रंगीन फोटोग्राफी (Colour Photography) दो विधियों द्वारा संपन्न होती है : प्रथम, वस्तुपरक (objective), या भौतिक रंगीन फोटोग्राफी, जिसका उद्देश्य हरी वस्तु को हरी तथा नीली को नीली अर्थात् वस्तु को वास्तविक रंग में दिखाना है। इसका उदाहरण लिप्पमैन प्लेट (Lippman Plate) विधि है। यह विधि व्यावहारिक तथा व्यापारिक महत्व की नहीं है। दूसरी विधि, प्रातीतिक (subjective) अथवा त्रिवर्णी (trichromatic) फोटोग्राफी है। यही विधि व्यावहारिक तथा व्यापारिक महत्व की है। इसी का वर्णन किया जाएगा।

त्रिपर्णी रंगीन फोटोग्राफी - टॉमस यंग (सन् १८०१) तथा बाद में अन्य लोगों ने, विशेषकर हेल्महोल्ट्स (Helmholtz) ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि मानवीय आँखों के द्वारा रंग का दर्शन, केवल तीन प्राथमिक रंगों के मिश्रण पर आधारित है और कोई भी रंग इन रंगों के उचित अनुपात में मिश्रण द्वारा उत्पन्न किया जा सकता है। ये तीन रंग लाल, हरा तथा नीला है।

मैक्स्वेल ने १८६१ ई. में फोटोग्राफी के द्वारा एक रंगीन दृश्य को चित्रित कर यंग के सिद्धांत को सिद्ध किया था। इस प्रकार मैक्स्वेल ने यह दर्शाया था कि तीन विभिन्न रंगों के प्रकाशस्रोतों को समुचित रूप से मिश्रित करके आँखों द्वारा परिलक्षित किसी भी रंग का आभास कराया जा सकता है। उसके द्वारा चुने रंग लाल, हरा तथा नीला थे, जिन्हें 'प्राथमिक रंग (Primary colours), कहा जाता है। इन्हें मिश्रित करके, कुछ बहुत ही गहरे रंगों को छोड़कर, समस्त रंग 'निर्मित' किए जा सकते हैं।

इन तीनों प्राथमिक रंगों के विभिन्न अनुपातों में संयोग से अन्य अनेक प्रकार के रंग उत्पन्न किए जा सकते हैं, जैसे हरा एवं लाल मिलाने से, हरे तथा लाल की सापेक्षिक तीव्रता के अनुसार, नारंगी, पीला या पीला हरा रंग उत्पन्न हो जाएगा।

रंगीन चित्रण विधि - आधुनिक व्यावसायिक विधियों में रंगीन फोटोग्राफी की क्रिया दो भागों में की जाती है, प्रथम 'त्रिवर्णी विश्लेषण' (Trichromatic Analysis) तथा द्वितीय 'वण्र संयोजन' (Colour Synthesis)। मैक्सवेल ने अपनी विश्लेषण की क्रिया में विषयवस्तु से आनेवाले प्रकाश को लाल, हरे तथा नीले फिल्टरों से गुजार कर, तीन भिन्न फोटोग्राफी के प्लेटों पर डाला ओर इस प्रकार विषयवस्तु के लाक्षणिक रंगों का विश्लेषण कर लिया। लाल रंग के लिए फोटोग्राफीय इमल्शन को जब एक लाल फ़िल्टर के पीछे उद्भासित (expose) करके विकसित, अर्थात् डेवलप (develope), किया जाता है, तब विषयवस्तु के प्रत्येक क्षेत्र से परावर्तित लाल प्रकाश, काले सफेद 'नेगेटिव' चित्र में, चाँदी के कणों के घनत्व के रूप में परिवर्तित हो जाता है। विषयवस्तु के किसी भाग से जितना अधिक लाल प्रकाश आएगा उतना ही अधिक नेगेटिव के तदनुरूप भाग में चाँदी के काले कणों का घनत्व होगा, तथा वह स्थान जहाँ से कोई भी लाल प्रकाश न आएगा नेगेटिव में बिल्कुल साफ रहेगा, अर्थात् वहाँ घनत्व शून्य होगा। इसी प्रकार, दूसरी और तीसरी प्लेटें, जो हरे तथा नीले फिल्टरों के पीछे उद्भासित की गई थी, विषयवस्तु के क्रमश: हरे तथा नीले रंगों को परावर्तित करनेवाले भागों को अंकित करेंगी। साथ ही विषयवस्तु के इन दो, या अधिक प्राथमिक रंगों से निर्मित रंग दो, या अधिक नेगेटिवों में अंकित हो जाएँगे। इस प्रकार विषयवस्तु के समस्त रंग, कुल मिलाकर इन तीन निगेटिवों में, चाँदी के घनत्वों के रूप में, अंकित हो जाएँगे। इसी क्रिया को विषयवस्तु का 'त्रिवर्णी विश्लेषण' कहते हैं तथा प्लेट पर लगा पायस (इमल्शन) इन रंगों का अभिलेख होता है।

