आदि में।

(ख) कुछ रोगों में तथा रक्तस्राव से जल्दी जल्दी लाल रुधिर कणों का नाश होता है, जिससे कुछ दिनों में ही क्षीणता हो जाती है, जैसे न्यूमोनिया, टायफायड, शीतला, रक्तवमन, गर्भपात, रक्तप्रदर, बवासीर, शल्यकर्म, प्रसूति, प्राघात तथा अधिक मदिरा के सेवन से।

(ग) गौण रुधिरसंलायिकीय क्षीणता (Secondary haemolytic anaemia)।

(घ) आवेगी हीमाग्लोबिनमेह (Paroxymal Haemoglobinuria)।

(च) शैशवावस्था की शोणांशिक रक्तक्षीणता।

४.����� ऐप्लास्टिक (aplastic) रक्तक्षीणता - यह वह रक्तक्षीणता है जिसमें अस्थिमज्जा के उस भाग का नाश हो जाता है जिसमें लाल रुधिर कण बनते हैं। यह अवस्था मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है, (क) अज्ञात कारण जन्य, (ख) गौण कारण जन्य।

रक्तक्षीणता नर नारी, दोनों को, समान रूप से प्राय: प्रत्येक अवस्था में हो सकती है। गरमियों में अधिक होती है।

क्षीणता के प्रमुख लक्षण एवं निदान - विशेष रोगों में रक्तक्षीणता के लक्षण शरीर के वर्ण से ही पहचान में आ जाते हैं, जैसे ओठ, नाखून तथा आँखों के निचली कनीनिका के भाग का सफेद हो जाना। अन्य सामान्य लक्षणों के अंतर्गत रोगी को चक्कर आता है, भूख नहीं लगती, शारीरिक क्षीणता एवं निर्बलता रहती है, तथा कार्य करने की शक्ति का ्ह्रास, बुद्धिभ्रम, यकृत् वृद्धि इत्यादि लक्षण उग्र रूप से प्रकट होते हैं। घातक रक्तस्रावजन्य रक्तक्षीणता की अवस्था में तो रोगी मूर्छित हो जाता है और यदि रक्त की तत्काल पूर्ति रक्तदान एवं अन्य उपायों से न की गई तो रोगी का जीवन संकटमय हो जाता है। कभी कभी रोग रहते हुए भी लाक्षणिक क्षीणता का पता नहीं लगता और रोगी भी आक्रमण काल के अतिरिक्त अन्य समय अपने आप को स्वस्थ समझने लगता है, जैसे मिरगी, हिस्टीरिया आदि की बेहोशी के समय इन कारणों से उत्पन्न मूर्च्छा के समस्त लक्षण दिखाई पड़ते हैं, परंतु बाद में ये लक्षण लुप्त हो जाते हैं। उस समय नाड़ी की गति, हृदय की धड़कन आदि लक्षणों से भी रोग का पता लगाना संभव नहीं होता। ऐसी अवस्था में लाल रुधिर कणों की गणना से ही रोग का निदान संभव होता है।

कभी कभी हर्निया, आँतों का फोड़ा, आमाशयिक घातक अर्बुद, आदि रोगों के कारण एकाएक रोगी दुर्बल होने लगता है, जिससे रक्तक्षीणता के कारणों का ज्ञान कठिन हो जाता है। इसके लिए भी रक्तपरीक्षण कराना नितांत आवश्यक होता है।

रक्तक्षीणता के निदान के हेतु रक्तक्षीणता के अंतर्गत निम्नलिखित दो बातों का पता लगाना अत्यंत आवश्यक होता है:

(१)��� लाल रुधिर कणों की संख्या, जो साधारणत: रक्त में ४५ से ५० लाख प्रति घन मिलीमीटर होती है तथा रक्तक्षीणता में घटकर २५ से ३० लाख प्रतिघन मिलीमीटर हो जाती है।

(२)��� हीमोग्लोबिन की मात्रा साधारणत: १४.५ ग्राम प्रति १०० ग्राम रक्त में होती है। इसी को शत प्रतिशत हीमोग्लोबिन कहते हैं। रक्तक्षीणता में यह प्रतिशत मात्रा घटकर ५० प्रतिशत हो जाती है।

परीक्षा के हेतु उँगली पर सूचिवेध करके एक यह रुधिर शीशे की पटरी पर लिया जाता है, परंतु कभी-कभी अस्थिमज्जा में से निकालने के लिए 'स्टरनल पक्चर' (sternal puncture) किया जाता है।

उपचार - रक्तक्षीणता की चिकित्सा सामान्य रूप से कारणों के अनुसार ही होनी चाहिए। वर्गीकरण के अनुसार रक्तक्षीणता की जानकारी प्राप्त करके, उसकी उत्पत्ति के कारण को पहचान कर, उसकी चिकित्सा करने से ही लाभ होता है। सभी तरह की रक्तक्षीणता में पूर्ण आहार के साथ लोहे की समुचित मात्रा रहनी चाहिए।

(१)�� साधारण उपाय - इसमें शारीरिक एवं मानसिक विश्राम, अच्छी सेवा, ताजा हवा, धूप आदि मुख्य उपक्रम हैं। जब तक लौह चिकित्सा से रक्तक्षीणता ठीक न कर दी जाए, तब तक विश्राम ही सर्वोत्तम चिकित्सा है, ताकि हार्दिक अस्थिरता, जैसे धड़कन, दम फूलना, और चक्कर का आना दूर किया जा सके।

(२)�� लक्षणोपयुक्त चिकित्सा - उदर एवं अन्न संबंधी उपद्रव, जैसे क्षुधा नाश, आमाशय प्रदेश में तनाव एवं भारीपन, वमनेच्छा, वमन, कब्ज एवं अतिसार के आक्रमण आदि, का समय पर उपचार करना चाहिए।

(३)�� आहार चिकित्सा - गंभीर रक्तक्षीणता की आरंभिक अवस्था में भोजन हलका होना चाहिए। इसमें दूध, पुडिंग, दलिया, जेली, थोड़ी उबाली मछली, हरी सब्जी, (जैसे पालक), गाजर, मक्खन, इत्यादि का सेवन करना चाहिए। भूख में वृद्धि के अनुसार और पाचन वृद्धि के अनुसार मांस, मुर्गे का मांस, हरे शाक और फल खाए जा सकते हैं। आहार में प्रतिदिन १० से १५ मिलीग्राम लोहा होना चाहिए। ताजे फल, अंडे, ओटमील, दालों एवं मटर में विशेषत: लोहा होता है।

(४)�� लौह चिकित्सा - लौह योग की ओषधियों को मुख एवं सुई द्वारा प्रयोग करते हैं। इस चिकित्सा को तब तक जारी रखना उचित है जब तक लाल रुधिर कण की संख्या तथा हीमोग्लोबिन की प्रतिशत मात्रा सामान्य रूप धारण न कर ले।

रक्तक्षीणता की अन्य औपचारिक चिकित्सा में यकृत् का योग, विटामिन बी१२ तथा फोलिक अम्ल को सुई एवं मुख द्वारा रोगी की अवस्था एवं रोग की उग्रता के अनुसार निर्धारित करके प्रयोग करना श्रेयस्कर है। इस चिकित्सा को तब तक चलते रहना चाहिए जब तक रक्तक्षीणता पूरी तरह से दूर न हो जाए।

घातक रक्तक्षीणता, ऐप्लास्टिक रक्तक्षीणता एवं रक्तस्रावजन्य रक्तक्षीणता की एकमात्र चिकित्सा तत्काल रक्तदान है। (प्रियकुमार चौबेै.)