अब रंगीन त्रिवर्णी फोटोग्राफी की विधि का दूसरा भाग 'रंग संयोजन' पूर्ण किया जाता है। इस क्रिया का उद्देश्य प्रथम क्रिया से प्राप्त तीनों नेगेटिवों में अंकित चाँदी के प्रतिबिंबों से मूल रंगों के प्रतिबिंबों का पुन: संयोजन है। मैक्स्वेल ने इस क्रिया के लिए नेगेटिवों से तीन पॉज़िटव प्रतिबिंब, अथवा मैजिक लालटेनों की तीन स्लाइडें बनाई थीं और प्रकाश को प्रथम उनमें से और बाद में लाल, नीले तथा हरे फिल्टरों से गुजारकर, एक पर्दे पर प्रक्षेपित (project) कर, दर्शकों के चक्षुओं के लिए रंगीन चित्र का निर्माण अथवा 'संयोजन' कर दिया था।

प्रत्येक रंगीन-चित्रण-प्रणाली में यही दो, वर्णविश्लेषण तथा वर्णसंयोजन, की क्रियाएँ उपयोग में लाई जाती हैं। प्राय: तीन वर्ण पृथक्करण नेगेटिव अलग अलग नहीं देखे जाते, अपितु संयोजन क्रिया एक ही कागज अथवा फिल्म में कर दी जाती है। सही रंगीन फोटोग्राफी के लिए यही दोनों क्रियाएँ करनी पड़ती हैं।

जिस प्रकार कोई रंग, या तो दो प्राथमिक रंगों के मिश्रण के द्वारा, अथवा श्वेत प्रकाश से कुछ रंग अवशोषित कर, प्राप्त किया जा सकता है, उसी प्रकार वर्णसंयोजन की भी दो विधियाँ हैं - एक तो योगज-वर्ण-निर्माण (Additive Colour synthesis) तथा दूसरी व्यवकलनात्मक-वर्ण-संश्लेषण (Subtractive Colour Synthesis)।

इसी प्रकार श्वेत प्रकाश से कुछ वर्णों को निकालकर, या अवशोषित कर एक नया रंग प्राप्त किया जा सकता है। एक पीला फिल्टर हरे तथा लाल रंग के प्रकाशों को तो गुजार देता है, पर नीले को अवशोषित कर लेता है, अर्थात् एक पीला फिल्टर ऋण नीला, अथवा नीला अवशोषक है। इस प्रकार इसके उपयोग के पश्चात् श्वेत प्रकाश में सिवाय नीले वर्ण स्पेक्ट्रम के समस्त रंग मौजूद होंगे। इसी प्रकार 'मैजेंटा फ़िल्टर' हरा अवशोषक है। इसलिए, यदि एक पीला फिल्टर, तो दर्शक को केवल लाल प्रकाश ही पारेषित (transmit) होकर प्राप्त हो सकेगा। इसी प्रकार एक मैंजेंटा फिल्टर (हरा अवशोषक) तथा सायन फिल्टर (लाल अवशोषक) के प्रयोग से केवल नीला प्रतिबिंब ही प्राप्त होगा, क्योंकि लाल तथा हरा अवशोषित हो जाएँगे। एक सायनफिल्टर (लाल अवशोषक) तथा पीले फिल्टर (नीले अवशोषक) के प्रयोग से केवल हरा बच रहेगा। इस प्रकार तीनों प्राथमिक रंग (हरा, लाल और नीला) या अन्य रंग श्वेत से सायन, मैंजेंटा अथवा पीले आदि जैसे उचित रंगों के व्यवकलन (subtraction) के द्वारा उत्पन्न किए जा सकते हैं। यही वर्णनिर्माण की व्यवकलन विधि है।

योगज वर्णसंश्लेषण - जैसा पहले कहा जा चुका है, त्रिवर्णी रंगीन फोटोग्राफ 'योगज' अथवा 'व्यवकलन' वर्ण-संश्लेषण-विधि से तैयार किए जा सकते हैं। त्रिवर्णी वर्ण विश्लेषण द्वारा प्राप्त, डेवलप किए हुए पृथक्करण निगेटिवों में चाँदी के कणों के घनत्व, वस्तु (subject) से परावर्तित होकर आए, तीनों प्राथमिक रंगों की मात्रा को प्रदर्शित करते हैं। पृथक्करण निगेटिव को यदि लाल फिल्टर के समक्ष (अनावृत) किया जाए, तो उस निगेटिव में चाँदी के कणों का घनत्व वस्तु में लाल रंग की स्थिति प्रदर्शित कर देगा।

यदि इन नेगेटिवों से अश्वेत श्वेत, अर्थात् काले सफेद 'पॉज़िटिव' पारदर्शी चित्र बना लिए जाएँ, तो उनमें काले कणों के घनत्व की अनुपस्थिति रंग की उपस्थिति को प्रदर्शित करेगी। लाल पृथक्करण निगेटिव से प्राप्त पॉज़िटिव में विषयवस्तु के लाल भागों के अनुरूप भाग साफ होंगे, कम लालवाले भागों में काले कणों का थोड़ा घनत्व होगा और लाल रंगविहीन भागों में अपेक्षाकृत अधिक घनत्व होगा। इस प्रकार यह पॉज़िटिव, वस्तु में लाल रंग की उपस्थिति का अभिलेख फोटोग्राफ में चाँदी के कणों के घनत्व के रूप में, प्रस्तुत कर देगा। जितना अधिक घनत्व होगा, उतना ही कम लाल रंग, वस्तु में उस स्थान पर, उपस्थित रहा होगा।

इस पॉज़िटिव चित्र को जब लाल प्रकाश की सहायता से देखा जाएगा, तो वह दर्शक को वस्तु के विभिन्न भागों में उपस्थित लाल रंग को दर्शा देगा। इसी प्रकार दो अन्य नेगेटिवों से बने पॉज़िटिव पारदर्शक चित्र वस्तु के हरे व नीले रंग को उस समय प्रदर्शित कर देंगे जब उन्हें क्रमश: हरे और नीले प्रकाश की सहायता से देखा जाएगा, अर्थात् उस रंग के प्रकाश की सहायता से देखा जाएगा जिसमें उन दोनों निगेटिवों को उद्भासित किया गया था।

विषयवस्तु को संपूर्ण रंगों में प्रदर्शित करने के लिए अब केवल इन तीनों रंगों को संश्लेषित कर देना शेष रह जाता है। यह कार्य योगज प्रक्षेपन (additive projection) द्वारा, अथवा फोटो क्रोमोस्कोप (प्रकाश वर्णदर्शी, अर्थात् तीन रंगीन पॉजिटिवों को एक ही जगह एकत्र करके देखने का यंत्र) के द्वारा पूर्ण किया जा सकता है।

यद्यपि इस विधि से विषयवस्तु का रंग तो शुद्ध रूप से प्रदर्शित हो जाता है, पर अधिक खर्चीली तथा असुविधाजनक होने के कारण यह प्रचलित तथा सर्वप्रिय नहीं हो पाई। इसका उपयोग रंगीन चलचित्रों तथा रंगीन टेलीविज़न आदि के लिए होता है।

वर्णसंयोजन की व्यवकलन विधि - यदि लाल फिल्टर के वर्ण पृथक्करण नेगेटिव से तैयार किए हुए पॉज़िटिव पर चाँदी का प्रतिबिंब, एक सायन (cyan, हरा और नीला के बीच का) रंग [जैसे रंजक (dye), स्याही, या वर्णक (pigment)] में परिवर्तित कर दिया जाए, तो सायन रंग भी चाँदी के प्रतिबिंब की ही भाँति लाल प्रकाश को अवशोषित कर लेगा। इस प्रकार सायन प्रतिबिंब लाल प्रकाश को नियंत्रित करनेवाले वाल्व के रूप में कार्य करेगा। साथ ही यदि यह अच्छा सायन हुआ, तो यह उतना ही लाल प्रकाश अवशोषित कर लेगा जितना चाँदी का काला प्रतिबिंब। इस कारण प्रक्षेप लालटैनों (projection lanterns) में चाँदी के काले प्रतिबिंब के स्थान पर एक पॉज़िटिव सायन प्रतिबिंब लगाया जा सकता है। प्रक्षेप किया हुआ प्रतिबिंब दोनों दशाओं में समान होगा। इसी कारण सायन को प्राय: 'ऋण लाल' (लाल अवशोषक) कहते हैं। इसी प्रकार मैंजेंटा, या हरे अवशोषक तथा पीले, या नीले अवशोषक (ऋण नीला) को क्रमश: हरे, या नीले फिल्टरों के द्वारा प्राप्त पॉज़िटिव के चाँदी के काले प्रतिबिंबों के स्थान पर प्रयुक्त किया जा सकता है।

सायन, मैजेंटा तथा पीले प्रतिबिंब, न केवल तीन चाँदी के प्रतिबिंबों के समतुल्य हैं, अपितु इनके द्वारा एक महत्वपूर्ण लाभ यह है कि इन्हें बिना किसी फिल्टर के एक श्वेत प्रकाश के प्रक्षेपक में, एक के ऊपर एक रखकर, लगाया जा सकता है और इस प्रकार दर्शक पर प्राप्त प्रभाव भी समान बना रहेगा।

सायन प्रतिबिंब प्रक्षेपक के श्वेत प्रकाश से उचित भागों में लाल प्रकाश घटा देता है। इसी प्रकार मैजेंटा हरे रंग को तथा 'पीला' नीले रंग को घटा देता है। इस प्रकार प्राप्त फल वही है, जो योगज वर्णसंयोजन से प्राप्त हुआ था, अर्थात् विषयवस्तु के विभिन्न भागों में कौन कौन से प्रारंभिक रंग कितनी मात्रा में मौजूद थे, अथवा थे भी या नहीं, यह देखा जा सकता है। आँख के लिए पहले की विषयवस्तु के रंगीन दर्शन के लिए इतनी ही सूचना पर्याप्त है। ऐसा संयोजन जिसमें सायन, मैजेंटा तथा पीले प्रतिबिंबों को एक ही प्रक्षेपक में, श्वेत प्रकाशस्रोत पर अथवा एक परावर्तनीय (reflecting) श्वेत तल, जैसे कागज, पर एक के ऊपर दूसरा एक साथ प्रयुक्त किया जाता है, व्यवकलनात्मक वर्णसंयोजन कहलाता है। अधिकतर रंगीन फोटोग्राफी के कार्यों में यही विधि प्रयुक्त होती है।

वर्णविश्लेषण की विधियाँ - रंग पृथक्करण नेगेटिवों का बनाना रंगीन फोटोग्राफ बनाने का एक आवश्यक अंग है। वर्ण विश्लेषण की क्रिया बिलकुल स्वतंत्र तथा पृथकश् क्रिया हो सकती है, जिसके पश्चात् वर्णसंयोजन की क्रिया की जा सकती है, अथवा वर्णविश्लेषण की क्रिया ऐसी एक संपूर्ण प्रक्रिया का अभिन्न अंग हो सकती है जिसमें पृथक्करण निगेटिवों को अलग कभी नहीं देखा जा सकता। नीचे दी हुई रीतियों में पृथक्करण पद्धतियाँ (separable systems) वे हैं जिनमें वर्णपृथक्करण नेगेटिव, उद्भासन तथा डेवलपिंग आदि के पश्चात्, भौतिक रूप से तीन अलग प्रतिबिंबों के रूप में उपलब्ध हो जाते हैं। इसके विपरीत अपृथक्कारी पद्धतियाँ (inseparable systems) वे हैं जिनमें उद्भासन तथा डेवलपिंग आदि के उपरांत तीन वर्णपृथक्करण नेगेटिव प्रतिबिंब तो बनते हैं, पर वे बाद में प्रकाशकीय तथा रासायनिक क्रिया, अथवा इनमें से केवल एक क्रिया, के द्वारा वर्णसंयोजन के लिए एक साथ विभिन्न अंगों के रूप में ही रहते हैं।

वर्णविश्लेषण की रीतियाँ - ये दो प्रकार की है तथा प्रत्येक में दो विभेद हैं: (१) पृथक्करण पद्धतियाँ - (अ) क्रमवत् उद्भासन (successive exposures) तथा (ब) एक साथ उद्भासन। (२) अपृथक्कारी पद्धतियाँ - (अ) पार्श्वीय (lateral) पृथक्करण, एक इमल्शन तथा (ब) ऊर्ध्ववत् (vertical) पृथक्करण, अनेक इमल्शन। २ (ब) के उदाहरण बहुपरतीय फिल्में (Multilayer films), या एकल पैक (Monopacks) हैं। इसे उदाहरण कोडाक्रोम, ऐंसोक्रोम, कांडेकएक्टाक्रोम तथा ऐग्फ़ा कलर फिल्में हैं। यही सबसे अधिक सर्वप्रिय विधि है। इस कारण इसी की चर्चां की जाएगी।

बहुपरतीय प्रणाली - एक ही आधार पर तीन इमल्शनों की तहें, एक के ऊपर एक जमा दी जाती हैं। प्राय: इन इमल्शनों के बीच में, या तो साफ (पारदर्शी) जिलैटिन की परतें, या फिल्टर का कार्य करनेवाली परतें, होती हैं। चूँकि फोटोग्राफीय इमल्शन मूल रूप से नीले प्रकाश के लिए सुग्राही (sensitive) अथवा नीले ग्राही होते हैं, इस कारण नीलाग्राही इमल्शन कैमरे की फिल्मों में लेंस के निकटतम रहता है। इसके नीचे नीली अवशोषक (पीली) परत होती है, जो बाद में क्रमश: हराग्राही तथा लालग्राही इमल्शनों द्वारा नीले रंग को 'रेकर्ड', अथवा प्रभावित करने से रोकती है। प्राय: लालग्राही इमल्शन लेंस से सबसे अधिक दूर रहता है। इस प्रकार की बहुपरतीय फिल्म में वर्णविश्लेषण केवल एक उद्भासन में ही हो जाता है और जब फिल्म को डेवलप करके उसका नेगेटिव तैयार किया जाता है, तब तीन चाँदी के पृथक्करण रेकर्ड, एक के ऊपर एक, प्राप्त हो जाते हैं। कुछ पदार्थ तो ऐसे होते हैं कि वे नेगेटिव का रंजक (dye) प्रतिबिंब चाँदी के प्रतिबिंब के साथ साथ बना देते हैं, जिससे एक रंगीन नेगेटिव प्राप्त हो जाता है। दूसरे पदार्थ उत्क्रमण (reversal) तथा रंग डेवलप करने के सिद्धांत पर कार्य करते हैं और इस प्रकार चाँदी के पृथक्करण नेगेटिव प्रतिबिंबों को सायन, मैंजेंटा तथा पीले पॉजिटिव प्रतिबिंबों, या चित्रों में परिवर्तित कर देते हैं।

सं.ग्रं. - फ्रीडमन : हिस्ट्री ऑव कलर फोटोग्राफी (१९४४), अमरीकन पब्लिशिंग कंपनी, बोस्टन; एवैंज, हैसन तथा ब्रूवर (१९५३): प्रिंसिपल्स ऑव कलर फोटोग्राफी, जॉन विली ऐंड संस, न्यूयॉर्क। (लवलेश राय खरे)